नरेन्द्र मोदी व भाजपा को नैतिकता की पाठ पढ़ाने से पहले RSS को अपने गिरेबान में झांकना चाहिए

नरेन्द्र मोदी व भाजपा को नैतिकता की पाठ पढ़ाने से पहले RSS को अपने गिरेबान में झांकना चाहिए

संसदीय आम चुनाव 2024 में भारतीय जनता पार्टी की हार को लेकर हिन्दू राष्ट्र विचार परिवार का प्रतिनिधि संगठन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, बेहद संजीदा दिख रहा है। इसके कई कारण हो सकते हैं। फिलहाल जो बातें समझ में आ रही है वह एकदम सीधा और सरल है। मसलन, संघ और विचार परिवार के संगठन में बड़े पैमाने पर जड़ता आ गयी है। आम जनता, भारतीय जनता पार्टी और संघ को अलग-अलग करके नहीं देखती है। इसलिए भाजपा में जो भी हो रहा है, उसका प्रभाव राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर पड़ना तय है। आम लोग तो यही समझते हैं कि भाजपा जो भी कर रही है उसमें संघ की ही भूमिका है। हालांकि इसमें बहुत हद तक सत्यता भी है। 

भाजपा, जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के यदि इतिहास को देखें तो अतीत में जब कभी भाजपा सत्ता में रही, संघ उनकी कुछ नीतियों को लेकर आलोचना जरूर करता रहा, लेकिन विगत एक दशक से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा देश की सत्ता में है, संघ के किसी अधिकारी ने भाजपा की किसी नीति की आलोचना नहीं की, जबकि भाजपा की सरकार ने कई ऐसे निर्णय लिए जो संघ की नीतियों के खिलाफ जाता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहनराव भागवत नागपुर के एक कार्यक्रम में मोटे तौर पर चार ऐसी बातें कही, जो विगत कई दिनों से सुर्खियां बटोर रही है। उनकी पहली बात यह है कि विगत लगभग एक वर्ष से मणिपुर जल रहा है लेकिन वहां शांति के उपाय नहीं हो पा रहे हैं। मोहनराव जी ने बेहद गंभीर सवाल उठाए हैं। यह राष्ट्रीय मुद्दा बनना चाहिए लेकिन इस मामले पर संघ ने क्या किया? विगत एक वर्ष में संघ के दो अखिल भारतीय कार्यक्रम हुए और दोनों में प्रस्ताव भी पारित हुए लेकिन कहीं मणिपुर की अशांति का जिक्र नहीं आया, जबकि संघ ऐसे राष्ट्रीय समस्याओं पर पहले अपने विभिन्न कार्यक्रमों में प्रस्ताव पारित करता रहा है। दरअसल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में विगत लंबे समय से यह परंपरा चली आ रही है कि वर्ष में देश व विदेश के सभी महत्वपूर्ण पदाधिकारी दो वार एक स्थान पर मिलते हैं। एक प्रतिनिधि सभा के मौके पर और दूसरा अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की बैठक को लेकर। इन दोनों मौकों पर संघ अपनी रणनीति तय करता है। इन दोनों मौकों पर संघ समसामयिक मुद्दों पर प्रस्ताव भी पारित करता रहा है लेकिन मणिपुर जैसे राष्ट्रीय मुद्दे संघ की न तो प्रतिनिधि सभा का मुद्दा बना और न ही कार्यकारी मंडल में इसे उठाया गया। यदि संघ इस मामले को लेकर इतना ही गंभीर है तो पहले अपने बीच इस विषय पर चर्चा क्यों नहीं किया? 

दूसरी बात यह है कि संघ विचार परिवार में 50 से अधिक संगठन काम करते हैं। पूर्वोत्तर को लेकर संघ पहले से गंभीर रहा है लेकिन पता नहीं क्यों संघ मणिपुर के मामले में चूक गया। संघ गंभीर होता तो वहां के लिए अपने स्तर पर एक समिति बनाने और अपने स्तर पर वहां की समस्या के समाधान के लिए सरकार पर दबाव बनाता लेकिन यहां भी संघ नेतृत्व कुछ करने में असफल रहा। 

मोहनराव जी ने नेतृत्व में अहंकार और अहम बढ़ने की बात कही। इस मामले पर तो संघ को सबसे पहले अपने गिरेवान में झांकना चाहिए। केएस सुदर्शन के कार्यकाल तक आम स्वयंसेवकों की पहुंच सरसंघचालक तक हो जाया करती थी। सरकार्यवाह भैयाजी जोशी के कार्यकाल तक आम स्वयंवेक अपनी बात शीर्ष नेतृत्व को पहुंचाने में कामयाब हो जाते थे लेकिन आज आम स्वयंसेक को विभाग प्रचारक तक पहुंचने में कठिनाइयों का सामना करना होता है। प्रचारकों का शाखा से नाता टूटता जा रहा है। संघ की शाखा जो संगठन की पहचान थी वह एक औपचारिकता मात्र बन कर रह गयी है। संघ के छोटे से लेकर बड़े अधिकारी तक अहम के मद में चूर दिखते हैं। मोहनराव जी को अन्य की अपेक्षा अपने संगठन पर ध्यान देने की जरूरत है। 

रही बात लोकतंत्र की मर्यादा का तो जब पूरे देश में मॉब लिंचिंग को लेकर हाय तौबा मचार था उस वक्त संघ के एक बड़े अधिकारी ने बयान जारी किया कि यदि मुसलमान गाय मारते रहेंगे तो मॉब लिंचिंग होता रहेगा। संघ को उसी वक्त इस विषय पर संज्ञान लेना चाहिए था और किसी लोकतांत्रिक देश में इस प्रकार का बयान कितना खतरनाक हो सकता है इसकी कल्पना कर लेनी चाहिए थी। विपक्ष और प्रतिपक्ष पर भी मोहनराव जी ने बातें कही। इसी प्रकार के चुनाव 2019 में भी हुए। मोदी के नेतृत्व में प्रांत से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक चुनाव युद्ध मोड में लड़े गए लेकिन संघ के किसी पदाधिकारी ने इस विषय पर मोदी और भाजपा नेतृत्व को टोकने तक की जहमत नहीं उठायी। 

मोदी के सभी कामों में संघ का मौन समर्थन रहा है। मोदी के किसी निर्णय का संघ ने आज तक विरोध नहीं किया। हालांकि मोदी ने कुछ ऐसे बड़े काम किए जो संघ की नीतियों का आधार है और संघ विचार परिवार के संगठनों ने उस पर आन्दोलन भी चलाए लेकिन नोटबंदी, किसान बिल, मजदूर बिल, विदेशी कंपनियों के लिए दरबाजा खोलना आदि तो संघ की नीतियों के खिलाफ था, बावजूद इसके संघ मौन क्यों रहा? 

संघ के सरसंघचालक मोहनराव जी के बयान, संघ की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। संघ अब कमजोर हो रहे मोदी से पल्ला झारना चाहता है। वैसे भी मोदी कभी संघ की पसंद नहीं रहे। गुजरात के मुख्यमंत्री काल से ही संघ और मोदी में ठनी हुई है। या ऐसा कहें कि मोदी जब संघ के प्रचारक थे तब भी संघ की पसंद नहीं रहे। मोदी अपने नेतृत्व क्षमता और भाग्य से आज देश के प्रधानमंत्री हैं। इसमें संघ की कोई भूमिका नहीं है। मोदी के पूरे प्रधानमंत्री काल में संघ के अधिकारी और संघ समर्थित व्यापारी, ठेकेदार जबरदस्त तरीके से उपकृत हुए हैं। इनकी आर्थिक स्थिति में सकारात्मक बदलाव आया है। मोदी चूकि खुद प्रचारक रहे हैं इसलिए संघ की कमजोरियों को भी जानते हैं। इसलिए संघ को मोदी और मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा पर नैतिक प्रहार से पहले अपने गिरेबान में भी एक बार झांकना चाहिए। 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate »