वामपंथ/ पूंजीवादी US में वामपंथी रूझान, अमेरिकी में मज़दूरों की चली सात हफ्ते लंबी हड़ताल

वामपंथ/ पूंजीवादी US में वामपंथी रूझान, अमेरिकी में मज़दूरों की चली सात हफ्ते लंबी हड़ताल

234 नवंबर 2024 को संयुक्त राज्य अमेरिका (आगे अमेरिका) की जहाज़ बनाने वाली प्रसिद्ध कंपनी बोइंग के मज़दूरों की सात सप्ताह लंबी हड़ताल ख़त्म हो गई। यह हड़ताल काफ़ी समय से चर्चा में थी, क्योंकि यह मज़दूरों की एक बड़ी संगठित कार्रवाई थी, जिसके अन्य क्षेत्रों में भी फैलने का हुक्मरानों को डर था। बोइंग अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी है, जो दुनिया-भर में हवाई जहाज़, रोटरक्राफ्ट, रॉकेट और मिसाइलें बनाती और बेचती है। यह कंपनी अमेरिका की सबसे बड़ी निर्यातक भी है। इसलिए इस हड़ताल को ख़त्म करने के लिए कंपनी के मालिकों और अमेरिकी सरकार का बहुत ज़ोर लगा हुआ था।

यह हड़ताल बोइंग की सबसे बड़ी यूनियन द्वारा 16 वर्षों में की गई पहली हड़ताल थी, जिसमें काम के ख़राब हालात, कम तनख़्वाहों और बेतहाशा लूट-खसोट के ख़ि‍लाफ़ रोष व्यक्त करते हुए लगभग 33 हज़ार मज़दूर शामिल थे। उन्होंने तनख़्वाहों में 40ः बढ़ौतरी, भत्तों में बढ़ौतरी और पुरानी पेंशन योजना को बहाल करने आदि माँगों के लिए सात सप्ताह लंबी हड़ताल की। यह हड़ताल अमेरिका में 21वीं सदी में हुई हड़तालों में सबसे महँगी (मालिकों और अर्थव्यवस्था को नुक़सान के लिहाज से) बताई जा रही है। विशेषज्ञों के अनुसार, इस हड़ताल के कारण कंपनी को हर दिन लगभग 10 करोड़ अमेरिकी डॉलर का नुक़सान झेलना पड़ा है और अर्थव्यवस्था को करीब 9.6 अरब अमेरिकी डॉलर का नुक़सान हुआ है, जिसका बड़ा हिस्सा बोइंग के मालिकों को उठाना पड़ा। सिर्फ़ यही नहीं, कंपनी के मालिकों को इस समय के दौरान अपनी निवेश-ग्रेड क्रेडिट रेटिंग (निवेशकों के लिए किसी कंपनी की हालत का सूचक) को सुरक्षित रखने के लिए निवेशकों से 24 अरब अमेरिकी डॉलर जुटाने के लिए मजबूर होना पड़ा, जो कि किसी अमेरिकी कंपनी द्वारा अब तक की सबसे बड़ी राशि है।

मज़दूरों के संघर्ष के दबाव के कारण मालिकों को मज़दूरों के सामने झुकते हुए उनकी ज़्यादातर माँगें मानने के लिए मजबूर होना पड़ा है, जिसमें चार वर्षों में 38ः तनख़्वाह बढ़ौतरी, हरेक यूनियन सदस्य के लिए 12,000 अमेरिकी डॉलर का बोनस शामिल है। भले ही पुरानी पेंशन बहाल करने की माँग नहीं मानी गई, लेकिन उनकी सेवा मुक्ति योजना में कंपनी के अधिक योगदान के वादे किए गए हैं। उल्लेखनीय है कि यह फ़ैसला होने से पहले यूनियन और प्रबंधन के बीच बातचीत के कई दौर चले। मौक़ापरस्त और कंपनी की पक्षधर यूनियन लीडरशिप द्वारा संघर्ष को धीमा करने की साजिशों को नाकाम करते हुए दूसरे मज़दूरों ने एकता बनाए रखी और हड़ताल ख़त्म करने के पहले दो प्रस्तावों को वोटिंग करके रद्द कर दिया और अपनी माँगों पर डटे रहे।

मौजूदा हड़ताल को एक अलग-थलग घटना के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि यह पूँजीवादी व्यवस्था के प्रति मज़दूरों के ज़बरदस्त गुस्से को दिखाती है। पिछले समय से, ख़ासकर कोरोना-लॉकडाउन काल के बाद, पश्चिम के विकसित पूँजीवादी देशों में मज़दूर आंदोलनों में फिर से उभार देखने को मिला है। कोरोना-लॉकडाउन काल में हुक्मरानों द्वारा अपनाई गई जोड़-तोड़ की नीतियों ने कई देशों की अर्थव्यवस्थाओं को बुरे तरीक़े से प्रभावित किया। पूँजीवादी हुक्मरानों ने अपने गिरते मुनाफ़ों को बढ़ावा देने के लिए इस संकट का बोझ मज़दूर वर्ग पर और कुल मेहनतकश जनता पर डालने की कोशिश की, जिसके नतीजे के तौर पर कई देशों में मज़दूर वर्ग द्वारा जवाबी कार्रवाई करते हुए हुक्मरानों की इन नीतियों का विरोध किया गया। डावाँडोल अर्थव्यवस्थाओं में फैली बेरोज़गारी और बढ़ती महँगाई ने जली में तेल डालने का काम किया है और जनता के रोष को और तीखा किया है।

अगर अमेरिका की बात करें तो पिछले चार दशकों में अमेरिका में ट्रेड यूनियन सदस्यता में गिरावट दर्ज हो रही थी, लेकिन कोरोना-लॉकडाउन के समय और उसके बाद इस स्थिति में बदलाव आना शुरू हुआ है। अमेरिका में अफ्रीकी मूल के लोगों का संघर्ष, मज़दूरों का यूनियनों में संगठित होना जनता के बढ़ते रोष का ही इज़हार है। ब्लूमबर्ग लॉ के द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार, साल 2023 में करीब 4 लाख 85 हज़ार मज़दूरों ने अमेरिका के भीतर विभिन्न हड़तालों में हिस्सा लिया और 317 बार काम रोका गया। साल 2000 के बाद अमेरिका में मज़दूर हड़तालों की यह सबसे बड़ी संख्या है। ‘कॉर्नेल यूनिवर्सिटी’ के अध्ययन के अनुसार, हड़ताली मज़दूरों की संख्या ऊपर दिए गए आँकड़ों से कहीं अधिक है और अकेले अक्टूबर 2023 में ही लगभग 3 लाख 10 हज़ार मज़दूरों ने हड़ताल की।

भले ही मज़दूरों के इन संघर्षों में सबसे ज़्यादा मज़दूरों की अपनी आर्थिक माँगों से जुड़े संघर्ष थे, लेकिन इसके साथ-साथ अमेरिका की जनता भुखमरी जैसे सियासी मुद्दों पर भी लगातार अपनी एकजुटता दिखा रही है। भले ही वह यूक्रेन युद्ध में अमेरिकी सरकार द्वारा यूक्रेन को भेजी जा रही सैन्य मदद के ख़िलाफ बड़े प्रदर्शन हों या फ़िलिस्तीन का समर्थन करने वाले रोष प्रदर्शन हों। मज़दूरों के अलावा फ़िलिस्तीन के हक़ में अमेरिकी विद्यार्थियों ने भी अगुवा भूमिका निभाई है। लगभग 150 अमेरिकी यूनिवर्सिटियों में फ़िलिस्तीनियों के क़त्लेआम के ख़िलाफ बड़े मुजाहरे किए गए, जिन पर पुलिस ने अंधाधुंध लाठीचार्ज किया, आँसू गैस छोड़ी और रबड़ की गोलियाँ चलाईं। अमेरिका के 50 में से 45 राज्यों में इस युद्ध के ख़िलाफ बड़े प्रदर्शन हो चुके हैं। ये घटनाएँ अमेरिकी जनता की बढ़ती सियासी चेतना का प्रतीक हैं।

जहाँ एक तरफ़ हुक्मरान वर्गीय मीडिया और बुद्धिजीवियों के एक हिस्से द्वारा लगातार यह प्रचार किया जाता है कि अब हालात बदल चुके हैं, कि मज़दूर वर्ग अब संगठित नहीं हो सकता। कई इससे भी आगे जाकर घोषणा कर देते हैं कि पश्चिम में अब मज़दूर वर्ग ही नहीं रहा, लेकिन ये सभी संघर्ष इन झूठे दावों और हवा-हवाई बातों की हवा निकाल देते हैं। पूँजीवादी व्यवस्था मज़दूरों की लूट पर टिकी हुई व्यवस्था है, जहाँ एक ओर मुट्ठी-भर अमीरों की धन-दौलत के अंबार बढ़ते जाते हैं, वहीं दूसरी ओर यह जनता को ग़रीबी और बदहाली भरी ज़िंदगी की ओर धकेलता है। इसलिए पूँजीपति वर्ग के बढ़ने-फूलने के साथ-साथ यह एक ऐसे वर्ग को भी ताक़तवर बनाती है, जिसके पास लड़ने और संघर्ष करने के अलावा कोई और रास्ता नहीं होता। ये घटनाएँ यह दर्शाती हैं कि मज़दूर और मेहनतकश जनता केवल लूट, दमन सहने वाली बेजान निष्क्रय आबादी नहीं है, बल्कि अपने हक़ों के लिए डटकर लड़ने की हिम्मत भी रखती है। आज इस बात की फ़ौरी ज़रूरत है कि स्वस्फूर्त बढ़ रहे मज़दूरों और मेहनतकशों के संघर्षों को सही रास्ता दिखाने के लिए संगठित नेतृत्व का निर्माण किया जाए, ताकि जनविरोधी पूँजीवादी व्यवस्था को बदलने की लड़ाई तेज़ की जा सके।

(आलेख वामपंथी विचारधारा की पत्रिका मुक्ति संघर्ष के दिसंबर अंक से प्राप्त की गयी है। लेखिका के विचार स्वतंत्र हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)

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