तमिलनाडु की स्वायत्तता की मांग रू संघीय ढांचे की परीक्षा

तमिलनाडु की स्वायत्तता की मांग रू संघीय ढांचे की परीक्षा

लोकतन्त्र वर्तमान शासन प्रणाली का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं लोकप्रिय स्वरूप है। इसकी आत्मा संविधान में निहित है। संविधान किसी भी देश की राजनीति का मार्गदर्शक है। राजनीति के उद्देश्यों का साधन राजनीतिक दल हैं। राजनीतिक दल सत्ता लोलुप होते हैं और इसकी प्राप्ति के लिए निरन्तर उपक्रम करते रहते हैं। इसके निमित्त कई बार ये संविधान के परितः जाकर कार्य करते हैं। यह परम्परा भारत जैसे देश में भी याद-कदा देखने को मिलती है। हाल ही में तमिलनाडु में कुछ ऐसा घटित हुआ है जिससे भारतीय राजनीति में भूचाल आ सकता है। तमिलनाडु के मुख्यमन्त्री एम.के. स्टालिन द्वारा 15 अप्रैल को अपने राज्य को स्वायत्तता प्रदान करने के लिए एक समिति का गठन किया गया है। वस्तुतः इस घटना से एक बार पुनः केंद्र और राज्य के मध्य टकराहट की स्थिति उत्पन्न हो गई है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 1 यह कहता है कि ‘भारत राज्यों का संघ (यूनियन) होगा’। अर्थात भारत नश्वर राज्यों का अनश्वर संघ है, जिसमें राज्य तो विभाज्य हो सकते हैं परन्तु संघ का विभाजन नही हो सकता है। अब प्रश्न उठता है कि क्या तमिलनाडु के मुख्यमन्त्री का यह निर्णय संवैधानिक है ? क्या कोई इकाई भारतीय संघ से अलग हो सकती है ? इन प्रश्नों की पड़ताल करना संविधान और राजनीति में रुचि रखने वालों के लिए स्वाभाविक है। इन प्रश्नों का विश्लेषण करने के पूर्व यह जानना जरूरी है कि इस विवाद के पीछे असल वजह क्या है ?

विगत 15 अप्रैल को एम.के. स्टालिन ने विधानसभा में एक तीन सदस्यीय उच्च स्तरीय समिति के गठन की घोषणा की है जो यह बताएगी कि कैसे तमिलनाडु को एक स्वायत्त राज्य बनाया जा सकता है। ऐसा उन्होंने विधानसभा के नियम संख्या 110 के अंतर्गत स्वप्रेरणा से की। इस समिति की अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ करेंगे। इसके अन्य सदस्य सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी के. अशोक वर्धन शेट्टी और राज्य योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष एम. नागनाथन होंगे। इन तीनों का सम्बन्ध स्टालिन के राजनीतिक दल से है। यह समिति एक वर्ष में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी और उसके बाद इस पर कोई निर्णय लिया जाएगा। तमिलनाडु में अगले वर्ष चुनाव है और ऐसा प्रतीत होता है कि यह निर्णय पूरी तरह से राजनीति से प्रेरित है। बहरहाल इस समिति का उद्देश्य संविधान, कानूनों और नीतियों में निहित केंद्र-राज्य संबंधों के प्रावधानों की समीक्षा करना, राज्यों की स्वायत्तता को बढ़ावा देना तथा राज्य सूची से समवर्ती सूची में डाले गए विषयों को पुनः राज्यों को सौंपने हेतु सुझाव देना है। समिति उन प्रशासनिक चुनौतियों पर भी विचार करेगी, जिनका सामना राज्य सरकारें कर रही हैं। इसका अर्थ यह है कि स्टालिन केवल तमिलनाडु तक स्वयं को सीमित नही कर रहे हैं बल्कि वे तमिलनाडु को अन्य राज्यों के मॉडल के रूप में पेश करने की जुगत में हैं। स्टालिन ने अपने पक्ष में कई तरह के तर्क प्रस्तुत किए मसलन वित्तीय स्वायत्तता, राज्यों के अधिकारों में अनवरत कटौती, परिसीमन, त्रिभाषा और शिक्षा नीति इत्यादि।

हाल ही में ए.आई.डी.एम.के. और भा.ज.पा. के मध्य गठजोड़ (एन.डी.ए ) होने के बाद तमिलनाडु में राजनीति गरम हो गई है। डी.एम.के. का उत्तर भारत से सदैव से छत्तीस का आकड़ा रहा है। अब भा.ज.पा. वहाँ मुख्य विपक्ष के तौर पर है तो तमिलनाडु सरकार को भा.ज.पा. का प्रतिकार करने का स्वर्णिम अवसर मिल गया है। भाषा इसमें बड़ा मुद्दा है। वहाँ की जनता को यह कहकर आसानी से गुमराह किया जा सकता है कि भा.ज.पा. जबरन हम पर हिन्दी थोप रही है, जब अंग्रेज इसे लागू नही कर सके तो ये कैसे करेंगें। वस्तुतः 2024 के चुनाव के लोकसभा चुनाव में भा.ज.पा. का मतदान प्रतिशत तमिलनाडु बढा है जो लगभग 18 प्रतिशत हो गया है। स्टालिन को हो सकता है कि यह डर सता रहा हो कि अगले चुनाव में एन.डी.ए कहीं उनसे सत्ता न छीन ले। कदाचित यही कारण है कि वे तमिल जनता की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए प्रयासरत हैं। इसी वजह से डी.एम.के. प्रमुख कभी हिन्दी को लेकर तो कभी भारतीय मुद्रा के चिह्न को लेकर केंद्र सरकार के विरुद्ध मोर्चा खोले हुए हैं। परिसीमन को लेकर भी डी.एम.के.मुखर है। नई लोकसभा के उद्घाटन के बाद से ही अनवरत यह मुद्दा उठता रहा है कि नए परिसीमन के बाद दक्षिण की सीटें कम ना हो जाएं क्योंकि परिसीमन का आधार आबादी है और 1971 के बाद दक्षिण ने तो अपनी जनसंख्या को जहां नियंत्रित रखा है वहीं उत्तर भारत की जनसंख्या में इजाफा हुआ है। इस नजरिए से दक्षिण की तुलना में उत्तर को अधिक सीटें मिलेगी। हालांकि इस मुद्दे पर केंद्र सरकार ने अपनी सफाई दी है कि फिलहाल परिसीमन कराने का कोई इरादा नही है। भले ही केंद्र ने स्पष्टीकरण दिया हों लेकिन डी.एम.के. द्वारा उठाए जा रहे इस मुद्दे में दम है।

स्टालिन ने वित्तीय आधार पर भी केंद्र का प्रतिकार किया है। उन्होंने कहा कि जीएसटी लागू होने के बाद तमिलनाडु को राजस्व में भारी नुकसान हुआ है। उसे उसके योगदान के बदले केवल 29 पैसे प्रति रुपये मिलते हैं, जो अन्यायपूर्ण है जबकि भारत में तमिलनाडु सकल घरेलू उत्पाद में दूसरे स्थान का राज्य है । उन्होंने डॉ. अंबेडकर का हवाला देते हुए केंद्र और राज्य के बीच समन्वयपूर्ण कार्य की आवश्यकता पर बल दिया। स्टालिन ने मेडिकल प्रवेश हेतु एनईईटी परीक्षा को राज्य की शिक्षा नीति के विरुद्ध बताया है। उनकी यह धारणा है कि यह परीक्षा ग्रामीण तथा आर्थिक रूप से कमजोर छात्रों के हितों के विरुद्ध है और कोचिंग संस्थानों को बढ़ावा देती है। अतः तमिलनाडु के छात्रों को मेडिकल में प्रवेश उनके ही राज्य में 12 वीं के अंक के आधार पर मिले। वे अब यह भी लड़ाई लड़ रहे हैं कि शिक्षा को पुनः राज्य सूची का विषय बना दिया जाए। ऐसा प्रतीत होता है कि स्टालिन केंद्र से अन्तिम लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हैं और सौभाग्य से यह अवसर उन्हे विगत 8 अप्रैल को सर्वाेच्च न्यायालय द्वारा तमिलनाडु के राज्यपाल के विरुद्ध दिए गए फैसले से मिल गया है। हो सकता है इससे स्टालिन का मनोबल बढ़ा हो और कदाचित इसी कारण उन्होंने इस विशेष कमेटी का गठन किया है।

इस प्रकार उक्त टकराव के पीछे तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने जो भी तर्क दिए हैं उनमें से अधिकांश तर्क राजनीति से प्रेरित प्रतीत होते हैं। परिसीमन और राज्यपाल के द्वारा अनुच्छेद 200 के दुरुपयोग को छोड़ दिया जाय तो उनके किसी भी तर्क में दम नही दिखता है। जहां तक राज्यपाल का प्रश्न है तो यह एक ऐसा संवैधानिक पद है जिसको लेकर 1950 के दशक के आखिरी वर्षों से लेकर अब तक केंद्र और राज्य के बीच विवाद बना हुआ है। अब इस मूल विषय पर आते हैं कि क्या स्टालिन तमिलनाडु को भारतीय संघ से अगल कर पाएंगे, जवाब है नही क्योंकि केंद्र के पास रक्षा, संचार और विदेशी संबंध का असीमित अधिकार है और इसके होते हुए तमिलनाडु कुछ नही कर सकता। भविष्य में इस प्रकार की स्थिति ना बने इस हेतु सर्वाेच्च न्यायालय को तत्काल न्यायिक -सक्रियता का परिचय देना चाहिए। साथ ही भारत में सहकारी संघवाद की स्थति को मजबूत किए जाने की आवश्यकता है। इस हेतु केंद्र सरकार को अपने द्वारा नियुक्त राज्यपालों को राज्यों से टकराव से बचने की सलाह देनी चाहिए। वस्तुतः अगर प्रत्येक दल अपने व्यक्तिगत हित को त्याग कर आगे बढ़े तो निःसंदेह लोकतंत्र मजबूत होगा और सहकारी सघवाद को मजबूती मिलेगी। केंद्र के साथ ही राज्यों को मजबूती मिलेगी और आपसी सहयोग बढ़ेगा।

लेखक श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय में सहायक आचार्य है। आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।

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