गौतम चौधरी
विगत दिनों सीरम सीरम इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया के सीईओ अदार पूनावाला के हवाले से एक खबर आई थी कि यूरोप और अमेरिका ने महत्वपूर्ण कच्चे माल के निर्यात पर रोक लगा दी है। इसी कारण से कोरोना वैक्सीन के निर्माण में व्यवधान पैदा हुआ है। बाद में इस खबर की पुष्टि हुई। खबर सही थी। सचमुच अमेरिकी प्रशासन ने कोरोना टीके में उपयोग होने वाले कच्चे माल को भारत को देने से यह कहते हुए मना कर दिया कि पहले उसके लिए अमेरिकी नागरिक हैं, इसके बाद वह दुनिया के देशों को कच्चे माल का निर्यात करेगा। इसके लिए भारत को बड़ा कूटनीतिक अभियान चलाना पड़ा और तब जाकर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने हस्तक्षेप किया। बाद में खबर आयी कि अमेरिका भारत को कच्चा माल देने के लिए मान गया है।
अमेरिका लाख कहे कि उसने अपने नागरिकों की सुरक्षित को ध्यान में रखते हुए भारत को कच्चा माल देने से मना किया, यह विश्वास के लायक नहीं है। यह अमेरिकी की सोची-समझी चाल थी। अमेरिका यह किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं कर सकता कि उसके सामने दुनिया को कोई दूसरा देश कुटिक मामले में आगे निकल जाए। अभी हाल ही में एक खबर छपी, कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन दुनिया के जरूरतमंद देशों के बीच 8 करोड़ खुराक कोरोना टीके का वितरण करेंगे। यदि अमेरिकी नागरिकों के लिए सचमुच टीके कम पड़ रहे होते तो भला अमेरिका 8 करोड़ टीके का वितरण मुफ्त में क्यों करता? इसलिए अमेरिका के इस तर्क में कोई दम नहीं था कि कोरोना टीके के कच्चे माल के निर्यात से उसके नागरिकों को परेशानी का सामना करना पड़ेगा।
इस मामले में बात कुछ और थी। एक तो अमेरिकी कंपनी फाइजर ने भी भारत में कोरोना टीके के व्यापार में अभिरुचि ली थी। फाइजर ने भारत सरकार से आग्रह किया था कि उसके टीके का ट्रायल भी यहां करने दिया जाए लेकिन दिसंबर में ही भारत सरकार ने उसे मना कर दिया। इस मामले में भारत सरकार का तर्क था कि चूकि समान गुणवत्ता वाला टीका, उसे बेहद सस्ता, खुद अपने देश में प्राप्त हो रहा है तो फिर वह दूसरे देश से टीका क्यों आयात करे? दूसरी बात यह है कि भारत की दो कंपनियां बड़े पैमाने पर टीके का निर्माण कर रही थी और भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सस्ते टीके दुनिया को उपलब्ध करा रहे थे। यही नहीं भारत पड़ोसी देशों को वैक्सीन उपलब्ध कराने के बाद उन कैरेबियाई देशों को भी टीके उपलब्ध कराने की तैयारी में था, जो कोरोना की जंग में पीछे छूट रहे थे।
विदेश मंत्रालय के मुताबिक, लैटिन अमेरिका, कैरेबियाई देशों और अफ्रीका महाद्वीप के कुल 49 देशों में वैक्सीन की सप्लाई की योजना भारत ने बनाई थी। बताया गया कि ये वैक्सीन गरीब देशों को मुफ्त में उपलब्ध कराई जाएगी। वैक्सीन फ्रेंडशिप के तहत भारत ने दुनिया में 22.9 मिलियन टीके बांटे, जिसमें 64 लाख से ज्यादा वैक्सीन गरीब देशों को अनुदान के रूप में दिया गया। डोमिनिकन रिपब्लिक को कोरोना के 30 हजार टीके गिफ्ट के तौर पर दिए गए। इसके अलावा डोमिनिका को भी 70 हजार वैक्सीन दी गई। फरवरी की शुरुआत में भारत ने बारबाडोस को 10 हजार टीके उपलब्ध कराए। इन सबके अलावा संयुक्त राष्ट्र शांति मिशन के लिए भी भारत ने दो लाख से ज्यादा टीके सौगात के तौर पर देने का वादा किया था। इस प्रकार की मानवीय कूटनीति आखिर अमेरिका को कैसे हजम हो।
इसलिए साफ तोर पर यह कहा जा सकता है कि अमेरिका ने कच्चे माल की सप्लाई इसलिए रोकी कि इससे भारत की छवि दुनिया के सामने अच्छी हो रही थी। अमेरिका को यह लगा कि अगर गुटनिरपेक्ष आंदोलन के दौर की तरह भारत एक बार फिर से गरीब देशों का नेतृत्व करने लगा तो अमेरिकी साम्राज्यवाद को धक्का लगेगा। फिर अमेरिका का यहां व्यापारिक हित भी आहत हो रहा था। उसकी कंपनी फाइजर को भारत ने ना बोल दिया था।
विगत दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अपने एक बयान में कहा कि वे भारत द्वारा कोरोना वैक्सीन के बौद्धिक संपदा अधिकार को खत्म करने की मांग का समर्थन करेंगे। इसमें भी चतुर अमेरिकियों की अपनी कूटनीतिक चाल है। इसका समर्थन कर वह भारत को अपने खेमे में दिखाने की कोशिश करेगा। साथ ही भारत में अमेरिकी सहसोग से फल-फूल रहे साम्राज्यवादी जाल को कोई नुकसान न पहुंचे, इसकी भी उसे चिंता है। यदि अमेरिका सचमुच भारत का सहायता करना चाहता है तो कोरोना वैक्सीन में उपयोग होने वाले कच्चे माल पर जो बौद्धिक संपदा अधिकार है, उसे खत्म क्यों नहीं कर देता? ऐसा वह कभी नहीं करेगा।
अमेरिका ने सदा भारत के व्यापक कूटनीति और व्यापारिक हितों पर चोट किया है। भारत का वर्तमान नेतृत्व इस बात से सहमत हो या न हो लेकिन अमेरिकी नेतृत्व जिन साम्राज्यवादी सोच का नेतृत्व करता है, वह कभी भारत का पक्षधर नहीं हो सकता। यदि चीनी सीमा विवाद को छोड़ दिया जाए तो चीन कई मामले में भारत का सहयोगी हो सकता है और भारत को इस कूटनीति का लाभ उठाना चाहिए था। शीत युद्ध काल से ही अमेरिका की आंखों में भारत खटक रहा है। गुटनिरपेक्ष आंदोलन के नायक मार्शल टीटो के देश चेकोस्लोवाकिया और नासिर के देश मिस्र को अमेरिकी ने ध्वस्त कर दिया। गुटनिरपेक्ष के तीसरे नायक नेहरू के देश को ध्वस्त करना बाकी है। अमेरिकी मकड़जाल से भारत थोड़ा-बहुत इसलिए बचता रहा है कि इसका पड़ोस में चीन है, जो अमेरिकी साम्राज्यवाद को चुनौती देने लगा है।
अभी-अभी कोरोना बीमारी के इलाज के लिए भारत सरकार ने जिस दवा को मान्यता दी है उस दवा के लिए जब जर्मनी से भारत को प्रोजेक्ट मिला था तो अमेरिका ने भारत के प्रयोगशालाओं पर ही प्रतिबंध लगा दी। यह घटना 1998 की है। इसका खुलासा डीआरडीई के वैज्ञानिक डाॅ. करुणा शंकर पांडे ने की है। उन्होंने दैनिक भास्कर के साथ एक भेट वार्ता में कहा है कि 2 डीजी ऑक्सी डी ग्लूकोज के मॉलिक्यूल पर जर्मनी ने ब्रेन ट्यूमर की दवा बनाने के लिए भारत को प्रोजेक्ट दिया था। 9 जनवरी 1998 को काम प्रारंभ हुआ। तभी अमेरिका ने डीआरडीओ के 23 प्रयोगशालाओं पर प्रतिबंध लगा दिया और इस प्रोजेक्ट पर काम बंद हो गया।
इस तमाम बातों पर ध्यान रखते हुए आसन्न खतरों से यदि लड़ना है तो भारत को अपनी कूटनीति में संशोधन करना होगा। भारत सरकार की विदेश नीति आज अमेरिका की ओर झुका हुआ लगता है। इसमें संतुलन की जरूरत है। इस झुकाव के कारण भारत की दुनिया में छवि खराब हुई है। साथ ही भारत के कई दोस्त अब भारत से कन्नी काटने लगे हैं। पाकिस्तान और चीन की घेरेबंदी के चक्कर में भारतीय कूटनीति फिलहाल अलग-थलग पड़ गया है। जिस अमेरिका को वर्तमान भारतीय नेतृत्व दोस्त समझ रहा, वह कोरोना संकट की घड़ी में भारत का साथ छोड़ दिया। यदि गहराई से समीक्षा की जाए तो इसके कारण भारत को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। वर्तमान नेतृत्व में यदि थोड़-सी भी समझदारी होगी और सचमुच देश की चिंता होगी तो अमेरिकापरस्थ कूटनीति से भारत अपने आप को निकाल लेगा और स्वतंत्र कूटनीति के सहारे दुनिया के मंच पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराएगा।