वामपंथ/ गुजरे वर्ष मेहनतकश मजदूरों के हालात की समीक्षा और शोषण उत्पीड़न के कीर्तिमान

वामपंथ/ गुजरे वर्ष मेहनतकश मजदूरों के हालात की समीक्षा और शोषण उत्पीड़न के कीर्तिमान

साल 2024 जहाँ पूँजीपति वर्ग के ढेरों मुनाफ़े कमाने का साल रहा, वहीं मज़दूर वर्ग और अन्य मेहनतकशों के लिए लूट, शोषण, अन्याय का साल रहा। गुज़रा साल मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए ग़रीबी, महँगाई, बेरोज़गारी, बद से भी बदतर हालात का साल रहा है। इससे पहले के सालों की तरह साल 2024 में भी मज़दूरों को छोटे-बड़े औद्योगिक हादसों में बड़े स्तर पर जिं़दगियाँ गँवानी पड़ी हैं और अन्य तमाम तरह का नुक़सान उठाना पड़ा है। एक ग़ैर-सरकारी संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक़, साल 2024 औद्योगिक मज़दूरों के लिए भयानक रहा है। 10 दिसंबर तक के हादसों की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2024 में 240 के करीब औद्योगिक हादसे/दुर्घटनाएँ हुईं, जिनमें 400 से ज़्यादा मौतें और 850 से अधिक मज़दूर गंभीर रूप से घायल हुए। रिपोर्ट के अनुसार, रसायन और फ़ार्मास्यूटिकल क्षेत्र में होने वाले हादसे सबसे भयानक हैं। इस क्षेत्र में होने वाले 110 हादसों में 220 के करीब मज़दूरों ने अपनी जानें गँवाईं और 550 से अधिक मज़दूर घायल हुए। खनन उद्योग में 22 के करीब हादसों में 60 मज़दूर मारे गए और 50 से अधिक मज़दूर घायल हुए। यहाँ यह बात भी ध्यान देने लायक़ है कि ऐसे मामलों के बारे में सिर्फ़ अधूरे आँकड़े ही सामने आते हैं। थोड़ी-बहुत सूझबूझ रखने वाला व्यक्ति भी यह जानता है कि असल हादसों की संख्या कहीं अधिक है। ज़्यादातर मामले पैसे और प्रभाव के बल पर दबा दिए जाते हैं।

साल 2024 में हुए औद्योगिक हादसों और इसमें मज़दूरों और आम आबादी के हुए नुक़सान की सूची लंबी है। यहाँ कुछ उदाहरण ही दिए जा सकते हैं। इन उदाहरणों से साफ़ देखा जा सकता है कि औद्योगिक हादसों का कारण पूँजीपति वर्ग की कभी ना ख़त्म होने वाली मुनाफ़े की लालसा है, जिसके लिए वे सुरक्षा संबंधी तमाम नियम-क़ानूनों की सरेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं। मई 2024 में दिल्ली के मुंडका इलाक़े में इलेक्ट्रॉनिकस का सामान बनाने वाली फ़ैक्टरी की चार मंज़िला इमारत में आग लग गई। इस हादसे में 27 मज़दूरों की मौत हुई, जिनमें एक 21 साल की मुस्कान भी थी। मुस्कान फ़ैक्टरी में दो साल से काम कर रही थी और उसकी आय से ही परिवार का गुज़ारा चलता था। फ़ैक्टरी में सुरक्षा के किसी प्रकार के इंतज़ाम नहीं थे। लेकिन मज़बूरी में मुस्कान को वहाँ काम करने जाना पड़ता था। उसके भाई ने रोते हुए बताया कि घटना वाले दिन भी मुस्कान और अन्य मज़दूरों को बचाया जा सकता था, लेकिन फ़ैक्टरी में बाहर निकलने के लिए कोई आपातकालीन रास्ता नहीं था। बाहर निकलने के लिए एकमात्र रास्ता बक्से रख कर बंद किया हुआ था। इसलिए मुस्कान और अन्य मज़दूर बाहर नहीं निकल पाए और आग में झुलस गए। बाद में पता चला कि सरकार की आँखों तले राजधानी में यह फ़ैक्टरी ग़ैर-क़ानूनी तौर पर चल रही थी और इसमें मज़दूरों की सुरक्षा का ज़रा-सा भी प्रबंध नहीं था। फ़ैक्टरी मालिकों और सरकार की लापरवाही के कारण 27 मज़दूरों को अपनी जान गँवानी पड़ी।

फ़रवरी 2024 में मध्य प्रदेश के हारदा में पटाखों की फ़ैक्टरी में आग लगने से 9 मज़दूरों की मौत हो गई और 200 से ज़्यादा मज़दूर घायल हो गए। धमाका इतना ज़बरदस्त था कि फ़ैक्टरी के पास के 60 घरों को माली नुक़सान पहुँचा और 100 के करीब घर ख़ाली करवाए गए। हादसा पटाखे बनाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले रसायनों के फटने से हुआ। आग रोकने के लिए उचित व्यवस्था ना होने के कारण (चेन रिएक्शन से) आग फैल गई, जिसके कारण बड़ा धमाका हुआ और 9 मज़दूरों को जानें गँवानी पड़ीं। इसी तरह की घटनाएँ जनवरी में हरियाणा के सिरसा, उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर, कर्नाटक के मंगलुरू में पटाखा फ़ैक्टरियों में हुईं, जिनमें मज़दूरों को जानें गँवानी पड़ीं। हरियाणा के सिरसा में 14 साल के बच्चे ने हादसे में अपनी जान गँवाई। सरकार के बाल मज़दूरी को जड़ से ख़त्म करने के किए जाने वाले दावों की पोल भी खुली। हक़ीक़त में करोड़ों बच्चे बाल मज़दूरी की दलदल में फँसे हुए हैं और इससे साफ़ है कि बाल मज़दूरी पर रोक केवल काग़ज़ों पर है।

मई 2024 में महाराष्ट्र के ठाणे शहर में एक रसायन फ़ैक्टरी में हुए बॉयलर विस्फोट के कारण 9 मज़दूरों की मौत हुई। जाँच के बाद पता चला कि फ़ैक्टरी में ख़ाँे-पीने की चीज़ों में इस्तेमाल किए जाने वाले रंगों का उत्पादन होता था। इन रंगों को बनाने के लिए रसायन इस्तेमाल किए जाते थे। फ़ैक्टरी मालिकों ने रसायनों के मिश्रण, तैयार माल और इसके रख-रखाव से संबंधित उचित व्यवस्था या ज़रूरी निर्देशों का पालन नहीं किया, जिसके कारण यह हादसा हुआ और 9 मज़दूरों की जानें चली गईं। इसी तरह अगस्त 2024 में आंध्र प्रदेश के अटच्यूटापूरम में विशेष आर्थिक क्षेत्र की एक फ़ार्मा कंपनी में धमाका हुआ। इस हादसे में 18 मज़दूर मारे गए और 33 मज़दूर घायल हो गए। घायलों में पाँच मज़दूरों का 60 प्रतिशत से ज़्यादा शरीर झुलस गया। इसी स्थान पर जून में भी हादसा हुआ था, जिसमें 6 मज़दूर मारे गए थे।

ये साल 2024 में हुए औद्योगिक हादसों के कुछ उदाहरण हैं। ऐसे सैकड़ों और भी उदाहरण दिए जा सकते हैं, जिनमें मर्द मज़दूरों समेत बाल मज़दूरों, महिला मज़दूरों की मौतें हुई हैं। इन घटनाओं में से कुछ ही अख़बारों की सुर्खियाँ बन पाई हैं, लेकिन अनगिनत मामले ऐसे हैं, जिनकी कभी किसी अख़बार, मीडिया चौनल पर चर्चा भी नहीं होती। आम जनता के कुछ हिस्सों के लिए ऐसी ख़बरें मूड ख़राब करने वाली होती हैं और सरसरी निगाह डालकर व्यक्ति ‘मुख्य समाचार’ की ओर चला जाता है।

ये घटनाएँ ज़्यादातर कारख़ानों से बाहर तो क्या बहुत बार कारख़ानों के विभाग से भी बाहर नहीं जातीं। फ़ैक्टरियों, वर्कशॉपों, निर्माण स्थलों, भट्ठों, होटलों आदि पर काम करने वाले मज़दूरों के साथ अनेकों हादसे होते हैं, जिनमें उँगलियाँ कट जाना, हाथों/पैरों का टूटना, कूल्हा टूटना आदि बहुत आम हैं। जिन फ़ैक्टरियों में बारीक काम होता है या रसायनों आदि का इस्तेमाल होता है, वहाँ नज़र कमज़ोर होना, सांस संबंधी रोग, कैंसर आदि से मज़दूर ग्रस्त हो जाते हैं और जीवन-भर इन बीमारियों से पीड़ित रहते हैं। मेरी जानकारी में ही एक राजगीर-मिस्त्री निर्माण का काम करते हुए ऊँचाई से गिर गया, जिस कारण उसका कूल्हा टूट गया। उसकी जान तो बच गई, लेकिन बाक़ी जीवन ग़रीबी-मंदहाली में बिस्तर पर बिताने के लिए मजबूर हो गया। किसी सरकारी विभाग या मालिकों ने उसकी कोई मदद नहीं की। लुधियाणा के एक कारख़ाने में हादसा होने पर कारख़ाना मालिक द्वारा जिं़दा मज़दूर को भट्टी में फेंकने की बात मुझे किसी मज़दूर ने ख़ुद बताई थी। प्रवासी मज़दूर होने के कारण उसका कोई फ़ैक्टरी कार्ड नहीं था और ना ही उस फ़ैक्टरी में काम करने का रिकॉर्ड ही था।

दुनिया-भर में भारत के मज़दूर सबसे असुरक्षित जगहों पर काम करते हैं। ऐसा नहीं है कि अन्य देशों में मज़दूरों-मेहनतकशों की हालत बहुत बेहतर है। कहीं ज़्यादा तो कहीं कम दुनिया के अन्य देशों में भी हालात ऐसे ही हैं। विश्व-स्तर पर 27.80 लाख मज़दूर हर साल काम से संबंधित बीमारियों या हादसों के दौरान मारे जाते हैं और 37.4 करोड़ घायल होते हैं। कहने का अर्थ है कि संसार में रोज़ाना 7500 मज़दूरों की मौतें हादसों या बीमारियों से होती हैं। ज़्यादातर बीमारियाँ मज़दूरों को ख़राब कार्यस्थलों पर काम करने के दौरान होती हैं।

इन हादसों का मुख्य कारण फ़ैक्टरी मालिकों/पूँजीपतियों द्वारा कार्यस्थलों पर सुरक्षा के प्रबंध ना करना, मज़दूरों पर काम का ज़्यादा बोझ डालना आदि होता है। फ़ैक्टरी में सुरक्षा प्रबंध करना, मज़दूरों को काम के दौरान सुरक्षा का साजो-सामान मुहैया करवाना आदि पर पूँजीपतियों का ख़र्चा होता है, जिसके चलते उनके मुनाफ़े में कटौती होती है। अपने मुनाफ़े को बचाने के लिए पूँजीपति असुरक्षित हालात में मज़दूरों से काम करवाते हैं, जिसका नतीजा किसी ना किसी हादसे या दुर्घटना में निकलना ही होता है। जब कोई हादसा हो जाता है, तो इसे दुर्घटना का नाम दे दिया जाता है। असल में ऐसे हादसों को पूँजीपतियों द्वारा अपने मुनाफ़े को बचाने-बढ़ाने के लिए किए गए क़त्ल कहा जाना चाहिए। यह कोई अकेला पूँजीपति नहीं, बल्कि पूरा पूँजीपति वर्ग करता है, क्योंकि पूँजीपति वर्ग मज़दूरों को मुनाफ़ा पैदा करने वाली हाड़-मांस की मशीन और कीड़े-मकौड़ों के सिवा कुछ नहीं समझता और मज़दूरों की जान की रत्ती-भर भी परवाह नहीं करता। इसी कारण ही अनगिनत मज़दूर और अन्य लोग मुनाफ़े की बलि‍ चढ़ा दिए जाते हैं।

इसलिए ये केवल हादसे नहीं, बल्कि इससे भी बढ़कर ये जानलेवा हमले हैं, इनमें होने वाली मौतें असल में हत्याएँ हैं, हमलावर और हत्यारे अंधे मुनाफ़े के लालची पूँजीपति हैं। यही पूरी पूँजीवादी व्यवस्था है। इंसानियत, न्याय, भाईचारा ख़ूबसूरत शब्द हैं, लेकिन पूँजीपतियों के लिए इन शब्दों के कोई मायने नहीं होते। एक उदाहरण के ज़रिए इस बात को और आसानी से समझा जा सकता है। लुधियाणा की फ़ैक्टरियों में से निकलने वाले गंदे पानी को (जिसमें ऐसे रसायन हैं, जो कैंसर का कारण बनते हैं) फ़ैक्टरी मालिक बिना साफ़ किए ही गंदे नाले द्वारा सतलुज में बहा देते हैं। इसके कारण सतलुज के इलाक़े के गाँवों में कैंसर फैल रहा है और जानें जा रही हैं। इसका कारण है फ़ैक्टरियों के गंदे पानी को साफ़ करने के लिए ट्रीटमेंट प्लांट लगाना पड़ता है, जिसे लगाने पर ख़र्चा होता है, जिससे पूँजीपतियों के मुनाफ़े में कटौती होती है। पूँजीपतियों के मुनाफ़े के लालच के कारण ये सब बिना रुके चल रहा है और लोगों की बलि‍ ले रहा है। अब आप ख़ुद फ़ैसला करें कि इसे बीमारियों द्वारा मौतें माना जाए या पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा किए जा रहे क़त्ल माना जाए।

घटनाएँ होने के बाद सरकारें घड़ियाली आँसू बहाती हैं और मुआवज़ा देने के ड्रामे रचती हैं, ताकि लोगों को गुमराह किया जा सके कि वे मज़दूरों की शुभचिंतक हैं। लेकिन हक़ीक़त में इन हादसों के बाद दोषियों को सज़ाएँ नहीं मिलतीं, पीड़ितों को इंसाफ़ नहीं मिलता। पीड़ितों को कोई मुआवज़ा तक नहीं मिलता या बहुत कम मिलता है। जहाँ इंसाफ़ मिलता भी है, वहाँ लोगों के संघर्ष का दबाव होता है। उदाहरण के लिए, 2024 में 1984 के भोपाल गैस कांड को 40 साल हो गए हैं। इसमें पंद्रह से बीस हज़ार लोगों की जानें गई थीं। घायलों और अन्य नुक़सान का तो कोई हिसाब ही नहीं है। भोपाल गैस लीक कांड के इतने बड़े मामले तक में पीड़ितों को इंसाफ़ नहीं मिला। पीड़ितों को डॉक्टरी और अन्य सहायता देने के लिए बनी संस्था वित्तीय घाटों से गुज़र रही है। पिछले दिनों उन्होंने वित्तीय सहायता के लिए सरकार के पास गुहार लगाई है। दूसरी बात, सरकार के रवैए का पता इस बात से भी लगता है कि सरकार द्वारा इन चालीस सालों में भारत देश के मज़दूरों के लिए कार्यस्थलों पर कौन-सा सुरक्षित माहौल बनाया गया है। आँकड़ों द्वारा ऊपर बताया ही गया है कि मेहनतकश लोगों के लिए काम और जीवन स्थितियाँ बल्कि पहले से भी बदतर हो गई हैं।

ज़रूरत तो यह है कि औद्योगिक हादसों के जारी सिलसिले को रोकने के लिए सरकारें पुख्ता क़दम उठाएँ। ज़रूरत तो यह है कि सरकारें बिना देरी किए पहले से मौजूद क़ानूनों के तहत सुरक्षा प्रबंधों का उल्लंघन करने वाले पूँजीपतियों के ख़ि‍लाफ़ सख़्त से सख़्त कार्रवाई करें। समय की माँग तो यह है कि बेहतर और सुरक्षित कार्य-परिस्थितियाँ बनाई जाएँ और आम लोगों की सुरक्षा के लिए क़ानूनों को सख़्त बनाया जाए। सुरक्षा नियम-क़ानूनों का उल्लंघन करने वाले पूँजीपतियों को बामश्कत लंबे समय तक जेल, भारी जुर्माने जैसी सख़्त से सख़्त सज़ाएँ देने के लिए क़ानून बनाए जाएँ और सख़्ती से लागू भी किए जाएँ। लेकिन सरकारें तो इससे उलटी दिशा में ही चल रही हैं और संघर्षों द्वारा मेहनतकशों को मिले अधिकारों को भी ख़त्म कर रही हैं।

‘कारोबार करने में आसानी’ के नाम पर सरकार और भी नंगे रूप में अपने पूँजीपति मालिकों की पीठ पर खड़ी हो गई है, और भी ज़्यादा बिना किसी भी रोक-टोक के कारख़ाने चलाने को हरी झंडी दे दी है। मोदी सरकार ने पुराने 29 श्रम क़ानूनों की जगह जो चार नए श्रम क़ानून (कोड) बनाए हैं, उनके तहत पूँजीपतियों को सुरक्षा प्रबंध लागू करने से और अधिक आज़ादी मिल जाएगी। इन चार श्रम कोडों में मज़दूरों को संगठित होने से रोकना, कारख़ानों में सरकार की कम से कम दख़लअंदाज़ी, पूँजीपति को बिना बताए फ़ैक्टरी में जाँच-पड़ताल करने पर रोक और क़ानूनी कार्रवाई ना करना आदि। नतीजतन पूँजीपतियों को मनमर्जी करने के लिए खुली छूट देकर पूँजीवादी और राजनीतिक पार्टियों का मज़दूर विरोधी चरित्र और अधिक साफ़ हुआ है।

श्रम क़ानूनों, विभिन्न नियमों-शर्तों की धज्जियाँ तो पहले ही बड़े पैमाने पर पूँजीपति उड़ा ही रहे थे, लेकिन सरकार के उपरोक्त मज़दूर-विरोधी और पूँजीपति हितैषी नए क़दमों के कारण मेहनतकश लोगों का जीवन और भी ख़तरे में पड़ गया है। आदमखोर पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजीपति, पुलिस, प्रशासन, सरकारें मिलकर मज़दूरों पर क़हर बरपा करते हैं। एक स्थान पर मज़दूर विरोधी क़ानून बनाए जाते हैं, तो दूसरे उसे लागू करवाते हैं। तीसरी जगह पर क़ानून ना मानने की हालत में मज़दूरों-मेहनतकशों को सबक़ सिखाया जाता है और क़ानून विरोधी कहके जेलों में ठूँसा जाता है। कुल मिलाकर समूची पूँजीवादी व्यवस्था ही मज़दूर-मेहनतकश विरोधी है। मज़दूर वर्ग की संगठित शक्ति ही इन भेड़ियों से अधिकार ले सकती है और कारख़ानों में काम के सुरक्षित हालात बनाने के लिए लड़ सकती है, अपनी जान की रक्षा कर सकती है। लेकिन जब तक मुनाफ़े पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था मौजूद रहेगी, औद्योगिक हादसे होते रहेंगे और मेहनतकश जनता बेवक़्त मौतें मरती रहेगी। मेहनतकश जनता की भलाई पर टिकी समाजवादी व्यवस्था में ही मेहनतकशों को एक अच्छा जीवन मिल सकता है।

आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।

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