कुलविंदर रोड़ी
भारत के विश्व गुरु बनने के दावे करने वाले कई बार यह भूल जाते हैं कि भारत आज भी कई मध्ययुगीन औरत विरोधी मान्यताओं से ग्रस्त है। जिसमें भारत में लड़कियों की भ्रूण हत्या हमारे समाज के माथे पर घिनौना धब्बा है। औरतों के प्रति हमारे समाज की सोच रूढ़िवादी है और औरतों को दूसरे दर्जे के इंसान के रूप में साथ देखा जाता रहा है। औरतों के प्रति यह सोच जहाँ विश्व स्तर पर है वहीं भारत जैसे पिछड़े देश में हालात उससे कहीं अधिक गंभीर हैं। भारत में लड़कियों के साथ भेदभाव से हम काफी हद तक वाकिफ हैं। जब किसी परिवार में लड़की का जन्म होता है, तो घर में मातम छा जाता है, जैसे कोई बड़ी अनहोनी हो गई हो, करीबी लोगों द्वारा भी अक्सर यह कहते-सुना जा सकता है कि “अगर लड़का होता तो बढ़िया था, बेटी तो बेगाना धन होती है।” जब किसी औरत की कोख से एक से ज्यादा लड़कियाँ जन्म ले लें, तो उसका जीना ही दूभर हो जाता है।
2020 के एक अध्ययन के मुताबिक अगर भारत में गर्भ में कत्लों का सिलसिला ऐसे ही चलता रहा, तो 2017 से लेकर 2030 तक 68 लाख लड़कियों का गर्भ में ही कत्ल हो चुका होगा, यानी इतनी लड़कियाँ यह दुनिया कभी नहीं देख सकेंगी। कितना क्रूर है हमारा समाज और ढाँचा, जो 68 लाख लड़कियों की भ्रूण हत्या कर देगा, फिर भी संवेदनहीनता की हद तक चुप्पी साधे रहेगा।
भारत सरकार के एक सर्वेक्षण के मुताबिक साल 2000 से लेकर 2019 तक 90 लाख लड़कियों की भ्रूण हत्या हो चुकी है। लड़कियों के गर्भ में कत्लों का दौर तकनीक के इस्तेमाल के साथ बढ़ा है। पिछले चार दशकों से तकनीक का दुरुपयोग करके गर्भ में पल रहे भ्रूण के लिंग के बारे में पता लगाया जाता है और अगर भ्रूण लड़की का है, तो कई बार कत्ल कर दिया जाता है। जबकि 1994 में कानून बनाकर भ्रूण की किसी भी तरह की जाँच को गैर-कानूनी कर दिया गया परंतु कानून सिर्फ कागजों का श्रृंगार बनकर रह गया, कभी भी अमली रूप में लागू नहीं हुआ। पैसे के लालच में लिंग जाँच करने वाले मेडिकल प्रैक्टिशनर और डॉक्टरों पर कभी भी पूरी तरह प्रतिबंध नहीं लग सका और ना ही सरकार ऐसा चाहती है। भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के सचिव ने एक बयान में कहा था की भारत में लगभग 22,000 ऐसे क्लीनिक हैं, जहाँ भ्रूण के लिंग की जाँच की जाती है। इसे रोकने के लिए खोखले नारों के सिवाए कुछ नहीं किया जाता।
औरतों के साथ भेदभाव की परिघटना उत्तर भारत में ज्यादा है। जैसे राजस्थान, हरियाणा, यूपी, बिहार, दिल्ली वगैरा। इन राज्यों में सांस्कृतिक तौर पर पिछड़े होना भी एक कारण है, जिसके ऐतिहासिक कारण हैं। वैसे तो पूरे भारत में ही औरतों के प्रति व्यवहार के हालात अच्छे नहीं हैं, परंतु उत्तर भारत में मुकाबलतन और भी ज्यादा बुरे हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक साल 2016 से 2021 के बीच भ्रूण हत्या विरोधी कानून के तहत 1581 मुकदमे दर्ज हुए हैं। जिसमें साल 2016 में 240, साल 2017 में 312, साल 2018 में 238, साल 2019 में 262, साल 2020 में 259 और 2021 में 270 केस दर्ज हुए। इनमें बड़ी तादाद में मुकदमें उत्तर भारत से हैं। ये वो मुकदमे हैं जो कानून की दहलीज तक पहुँचे तो गिनती में आ गए। असल में तो लाखों ही ऐसे भ्रूण हत्या के मुकदमे हैं, जो कानून की दहलीज पर आते ही नहीं। अकेले राजस्थान में ही पिछले 5 साल में 131 मुकदमे भ्रूण हत्या के तहत दर्ज हुए हैं।
अक्सर जब गर्भ में हत्याओं की बात होती है, तो प्रश्न उठता है कि आखिर सरकार कर क्या रही है? मोदी सरकार ने 2015 में हरियाणा के पानीपत से ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ मुहिम की शुरुआत की थी, परंतु “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” का नारा सिर्फ पाखंड साबित हुआ है। यह वही भाजपा सरकार है जिसके नेता औरतों को बच्चे पैदा करने की मशीन मानते हैं और पति की सेवा करना उसका प्रमुख काम। 2015 में इस योजना की शुरुआत के लिए 644 करोड़ रुपए जारी किए गए, जिसमें से 356 करोड़ (56 प्रतिशत) सिर्फ योजना की मशहूरी करने पर ही उड़ा दिए गए। बाकी बचे पैसे भी ढंग से खर्च नहीं किए गए। इस मुहिम के तहत देश-भर के 161 जिलों को चुना गया, जहाँ लड़कियों की जन्म दर को बढ़ाना था, परंतु इन जिलों में लड़कियों की जन्म दर बढ़ने की बजाय घट गई। अब इस मुहिम का मोदी सरकार ने नाम लेना भी छोड़ दिया है (शायद मोदी भी भूल गया हो कि उसने इस तरह की किसी योजना की भी शुरुआत की थी) इस मुहिम का मतलब सिर्फ वोट हासिल करना था। यह भाजपा सरकार ही थी कि जिसने महिला पहलवानों का शारीरिक शोषण करने वाले भाजपा के सांसद ब्रज भूषण शरण सिंह को शह दी और उस पर कोई कार्रवाई नहीं की।
जब तक यह पूँजीवादी ढाँचा रहेगा तब तक भारत में लड़कियों की भ्रूण हत्या की बीमारी को खत्म करना नामुमकिन है। औरतों की गुलामी और उनके दूसरे दर्जे की नागरिक होने की जड़ें इस पूँजीवादी व्यवस्था में मौजूद हैं। औरतों की मुक्ति का सवाल बस लोगों के विचार बदलने का सवाल नहीं, बल्कि उस व्यवस्था की जड़ें उखाड़ने का सवाल है, जिसके रास्ते से औरतों की गुलामी और औरत विरोधी सब विचार पैदा होते हैं।
(लेखक साम्यवादी चिंतक हैं। आलेख में व्यक्त विचार इनके निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है। आलेख मुक्ति संग्राम के नवंबर अंक से लिया गया है।)