अमेरिकी साम्राज्यवाद काग़ज़ी बाघ है

अमेरिकी साम्राज्यवाद काग़ज़ी बाघ है

चीनी क्रान्ति के नेता माओ त्से-तुङ की इस बात को लगभग सत्तर वर्ष हो चुके हैं और इस बीच दुनिया की परिस्थितियों में बहुत-से बदलाव आये हैं, लेकिन माओ की बात अपने सार रूप में आज भी उतनी ही सही है। अमेरिका अपनी सैन्य शक्ति के बल पर अनेक देशों पर हमले करता रहा है, दुनियाभर में उसके दर्जनों सैन्य अड्डे हैं और नये से नये घातक हथियार उसके पास हैं। लेकिन इन सबके बावजूद वह अन्दर से खोखला हो चुका है।

जिस समय माओ ने यह बात कही थी, उस समय अमेरिका और भी शक्तिशाली दिखता था लेकिन उसके एक साल के भीतर ही उसे कोरिया में मुँहकी खानी पड़ी। फिर कुछ सालों के बाद एक और छोटे-से देश वियतनाम की ग़रीब जनता ने अमेरिकी सेना को अपने देश से बुरी तरह खदेड़कर भगाया। अफ़ग़ानिस्तान में वर्षों तक भयानक तबाही मचाने के बाद भी अमेरिका को कुछ हासिल नहीं हुआ और उसे हारकर उन्हीं तालिबान को सत्ता सौंपकर भागना पड़ा जिन्हें ख़त्म करने के नाम पर वह वहाँ गया था। इराक़ में लाखों लोगों को मौत के घाट उतारने के बाद भी अमेरिका आख़िरकार लुटपिटकर वापस गया। अमेरिका की पूरी सैन्य मदद के बावजूद इज़रायल ग़ज़ा की छोटी-सी आबादी को भी हरा नहीं पाया है और बौखलाहट में बर्बरतम जनसंहार करने के बावजूद वहाँ अपना एक भी मकसद पूरा करने में नाकाम रहा है। अभी ईरान ने अमेरिका की तमाम घुड़कियों के बावजूद इज़रायल के छक्के छुड़ा दिये और उसके सरपरस्त अमेरिका के भी दाँत खट्टे कर डाले।

माओ ने जिन साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्षों की चर्चा की है वे सभी राष्ट्रीय मुक्ति-संघर्ष थे। ज़ाहिर है कि आज राष्ट्रीय मुक्ति युद्धों का दौर बीत चुका है और पूँजीवाद-साम्राज्यवाद विरोधी नयी समाजवादी क्रान्तियों का दौर अभी शुरू नहीं हुआ है। लेकिन माओ की यह बात आज भी बिल्कुल सही है कि आज जो छोटा है, कल वह बड़ा हो जायेगा।

इतने साल बीतने के बाद भी अगर अमेरिका आज दुनिया का चौधरी बनने की हनक दिखा रहा है तो इसके लिए बहुत हद तक वे संशोधनवादी ज़िम्मेदार हैं जिन्होंने दुनिया में क्रान्तियों की आगे बढ़ती धारा को शान्तिवाद के गड्ढे में गिरा दिया और बढ़ते समाजवादी शिविर को छिन्न-भिन्न करके पूँजीवाद और साम्राज्यवाद को कुछ समय के लिए फिर संजीवनी दे दी। लेकिन पूँजीवाद की लाइलाज बीमारियाँ उसे निरन्तर कमज़ोर करती जा रही हैं। बुढ़ाते शरीर की कमज़ोरी को छिपाने के लिए साम्राज्यवादी और भी ज़ोर से अपने हथियार खड़खड़ा रहे हैं। लेकिन उनकी हक़ीक़त अब पहले से ज़्यादा लोगों के सामने उजागर होती जा रही है। इस नज़रिये से माओ का यह लेख आज फिर से पढ़ा जाना चाहिए।

अमेरिका दूसरे देशों के ख़िलाफ़ आक्रमणकारी कार्रवाइयाँ करने के उद्देश्य से हर जगह कम्युनिस्ट-विरोधी पताका घुमा रहा है। अमेरिका को हर जगह क़र्ज़ा चुकाना है। उसे न केवल लातिन अमेरिका, एशिया और अफ़्रीका के देशों का क़र्ज़ा चुकाना है, बल्कि यूरोप और ओशेनिया के देशों का क़र्ज़ा भी चुकाना है। समूची दुनिया, जिसमें ब्रिटेन भी शामिल है, अमेरिका को नापसन्द करती है। व्यापक जन-समुदाय उसे नापसन्द करता है। जापान अमेरिका को इसलिए नापसन्द करता है क्योंकि वह उसका उत्पीड़न करता है। पूर्व का कोई भी देश अमेरिकी आक्रमण से मुक्त नहीं है। अमेरिका ने हमारे ताइवान प्रान्त पर आक्रमण किया है। जापान, कोरिया, फ़िलिपीन, वियतनाम और पाकिस्तान ये सभी देश अमेरिकी आक्रमण से पीड़ित हैं, हालाँकि इनमें से कुछ देश अमेरिका के संश्रयकारी भी हैं। जनता असन्तुष्ट है और कुछ देशों में शासक भी असन्तुष्ट हैं।

सभी उत्पीड़ित राष्ट्र स्वाधीनता प्राप्त करना चाहते हैं। हर चीज़ परिवर्तनशील है। बड़ी ह्रासोन्मुख शक्तियों का स्थान छोटी नवोदित शक्तियाँ ले लेंगी। छोटी शक्तियाँ बड़ी शक्तियों में बदल जायेंगी, क्योंकि बहुसंख्य जनता इस परिवर्तन की माँग करती है। अमेरिकी साम्राज्यवादी शक्तियाँ बड़ी से छोटी होती जायेंगी, क्योंकि अमेरिकी जनता भी अपनी सरकार से असन्तुष्ट है।

मैं अपने जीवन काल में ऐसे परिवर्तन स्वयं देख चुका हूँ। यहाँ मौजूद हममें से कुछ लोग छिङ राजवंश के काल में पैदा हुए हैं तथा कुछ अन्य लोग 1911 को क्रान्ति के बाद पैदा हुए हैं। छिङ राजवंश का तख़्ता बहुत पहले ही पलटा जा चुका है। उसे किसने पलटा, उसे सुन यात-सेन के नेतृत्व में काम करने वाली पार्टी ने जनता के साथ मिलकर पलटा सुन यात-सेन की शक्तियाँ इतनी छोटी थीं कि छिङ अफसर उन्हें नाचीज़ समझते रहे। उन्होंने बहुत से विद्रोहों का नेतृत्व किया, जो हर बार असफल रहे। लेकिन अन्त में सुन यात-सेन ने ही छिङ राजवंश का तख़्ता पलट दिया। बड़ी शक्ति कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिससे डरा जाये। बड़ी शक्तियों का तख़्ता छोटी शक्तियों द्वारा पलट दिया जायेगा। छोटी शक्तियाँ बड़ी शक्तियाँ बन जायेंगी। छिङ राजवंश का तख़्ता पलट देने के बाद, सुन यात-सेन को पराजय का सामना करना पड़ा। कारण, वे जनता की माँगों को पूरा करने में असफल रहे, जैसे उसकी जमीन की माँग और साम्राज्यवाद का विरोध करने की माँग। न ही उन्होंने प्रतिक्रान्तिकारियों के दमन की आवश्यकता को समझा, जो उन दिनों आज़ादी से इधर-उधर घूम रहे थे। बाद में उन्हें उत्तरी युद्ध-सरदारों के सरगना यूवान शिह-काई के हाथों हार खानी पड़ी। युवान शिह-काई की शक्तियाँ सुन यात-सेन की शक्तियों से बड़ी थीं। यहाँ फिर वही नियम लागू होता है दृ जनता के साथ नाता जोड़ने वाली छोटी शक्तियाँ मज़बूत बन जाती हैं, जबकि जनता का विरोध करने वाली बड़ी शक्तियाँ कमज़ोर पड़ जाती हैं। आगे चलकर सुन यात-सेन के बुर्जुआ-जनवादी क्रान्तिकारियों ने हम कम्युनिस्टों के साथ सहयोग किया तथा हम दोनों ने साथ मिलकर युवान शिह-काई द्वारा छोड़ी गयी युद्ध-सरदारों की व्यवस्था को तहस-नहस कर दिया।

चीन में च्याङ काई-शेक के शासन को सभी देशों की सरकारों से मान्यता प्राप्त हुई और वह बाईस वर्ष तक जारी रहा तथा उसकी शक्ति सबसे बड़ी थी। हमारी शक्ति बहुत छोटी थी, पहले हमारे पास पचास हज़ार पार्टी सदस्य थे, लेकिन प्रतिक्रान्तिकारी दमनचक्र के बाद कुछ ही हज़ार बाकी रह गये। दुश्मन ने हर जगह गड़बड़ी पैदा की। यहाँ फिर वही नियम लागू हुआ दृ बड़ी और मज़बूत शक्तियाँ अन्त में इसलिए पराजित हो गयीं क्योंकि वे जनता से अलग-थलग रहीं, जबकि छोटी व कमज़ोर शक्तियाँ इसलिए विजयी हुईं, क्योंकि उन्होंने जनता के साथ नाता जोड़ लिया और उसके हित में काम किया। अन्त में ठीक यही परिणाम हुआ।

जापानी आक्रमण विरोधी युद्ध के दौरान जापान बहुत शक्तिशाली था, क्वोमिन्ताङ सेनाओं को दूरवर्ती प्रदेशों में खदेड़ दिया गया था, और कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में काम करने वाली सशस्त्र सैन्य शक्तियाँ भी केवल दुश्मन के पृष्ठभाग में स्थित ग्रामीण क्षेत्रों में ही छापामार युद्ध चला सकती थीं। जापान ने पेकिङ, त्येन्तसिन, शांघाई, नानकिङ, वुहान और क्वाङचओ जैसे बड़े-बड़े चीनों शहरों पर क़ब्ज़ा कर लिया था। लेकिन जर्मनी के हिटलर की तरह जापानी सैन्यवादियों को भी इसी नियम के अनुसार कुछ ही वर्षों में धराशायी होना पड़ा।

हमें अनगिनत कठिनाइयों से गुज़रना पड़ा और हमें दक्षिण से उत्तर की तरफ़ खदेड़ दिया गया, जबकि हमारी सैन्य शक्ति कई लाख से घटकर दसियों हज़ार तक रह गयी। 25,000 ली (लगभग 12,500 किमी) के लम्बे अभियान के अन्त में हमारे पास केवल 25,000 आदमी बचे रह गये। हमारी पार्टी के इतिहास में अनेक ग़लत “वामपंथी” और दक्षिणपंथी लाइनें सामने आयी हैं। इनमें सबसे ज़्यादा गम्भीर थीं छन तू-श्यू की दक्षिणपंथी भटकाव की लाइन और वाङ मिङ की “वामपंथी” भटकाव की लाइन। इनके अलावा चाङ क्वो-ताओ, काओ काङ और अन्य लोगों ने भी दक्षिणपंथी भटकाव की ग़लतियाँ कीं।

ग़लतियों का एक अच्छा पहलू भी होता है, क्योंकि वे जनता और पार्टी को शिक्षित कर सकती हैं। हमारे पास नकारात्मक उदाहरण से शिक्षा देने वाले बहुत से शिक्षक हैं, जैसे जापान, अमेरिका, च्याङ काई-शेक, छन तू-श्यू. ली ली-सान, वाङ मिङ, चाङ क्वो-ताओ और काओ काङ। नकारात्मक उदाहरण से शिक्षा देने वाले इन शिक्षकों से सीखने के लिए हमने बहुत बड़ी कीमत चुकायी है। अतीत में, ब्रिटेन ने हमारे ख़िलाफ़ कई बार युद्ध किया। ब्रिटेन, अमेरिका, जापान, फ़्रांस, जर्मनी, इटली, ज़ारशाही रूस और हॉलैण्ड, ये सभी हमारी भूमि पर नज़र गड़ाये हुए थे। ये सभी नकारात्मक उदाहरण से शिक्षा देने वाले हमारे शिक्षक थे और हम उनके शिष्य थे।

प्रतिरोध युद्ध के दौरान जापान के ख़िलाफ़ लड़ते-लड़ते हमारे सैनिकों की संख्या बढ़ती गयी और 9,00,000 तक पहुँच गयी। उसके बाद मुक्ति युद्ध शुरू हुआ। हमारे हथियार क्वोमिन्ताङ के हथियारों के मुकाबले घटिया क़िस्म के थे। उस समय क्वोमिन्ताङ की सैन्य शक्ति चालीस लाख थी, लेकिन तीन साल की लड़ाई के दौरान हमने कुल मिलाकर उसके अस्सी लाख सैनिकों का सफ़ाया कर दिया। अमेरिकी साम्राज्यवाद की सहायता के बावजूद क्वोमिन्ताङ हमें नहीं हरा सकी। बड़ी और मज़बूत शक्तियाँ विजयी नहीं हो सकतीं, हमेशा छोटी और कमज़ोर शक्तियाँ ही विजयी होती हैं।

इस समय अमेरिकी साम्राज्यवाद काफी शक्तिशाली है, लेकिन वास्तव में वह ऐसा नहीं है। वह राजनीतिक रूप से बहुत कमज़ोर है, क्योंकि वह व्यापक जन समुदाय से अलग-थलग है तथा उसे हर कोई नापसन्द करता है और अमेरिकी जनता भी नापसन्द करती है। देखने में तो वह बहुत शक्तिशाली मालूम होता है, लेकिन वास्तव में वह कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिससे डरा जाये। वह एक काग़ज़ी बाघ है। बाहर से देखने पर तो यह एक बाघ मालूम होता है, लेकिन वास्तव में यह काग़ज़ से बना हुआ है तथा आँधी-वर्षा का सामना करने में असमर्थ है। मैं समझता हूँ कि अमेरिका महज़ एक काग़ज़ी बाघ है।

समूचा इतिहास, वर्ग-समाज का हज़ारों वर्षों का इतिहास इस बात को साबित कर चुका हैरू मज़बूत शक्तियों का स्थान अनिवार्य रूप से कमज़ोर शक्तियाँ ले लेती हैं। यह बात दोनों अमेरिका महाद्वीपों के बारे में भी सच है। जब साम्राज्यवाद को नेस्तनाबूद कर दिया जायेगा, केवल तभी शान्ति क़ायम हो सकती है। वह दिन ज़रूर आयेगा जब काग़ज़ी बाघों का सफ़ाया कर दिया जायेगा। लेकिन वे अपने आप ख़त्म नहीं हो जायेंगे, उन पर आँधी-वर्षा के थपेड़े पड़ना ज़रूरी है।

जब हम यह कहते हैं कि अमेरिकी साम्राज्यवाद एक काग़ज़ी बाघ है तो हम यह बात रणनीति की दृष्टि से कहते हैं। सम्पूर्ण रूप से हमें उसे नाचीज़ समझना चाहिए। लेकिन अलग-अलग अंशों की दृष्टि से हमें उसे गम्भीरता से लेना चाहिए। उसके पंजे और दाँत हैं। हमें उसे अंश-अंश करके नष्ट करना है। उदाहरण के लिए, अगर उसके दस दाँत हों, तो पहली बार एक दाँत तोड़ दो, बाकी नौ रह जायेंगे, दूसरी बार एक दाँत और तोड़ दो, तब बाक़ी आठ रह जायेंगे। जब सब दाँत तोड़ दिये जायेंगे, फिर भी पंजे बाकी रह जायेंगे। अगर हम उससे क़दम-ब-क़दम और संजीदगी के साथ निपटेंगे तो अन्त में निश्चित रूप से सफल हो जायेंगे।

रणनीति की दृष्टि से हमें अमेरिकी साम्राज्यवाद को बिलकुल नाचीज़ समझना चाहिए। रणकौशल की दृष्टि से हमें उसे गम्भीरता से लेना चाहिए। उसके ख़िलाफ़ संघर्ष करते समय हमें हर लड़ाई को, हर मुठभेड़ को गम्भीरता से लेना चाहिए। इस समय अमेरिका शक्तिशाली है, लेकिन यदि व्यापक नज़रिए से, सम्पूर्ण रूप से और दीर्घकालिक दृष्टि से देखा जाये तो उसे जनता का समर्थन प्राप्त नहीं है, जनता उसकी नीतियों को नापसन्द करती है, क्योंकि वह जनता का उत्पीड़न और शोषण करता है। यही कारण है कि इस बाघ का सर्वनाश होना निश्चित है। अतएव वह कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिससे डरा जाये, और उसे नाचीज़ समझा जा सकता है। लेकिन अमेरिका के पास आज भी ताक़त है, वह प्रतिवर्ष 10 करोड़ टन से ज़्यादा इस्पात पैदा करता है और हर जगह प्रहार करता है। यही कारण है कि हमें उसके ख़िलाफ़ अपना संघर्ष जारी रखना होगा, अपनी पूरी शक्ति से लड़ना होगा और एक के बाद एक मोर्चा फ़तह करते जाना होगा। और इसमें समय लगेगा।

ऐसा लगता है कि अमेरिका महाद्वीपों तथा एशिया और अफ़्रीका के देशों को अन्त तक, जब तक काग़ज़ी बाघ आँधी-वर्षा से नष्ट नहीं हो जाता, संयुक्त राज्य अमेरिका के ख़िलाफ़ लड़ते रहना होगा। अमेरिकी साम्राज्यवाद का विरोध करने के लिए, लातिन अमेरिकी देशों में यूरोपीय मूल के लोगों को उन देशों के मूल निवासियों के साथ एकता क़ायम करनी चाहिए। शायद यूरोप से वहाँ आकर बसने वाले गोरे लोगों को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है, पहली श्रेणी में शासक हैं और दूसरी श्रेणी में शासित। इससे उत्पीड़ित गोरी जनता के लिए स्थानीय जनता के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करना आसान हो जायेगा, क्योंकि उनकी स्थिति भी स्थानीय जनता जैसी ही है।

लातिन अमेरिका, एशिया और अफ़्रीका के हमारे दोस्त भी हमारी ही जैसी स्थिति में हैं और हमारे ही जैसा काम कर रहे हैं, साम्राज्यवाद के उत्पीड़न को कम करने के उद्देश्य से जनता के लिए काम कर रहे हैं। अगर हम अच्छी तरह काम करेंगे तो साम्राज्यवादी उत्पीड़न को जड़मूल से समाप्त कर सकेंगे। इस मसले पर हम सब एक दूसरे के साथी हैं। साम्राज्यवादी उत्पीड़न के विरोध की हमारी प्रकृति भी आपके ही समान है, केवल भौगोलिक स्थिति, राष्ट्रीयता और भाषा में भिन्नता है। लेकिन साम्राज्यवाद से हमारी प्रकृति बिलकुल भिन्न है, और उसे देखते ही हमें उबकाई आती है।

साम्राज्यवाद की आख़िर क्या उपयोगिता है? चीनी जनता को उसकी ज़रूरत नहीं और न ही दुनिया के दूसरे देशों की जनता को उसकी ज़रूरत है। साम्राज्यवाद का अस्तित्व क़ायम रहने का कोई कारण नहीं है।

(यह लातिन अमेरिका के दो गण्यमान्य व्यक्तियों के साथ माओ की बातचीत का एक अंश है। दरअसल, यह अंश मेरे प्रबंधन ने ‘मजदूर बिगुल’ नामक साम्यवादी मासिक हिन्दी पत्रिका से प्रप्त की है।)

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