अमिय भूषण
दशकों पहले सेनारी रक्त रंजित होना एक बड़ा फ़रेब है!इस झूठ को सच साबित होने में दशकों बीत गए!इस बीच मृतकों के परिजन सीने में दर्द लिए दर दर भटकते रहे। आखिरकार न्याय मिल गया! पटना उच्च न्यायालय ने फैसला सुना दिया है।जिन लोगों पर इस जघन्य नरसंहार का आरोप था वो सभी अब बाइज्जत बरी हो चुके हैं। कुल जमा बात इतनी है कि सेनारी में जिनकी हत्या हुई उन्होंने वास्तव में स्वविवेक से जीवनोत्सर्ग किया था। वैसे भी ऐसी सामुदायिक आत्महत्याओ के लिए इन भोले भाले लोगो को हत्यारा मानकर तो सज़ा मुकर्रर की जा सकती नही हैवैसे भी ये कोई कानून या प्रशासन का मुद्दा तो है ही नहीं अपितु आत्महत्या करने वालों के मनोदशा का मसला है। मतलब यह भी हो सकता है कि जिनकी निर्मम हत्या हुई शायद वो लोग कभी पैदा ही नहीं हुए हो।जिन माथों पर आरोप है वह सब के सब निर्दोष है।वही जो मारे गए उनको उनके कर्मों के मुताबिक प्रारब्ध की प्राप्ति हुई है। माध्यम कौन बना ?साधन कहाँ से आये? यह मालूम नही !जिन्होंने खबरे लिखी उनकी खबरों की बुनियाद ही झूठी थी जो कोर्ट की लड़ाई लड़े वह मक्कार लोग थे।जिस कोर्ट ने फैसला सुनाया उसे सच का पता ही नहीं था।सच्चा अन्वेषण तो अब जाकर हुआ है।
निचली अदालत ने जिन साक्ष्यों के आधार पर फैसला सुनाया वह दोषपूर्ण था!जाँच तो वास्तव में ये होनी चाहिए कि क्या वे साक्ष्य झूठे थे या फिर सब गढ़े गए थे। इस फैसले के साथ में यह भी सवाल उठेगा कि निचली अदालत का जो फैसला था वह गलत था यह तो उच्च न्यायालय के फैसले से सिद्ध होता है। अगर वह फैसला ही गलत था तो क्या वह फैसला गलत तरीके से लिया गया था।क्या वो वास्तव में झूठ की बुनियाद पर खड़ा था?निचली अदालत के सामने जो साक्ष्य रखे गए घटना का विवरण प्रस्तुत किया गया था जो दलीलें रखी गई थी क्या उससे उलट साक्ष्य यहाँ उच्च न्यायालय में पेश किया गया है?वैसे बात अगर न्यायालय के हवाले से करे तो कोर्ट की अपनी एक सीमा है।
वैसे भी हमारे न्यायिक प्रणाली पर हुकूमते ब्रितानिया का अब तलक प्रभाव है।अगर बात विधिवेत्ताओ के हवाले से करे तो आजादी के इतने वर्षों के बाद भी हम कोर्ट ऑफ लॉ से कोर्ट ऑफ जस्टिस की ओर नही बढ़ पाये है।जहाँ आम लोग ये समझते हैं कि हमारी न्यायपद्धति हमे न्याय दिलाने के लिए ही बनी है।वही हमारे कानूनविदों के नजरिये से समझे तो न्यायालय का काम विधिसम्मत बातों को लागू कराये जाने तक ही सीमित है।इसलिए हम अक़्सर देखते है कि जन अधिकार और जनसरोकार के कई सारे मुद्दों पर हमारे न्यायाधीश स्वत संज्ञान लेते हुए जनहित में सुनवाई और फैसला भी करते है।जहाँ तक सवाल न्याय का है तो इस व्यवस्था में न्यापालिका केवल और केवल साक्ष्य देखती है।
सेनारी या इन जैसे मामलों में देखे तो इन सभी मामलों में न्यायालय ने कानून के दायरे में ही फैसला सुनाया है।इस पर बिहार के जाने माने विधिवेत्ता वाईवी गिरी कहते है कि कोर्ट ने सबूतों के आधार पर ही फैसला दिया है।श्री गिरी के अनुसार इस मामले में अदालत ने घटना को तो सही माना पर आरोपियों की पहचान को सही नहीं माना है।दरसल हमारे यहाँ न्यायालय सबूत जिरह गवाहों के बयान के आधार पर ही काम करते है।वही कोर्ट केवल जुबानी दलील के आधार पर निर्णय नहीं किया करते है।यहाँ भी कोर्ट ने सबूतों के आधार पर फैसला दिया है।अदालत ने रात के अंधेरे में आरोपियों की पहचान किए जाने पर सवाल उठाते हुए अपना निर्णय दिया है।किन्तु इन मृतकों के रोते बिलखते परिजन कहाँ तक इन बातों को समझ पाएंगे।उनके साथ हुए अन्याय का दोषी कौन है?अगर एक आम इंसान के हवाले से इसे समझे तो मुकदमों से उसकी माली हालत बदतर हो जाती है।
जोशो जुनून से शुरू किया गया उसका प्रयास थाना पुलिस, कचहरी, वकील,पेशकार,फाईल और तारीख आते आते कही खो जाता है।पस्त हिम्मतों वाले इंसान को यहाँ के वातावरण से घिन सी आने लगती है। फिर भी वो न्याय की आस मे इस चौखट तक बार बार आता है।इसी बेबसी पर एक मशहूर पत्रकार ने कहा था कि कचहरी तो बेवा का तन देखती है,कहां से खुलेगी वो बदन देखती है।वास्तव में पहले से ही केसों की भरमार और सुविधाओं के अभाव वाले कोर्ट से आप कह भी तो कुछ नही सकते है।ऐसे में इस व्यवस्था के दोष और सेनारी जैसे जघन्य अपराध के दोषियों की पड़ताल निहायत ही जरूरी है।आखिर इस दोषपूर्ण व्यवस्था के लिए कौन दोषी है।आम आदमी के तरह ही बोझों से दबे न्यायालय को हम उदासीनता के लिये दोषी नही ठहरा सकते है।किन्तु वे जिनके जिम्मे संविधान की मूलभूत भावनाओं में श्रद्धा विश्वास के साथ ही लोगों की सुरक्षा की जिम्मेवारी है क्या उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं है?
सेनारी की घटना 18 मार्च 1999 की है। तब के जहानाबाद जिले के करपी थाना और अब के अरवल जिला बिहार के सेनारी गाँव की यह घटना है। रात के अंधेरे में करीब छह सौ हथियार बंद नक्सलियों ने रक्तपात मचाया था। चौतीस पुरुषों को उनके घर से खींच कर उनके अपनो के बीच निर्मम तरीके से मारा था।जहाँ पहले उनके गले थोड़े थोड़े रेते गए।वही उनका पेट चीर कर आंत निकाल उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया गया। गिरफ्तारी के नाम पर तब केवल 74 लोगों की हिरासत में लिया गया था। वही पुलिस परेड के नही होने और तत्कालीन प्रादेशिक सरकार के नक्सलियों के प्रति झुकाव के नाते इनमे से 59 लोग छोड़ भी दिये गए। मीडिया एवं परिवार जनों के प्रयास के नाते निचली अदालत ने शेष पंद्रह लोगों को नवंबर 2016 में सजा सुनाई। जहाँ ग्यारह लोगो को फाँसी की सजा मुक़र्रर हुई। वही शेष चार लोगों को आजीवन कारावास दिया गया। इन घटनाओं से लगा कि चलो देर से ही सही पर सजा तो मिली। बिहार अपने पुराने लालू दौर वाले शासन से आगे बढ़ चुका है।
अब राजनैतिक हित के लिए नक्सलियों का समर्थन और निजी जातिये सेनाओं का दौर थम चुका है।गौतम बुद्ध गाँधी की कर्मभूमि और तीर्थकर महावीर की जन्मभूमि बिहार फिर से ज्ञान,निर्वाण वाले गौरवशाली अतीत की ओर कदम बढ़ा चुका है।सत्य,न्याय,विकास अब नए बिहार की पहचान होगे।पर नरसंहारों के हर मामले में दोषियों की रिहाई ने लोगों में अविश्वास की खाई को गहरा कर दिया है।पहले 2013 में लक्ष्मणपुर बाथे फिर अब सेनारी पर एक ही प्रकार के आये निर्णय और इन निर्णयों को लेकर माननीय न्यायालय की टिप्पणियाँ इस सुशासन सरकार पर सवालिया निशान है।आखिर सभी नरसंहारों के आरोपी क्यों छूटते जा रहे है। क्या लोगो के जान की कीमत कुछ भी नही है?संदेह इस बात का भी है की क़्या नीतीश सत्ता ने भी लालू राज की तरह समाज में जातिये विभेद उन्माद और नरसंहार कराकर शासन को चिरस्थायी बनाने का सोच तो नही विकसित कर लिया है?
ताजातरीन सेनारी नरसंहार मामले की सुनवाई करते हुए पटना हाईकोर्ट की दो सदस्यीय खंडपीठ ने टिप्पणी करते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष के साक्ष्य एक दूसरे से मेल नहीं खाते है।वहीं आरोपियों के पहचान की प्रक्रिया भी सही नहीं है अनुसंधानकर्ता पुलिस ने पहचान की प्रक्रिया का ठीक प्रकार पालन नहीं किया है। सरकार,सरकारी अभियोजन पक्ष और पुलिस प्रशासन ने सुनवाई के दौरान कोर्ट के समक्ष कोई भी ठोस साक्ष्य प्रमाण पेश नहीं किया है। वही न ही कोई ठोस दलील पेश की है।माननीय न्यायालय की ये टिप्पणी बिहार के हुक्मरान नीतीश कुमार की मंशा पर भी सवाल है। जब इस देश में हम हर ऐसी घटना को आतंकी और उग्रवादी करतूत मान कर उस पर कार्यवाही करते है। तब नक्सलियों के द्वारा अंजाम दिये गए इस घटना पर क्यों चुप है?
आखिर हमे क्यों ये हत्यारे सताये गए मजलूम नजर आते है या फिर सियासतदानों की नजर में हर समाज एक मतदाता भर है।जिसे हम भरमा डरा और एक दूसरे के प्रति भड़का कर राज कर सकते है।इस मसले पर मुख्य धारा के राजनैतिक दलों की पहले चुप्पी और अब बेतुके बोल सबसे दुखद है।जहाँ भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल ने फेसबुक ट्विटर से पूछा और बताया है कि इन चौतीस इंसानों की हत्या किसी ने नहीं की दुखद?….वही दूसरा बयान बिहार के उपमुख्यमंत्री रहे तेजतर्रार बयानवीर राज्यसभा सांसद सुशील मोदी का है।वो इस फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण बता रहे है।वही इसके लिए एक बार फिर तत्कालीन लालू सत्ता को कोस रहे है,बताया यह बताने के उनकी सरकार ने अब तक ऐसे मामलों पर क्या किया है।उनके उपमुख्यमंत्री रहते ऐसे मामलों में हमारी क्या उपलब्धि है।वही एक अन्य बयान स्थानीय नेता व भाजपा के पूर्व विधायक मनोज शर्मा का है।यह बयान घटनाक्रम के बाद के पुलिसिया कार्यवाही के तौर तरीकों को लेकर भी है।
वही हर मुद्दे पर अपनी बेबाक राय रखने वाले बिहार के नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव की ओर से अब तक कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है।वैसे बिहार सरकार के महाधिवक्ता द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में मामले को ले जाने की बात से चिढ़ कर राजद के श्याम रजक ने एक बयान दिया है।जिसमें वो अन्य नरसंहार के पीड़ितो के जाति मजहब बता मुद्दे को भटका रहे है।इनके लिए न्याय से ज्यादा इनका मतदाता और जाति विशेष का होना मायने रखता है। इनके इस बयान से उन मजलूमों के बचे परिवार जनों को आखिर कितनी चोट पहुँचेगी उन्होंने सोचा तक नही।दुनिया को लोकतंत्र की सीख देने वाले बिहार में ही आज लोकतंत्र सिसकियां ले रहा है।वही श्री रजक को ये सवाल खुद से भी करना चाहिए कि आपने सत्ता में रहते हुए क्या किया।कभी लालू कभी नीतीश जी से गलबहियां करते हुए सत्ता का सुख लेने के अलावा।ऐसे बयान और सोच बेहद घृणित है।बात अगर इस पूरे मसले पर मीडिया के हवाले से करे तो और भी अधिक निराशा होती है।
आपातकाल में जहाँ यह रेंगती थी वही आज के बिहार में भी रेंगते हुए उसी की याद दिलाती है। हिंदीभाषी पट्टी का एक प्रमुख समाचार पत्र जिसका बिहार मे एक बड़ा पाठक वर्ग है उसने तो इस मसले पर मौन ही धारण कर रखा है।इनके यहाँ खबर छपी नही या फिर किसी दिन बस दो चार कॉलम के साथ अंदर के पन्नों में दबा दी गई।यही खामोशी बिहार से छपने वाले अलग-अलग समाचार पत्र समूहों की भी है।मीडिया की तरफ से सुशासन वाली सरकार से कोई सवाल नहीं है।क्या यही है वास्तव में सबका साथ और सबके विकास वाली सुशासन सरकार?
ऐसे वक्त में मीडिया का एक तबका संवेदनाएं व्यक्त करने लोगों को न्याय दिलाने और शासन से सवाल करने की जगह लोगों को अपने तरीके से चोटिल करने में भी लगा है।जिसकी बानगी हिंदी के तथाकथित नंबर वन चैनल की रिपोर्टिंग है।अपनी भूमिका अदा करने की जगह अपने रिपोर्टिंग के माध्यम से लोगों के दर्द को कुरेदा जा रहा है।भारतीय न्याय व्यवस्था के संदर्भ में विधि क्षेत्र में सुविख्यात उस सूत्र की चर्चा भी यहाँ जरूरी जहाँ कहा गया है “जस्टिस डिलेड इज़ जस्टिस डिनाइड” अर्थात न्याय में देरी अन्याय के बराबर है।यह सवाल अब बहुत स्वभाविक है कि जब कई चुंनिन्दा मसले फास्ट ट्रैक कोर्ट के द्वारा निपटाए जा सकते है तो ऐसे जघन्य मामले में त्वरित न्याय का विचार क्यों नही किया गया?
बात अगर सेनारी नरसंहार की करे तो समय की देरी के नाते कई गवाहो की मृत्यु हो चुकी है वही कई गवाह टूट गये या तोड़े दिए गए।इस मामले के आरंभिक जाँचकर्ता भी परलोक गमन कर चुके है।वैसे इस तरह के मसलों पर अक़्सर शोर मचाने वाले भी चुप है।सामाजिक संस्थाएं मौन है जो अक्सर कभी नारी सम्मान कभी सामाजिक न्याय कभी मानव अधिकार कभी हिंदुत्व स्वाभिमान के नाम पर सामने आते रहते हैं। इन सबों का भी मौन होना दुर्भाग्यपूर्ण है।राष्ट्रकवि दिनकर के शब्दों में कहूं तो जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी इतिहास यहाँ। नक्सली घटनाएं सामूहिक नरसंहार की घटनाओं पर आखिर हमारा ये मन क्यो नही व्यथित होता है?जब देश एक विधान एक संविधान भी एक है तो फिर एक ही देश में दो अलग-अलग प्रदेशों के लिए और दो अलग-अलग समुदायों के लिए दो प्रकार के विचार व्यवहार और कानून कैसे हो सकते हैं।
जब सरकारें किसी भी मामले में पक्षकार होती है तो उसको फास्ट ट्रैक कोर्ट से सुनवाई करा कर के अपराधियों को दंडित कर सकती है तो फिर बिहार में यह माओवादी नक्सलियों के द्वारा किए गए नरसंहार के मामले में इतनी उदासीनता क्यों है? वहीं बिहार के सत्ता पक्ष और विपक्ष की बात करें तो बिल्कुल ही संवेदनाएं मर चुकी है।इनकी राजनीति लाशों के ढ़ेर पर खड़ी है अगर समय रहते नही चेते तो या तो नस्ले समाप्त होगी या फिर पुस्ते।
(लेखक के विचार निजी है, इससे janlekh.com प्रबंधन का कोई लेना-देना नहीं है।)