गौतम चौधरी की खास रपट
रांची/ झारखंड में चुनाव की घाषणा के साथ ही भारतीय जनता पार्टी अखाड़े में आ डटी। हालांकि पार्टी, विगत कई महीनों से चुनावी मोड में थी लेकिन सब कागजी तौर जैस ही प्रतीत हो रहा था। तामझाम तो ऐसा दिखा, मानो जैसे प्रदेश भाजपा कोई निर्णायक युद्ध की तैयारी कर रही हो लेकिन संगठन की आंतरित स्थिति बया करने वालों ने बताया कि जो भाजपा अध्यक्ष के चयन के कई महीनों बाद तक उसकी पूरी कमेटी घोषित नहीं कर पायी, आखिर वह चुनाव लड़ने के प्रति कितना संवेदनशील है, इसका आकलन खुद ही लगाया जा सकता है।
खैर, चुनाव की घाषणा एक महीने पहले कर दी गयी। इसके बारे में भी प्रतिपक्षियों के अपने दलील हैं लेकिन चुनाव तो कराना ही था, सो घोषित हो गयी। बड़ी जद्दोजहद और संजीदगी दिखाते हुए भाजपा ने अपने उम्मीदवारों की सूची जारी की। इसके बाद भाजपा में कार्यकर्ताओं और नेताओं का बहिरगमण प्रारंभ हुआ। कुछ को मनाने में कामयाबी मिली तो कुछ अभी भी चुनावी मैदान में डटें हैं। कुल मिलाकर प्रदेश की 40 ऐसी सीटें हैं, जहां भारतीय जनता पार्टी अपनों से लड़ाई लड़ रही है।
जानकार बताते हैं कि भाजपा के एक तेज-तर्रार आदिवासी महिला नेता इन दिनों गुमला और लोहरदगा में बुरी तरह सक्रिय हैं। जानकार सूत्रों से मिली खबर में तो यहां तक बताया जा रहा है कि उन्होंने अपने समर्थक और सहयोगियों का कहा है कि यदि गुमला में भाजपा जीत जाती है तो महाशया की राजनीतिक खत्म हो जाएगी। महोदया अपने को खुद मुख्यमंत्री की दौड़ में भी बताती हैं। लोहरदगा-गुमला पृष्टभूमि के भाजपा के एक पूर्व राज्यसभा सांसद व वैश्य नेता, पूर्व मुख्यमंत्री करीबी, अपने दो चेलों के साथ इन दिनों उधर ही सक्रिय हैं। उनका भी कहना है कि किसी कीमत पर इधर से भाजपा की जीत नहीं होनी चाहिए। डालटेनगंज में भी लगभग यही स्थिति बनी हुई है। इन तमाम स्थानों पर भाजपी ही भाजपा उम्मीदवारों को हराने में अपनी भूमिका निभा रहे हैं।
दक्षिण छोटनागपुर के रांची जिले में भी प्रत्येक विधानसभा में भाजपा को अपने ही कार्यकर्ता और नेताओं से निवटना पड़ रहा है। चतरा और हजारीबाग की भी वही स्थिति है। हजारीबाग में तो इस बात को लेकर बड़ी समस्या खड़ी हो गयी है कि जो जातीय समूह भाजपा का पारंपरिक वोटर रहा उसका प्रतिनिधित्व सीमित कर दिया गया है और जिस जाति के लोगों ने लोकसभा तक में भाजपा को ठेंगा दिखाया, उसके प्रतिनिधित्व की संख्या बढ़ा दी गयी है। इसी चक्कर में प्रदेश अध्यक्ष की सीट भी फंस गयी है। कहने के लिए डॉ. रविन्द्र राय को को तो मना लिया गया और आनन-फानन में उन्हें प्रदेश का कार्यकारी अध्यक्ष भी बना दिया गया लेकिन उसका कोई फायदा होता नहीं दिख रहा है। उलटे प्रदेश भर के भूमिहार ब्राह्मण भाजपा के खिलाफ होते दिख रहे हैं।
यही नहीं इस बार भाजपा के अंदर, बाहरी और भीतरी का विभाजन साफ दिख रहा है। खासकर बिहारी पृष्टभूमि के अगड़ी जाति के मतदाताओं को इस बात का डर है कि यदि भाजपा का वर्तमान नेतृत्व इसी प्रकार सक्रिय रहा तो, आने वाले समय में उन्हें महाराष्ट्र, गुजरात, असम जैसी समस्या का न कहीं सामना करना न पड़ जाए। जमशेदपुर और बोकारो की स्थिति तो फिलहाल यही वयां कर रही है। इस बार हजारीबाग जैसे भाजपा के सुरक्षित सीट पर भी व्यापक असर दखने को मिल रहा है।
कोल्हान और संथालपरगना का हाल भी इससे कोई मिन्न नहीं है। कुल मिलाकर देखें तो भाजपा या तो अति उत्साह में है, या फिर जमीनी हकीकत से वाकफ नहीं है। या भाजपा के प्रदेश नेतृत्व जानबूझ कर प्रदेश का चुनाव हारना चाहती है। हालांकि ऐसा कहना एकपक्षीय होगा लेकिन स्थिति जो दिख रही है उसका फिलहाल आकलन तो यही कह रहा है।
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