अनिल धर्मदेश
अभी एक दशक पहले तक सार्वजनिक स्थलों पर सरकार द्वारा नियमित घोषणा करायी जाती थी कि किसी लावारिस बैग या वस्तु को न छुएं, उसमें विस्फोटक हो सकता है। क्या तब देश के हर जिले में रोज ही बम फट रहे थे? देश के अलग-अलग राज्यों में दो-तीन माह के अंतराल पर होने वाली आतंकी घटनाओं के कारण ऐसे संदेशों का नियमित प्रसारण होता था, जिसका उद्देश्य समाज को सतर्क और जागरूक करना था न की लोगों को भयाक्रांत करना। आज देश में रोज कहीं न कहीं धार्मिक पहचान छिपाकर लड़कियों को प्रेमजाल में फांसने और विवाह-भयादोहन की आड़ में उनका धर्म परिवर्तन, उत्पीड़न व हत्या के मामले सामने आ रहे हैं तो इसको लेकर भी व्यापक जनजागरूकता और नियमों में सुधार की आवश्यकता है।
हमारे सामाजिक परिवेश और सरोकारों के कारण ही भारत में विवाह के लिए लड़कियों की आयु सीमा 18 वर्ष रखी गयी है। बेटियों के लिए पिता को यथोचित समय, लड़का और साधन मिल सके, लड़कियों की वैवाहिक आयु योग्यता को लड़कों की अपेक्षा तीन वर्ष रखने का यह एक महत्वपूर्ण कारण है। लड़का और लड़की दोनों ही 18 वर्ष की आयु में वयस्क अवश्य हो जाते हैं परंतु धरातल का सत्य यह है कि आज भी लडकियों को लड़कों की अपेक्षा देश-समाज से साक्षात्कार का अवसर कम ही प्राप्त हो पाता है। स्पष्ट है कि लड़कियां वयस्क होकर भी सामाजिक प्रवंचनाओं और परिस्थितियों से लड़कों की अपेक्षा कम अनुभव रखती हैं। ऐसे में उन्हें दिग्भ्रमित करना आसान है। कट्टरपंथी शक्तियों द्वारा धार्मिक आधार पर किए जाने वाले सुनियोजित षड्यंत्रों को समझ पाना हाल-फिलहाल वयस्क हुई बालिका के लिए अत्यंत कठिन है।
ऐसी स्थिति में बेटी की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए उसके परिवार को कुछ अतिरिक्त शक्तियां प्राप्त होनी ही चाहिए। आज समय की मांग है कि अंतरधार्मिक या अभिभावकों की सहमति के बिना विवाह करने की स्थिति में लड़कियों की आयु सीमा को भी लड़कों की भांति 21 वर्ष ही कर दिया जाना चाहिए। इस तथ्य की अनदेखी नहीं कि जा सकती कि अंतर धार्मिक विवाह में लड़का और लड़की दोनों की जीवन शैली, धार्मिक मान्यताएं और आराध्य अलग-अलग होने से वैचारिक सामंजस्य सहज नहीं होता और विवाहोपरांत द्वंद्व और प्रतिरोध की स्थिति उत्पन्न होती है।
अंतरधार्मिक प्रेम के अनगिनत मामलों में यह पाया गया है कि भावनावेश में आकर लड़कियां लक्षमण-रेखा लांघ जाती हैं, जिसका फायदा उठाकर लड़के अनेक प्रकार से उनका भयादोहन करते हैं। इसी भयादोहन और लोकलाज के कारण कई बार युवती उस लड़के से विवाह करने को विवश होती है, जिसने उसके साथ प्रेम के नाम पर षड्यंत्र किया होता है। स्वयं की भूल को छिपाने के लिए लड़कियां अनेकों बार अपने ही परिवार से विद्रोह कर बैठती हैं। समाज और कानून जिस विद्रोह एक वयस्क लड़की का निर्णय और स्वच्छन्दता समझ रहे होते हैं, भीतरखाने वह भयादोहन और लोकलाज के चक्रव्यूह का विकृत परिणाम होता है। ऐसी परिस्थितियों में जो बलात विवाह होते हैं, उनकी परिणति भी अत्यंत भयानक होती है। लड़कियां इस प्रकार के षड्यंत्रों से अवगत रहें, इसके लिए विवाह के नाम पर होने वाले षड्यंत्र, अंतर धार्मिक विवाह से उत्पन्न होने वाली समस्यायों आदि को यदि उनकी शिक्षा का हिस्सा बनाया जाए तो उन्हें बहकाना कठिन हो जाएगा। लड़कियां अन्धानुगमन के बजाय सूझबूझ से लड़कों की सही और आवश्यक जानकारियां प्राप्त करने के प्रति सजग हो सकेंगी। गुड टच-बैड टच की तर्ज पर इसे भी पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाए जाने से अनेक गंभीर अपराधों पर विराम संभव हो सकेगा।
भारत के आठ राज्यों में लव जिहाद के विरुद्ध कानून हैं परंतु अभी भी इस गंभीर विषय को राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा अधिकृत नहीं किया गया है। केंद्रीय एजेंसियों और महिला आयोग तक के पास लव जिहाद से संबंधित कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। जबकि गैर सरकारी स्रोत बताते हैं कि भारत में 2.21ः महिलाएं अन्य धर्मों में विवाह कर चुकी हैं। इसमें सर्वाधिक संख्या हिन्दू महिलाओं की है, जो बीस लाख से भी अधिक है। कर्नाटक की हिन्दू जनजागृति समिति का दावा है कि वहां विगत वर्षों में अंतर धार्मिक विवाह के माध्यम से 30 हजार हिन्दू लड़कियों का धर्म परिवर्तन कराया गया है। उत्तराखंड जैसे छोटे राज्य में भी धार्मिक पहचान छिपाकर लड़कियों को प्रेमजाल में फांसने के करीब एक दर्जन मामले हर महीने सामने आ रहे हैं।
अवैध धार्मिक रूपांतरण के विरुद्ध राज्यों में जो कानून बने हैं, उन विधेयकों को भी शीर्ष अदालत में चुनौती दी गयी है। ऐसे में सरकार को चाहिए कि वह इस गंभीर विषय को दलगत राजनीति की भेंट न चढ़ने दे और बालिका शिक्षा एवं आयु सीमा के नियमन के माध्यम से त्वरित सुधार के उपाय लागू किए जाएं परन्तु इसके लिए आवश्यक है कि सबसे पहले अंतर धार्मिक विवाह का घोर समर्थन करने वालों के दबाव को हटाकर लव जिहाद जैसे षड्यंत को व्यवस्था में शब्द दिया जाए अन्यथा इस दिशा में राज्यों के आधे-अधूरे प्रयास मातृशक्ति की सुरक्षा के संकल्प को सिद्ध नहीं होने देंगे। परिणामस्वरूप अंतरधार्मिक प्रेम और विवाह को समाज सदैव ही संदेह और असम्मान की दृष्टि से देखेगा।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)