शमीमउद्दीन अंसारी साहब के वाॅल पेज से
मैं कलकत्ते नहीं जाता तो मास्टर सूर्य सेन के बारे में जान नहीं पाता, और उनके बारे में नहीं जानता तो दो महान स्त्री क्रान्तिकारियों प्रीतिलता वद्देदार और कल्पना दत्ता के बारे में पता नहीं लगता। आज उन्हीं बहादुर लड़कियों की कहानी।
चिटगाँव विद्रोह 18 अप्रैल 1930 को मास्टर सूर्य सेन के नेतृत्व में अंजाम दिया गया। योजना थी कि चिटगाँव के दो शस्त्रागारों को लूटा जाय और उसके बाद टेलीग्राफ और टेलीफोन की लाइनें नष्ट कर दी जाएँ और बाकी देश से उसका संपर्क काट दिया जाये। फिर यूरोपियन क्लब के सदस्यों को कैदी बना लिया जाये। मास्टर दा के इस काम में दो लड़कियां भी शामिल थीं-प्रीतिलता वद्देदार और कल्पना दत्ता।
प्रीतिलता अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठाने वाली पहली बंगाली स्त्री थीं। वो पढ़ने में बहुत होशियार थीं, 1929 में ढाका बोर्ड के इंटरमीडिएट इम्तेहान में उन्होने पहला स्थान हासिल किया था। अपने देश को अंग्रेजों से आजाद कराने की तड़प उन्हें मास्टर दा तक ले गयी। उन्होने मास्टर दा से अनुरोध किया कि चिटगाँव विद्रोह में उन्हें भी शामिल किया जाये। मास्टर दा को लगा कि प्रीतिलता को इस काम में लेना ठीक रहेगा मगर ये लड़की क्या करेगी इसका उन्हें अंदाजा नहीं था। प्रीतिलता ने सूझ-बूझ से चिटगाँव हमले की रूपरेखा तैयार की। उनके ज्ञान और ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने के उनके जज्बे ने दल में सभी को प्रभावित किया।
मगर बदकिस्मती से जैसा उन्होने सोचा था वैसा नहीं हुआ। उन्होने कुछ टेलीग्राफ और टेलीफोन लाइने तो काट दीं, हथियार भी लूटे, मगर गोला-बारूद नहीं पा सके। उस दिन गुड फ्राइडे था, इसलिए यूरोपियन क्लब में ज्यादा लोग भी नहीं थे। उन्होने शस्त्रागार पर हिंदोस्तानी झण्डा फहराया और जलालाबाद की पहाड़ियों में जा छिपे। चार दिन बाद ब्रिटिश सैन्यदल ने इस दल पर हमला किया। वो हजारों की संख्या में थे और क्रांतिकारी थोड़े। क्रान्तिकारियों के लिए जीवन की आस बहुत कम बची थी। 12 क्रान्तिकारी शहीद हुये, जिनमें से कई 17-18 साल के लड़के ही थे। ये प्रीतिलता ही थीं जिन्होने उस लड़ाई में विद्रोहियों को उन्हें गोला-बारूद पहुंचाने का काम अपने हाथ में लिया हुआ था।
इसके बाद मास्टर दा और प्रीतिलता बचे हुये लोगों से दल को फिर से संगठित किया। प्रीतिलता को मास्टर दा ने एक और अहम काम दिया गया और वो था पहाड़टोली यूरोपियन क्लब को आग के हवाले करना। मकसद था जलालाबाद में अपने शहीद साथियों की मौत का बदला लेना, मगर इस क्लब को इसलिए भी चुना गया था क्योंकि वहाँ ‘कुत्ते और हिंदोस्तानी नहीं आ सकते’ की तख्ती लगी थी। उन्हें 40 मर्दों की टोली का नेतृत्व करना था।
प्रीतिलता ने एक सरदार का वेश धरा किया और पक्के इरादे और होशियारी से 23 सितंबर 1932 की रात अपने दल के साथ क्लब पहुंची और उसे आग लगा दी। मगर उनकी विजय के क्षण बहुत थोड़े थे। ब्रिटिश टुकड़ी आ पहुंची, दोनों ओर से गोलीबारी होने लगी। एक गोली प्रीतिलता को लगी। गोली का घाव मामूली था, मगर प्रीतिलता अंग्रेजों के हाथ नहीं पड़ना चाहती थीं। उन्होने सायनाइड की गोली खा ली और देश के लिए अपनी जान दे दी।
उस समय उनकी उम्र 21 साल की थी। महज 21 साल। और अब दूसरी क्रांतिकरी कल्पना दत्ता। कल्पना दत्ता ने 1930 के चिटगाँव विद्रोह की कहानी अपनी बहू मानिनी चटर्जी को सुनाई थी जो एक किताब ‘क्व ंदक क्पमरू ज्ीम ब्ीपजजंहवदह न्चतपेपदह (1930-34) की शक्ल में सामने आई। वो उन कुछ क्रांतिकारियों में थीं जो जीवित रहीं। प्रीतिलता की तरह वो भी सुशिक्षित थीं और उनमें भी अपने देश को अंग्रेजों से आजाद कराने की तड़प थी। इसी सपने को लेकर वो ‘छत्रि संघ’ नाम के क्रांतिकारी विद्यार्थी संगठन में शामिल हुईं, जहां उनकी मुलाकात प्रीतिलता से हुयी, जिन्होने बाद में उनका परिचय मास्टरदा से कराया और वो भी मास्टरदा के दल ‘इंडियन रिपब्लिकन आर्मी’ की सदस्य बन गईं।
वो विद्रोहियों को खबरें और विस्फोटक पहुंचाया करती थीं, लेकिन असली महारत उन्हें गन कॉटन जो एक तरह का विस्फोटक होता है, बनाने में हासिल थी। इसके लिए उन्होने अपनी विज्ञान की तालीम की मदद ली थी। वो कारतूस बना लेती थीं।
पहाड़टोली यूरोपियन क्लब पर हमले में प्रीतिलता और कल्पना दोनों को शामिल किया गया था, पर हमले से एक हफ्ते पहले जब वो एक मर्द का वेश धर के क्लब की सुरक्षा व्यवस्था की टोह ले रही थीं, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें बहुत यातनाएं दी गईं पर पुलिस उनसे कोई सूचना हासिल नहीं कर सकी। आखिरकार दो महीने बाद उन्हें जमानत पर छोड़ना पड़ा। जमानत पर छूटते ही वो भूमिगत हो गईं, जिससे क्लब पर हमले को अंजाम देने में कोई रुकावट न आए, जिसकी जिम्मेदारी अब प्रीतिलता के अकेले कंधों पर थी। इस हमले के बाद अंग्रेजों की विद्रोहियों से मुठभेड़ हुयी थी, जिसमें प्रीतिलता जख्मी हुईं और फिर उन्होने सायनाइड खाकर अपनी जान दे दी थी।
कल्पना भेष बदलने में माहिर थीं, पुलिस उन्हें पकड़ भी लेती तो भी उनके खिलाफ कोई सुबूत नहीं होता था। चिटगाँव हमले के बाद जब दल के सदस्यों को पुलिस ने पकड़ लिया तब कल्पना उनके मुलाकात करने जाया करतीं, कभी किसी की बीवी तो कभी बहन बनकर और कभी मर्द के रूप में, और जरूरी सूचना उन तक पहुंचाती। अंग्रेजों को इसकी भनक तक नहीं लगने पाती। अंग्रेजों ने सीक्रेट एजेंट उनके घर के सामने तैनात कर रखे थे। अंजान मिलने वाले रात-बिरात उनके घर आ जाते। कभी-कभार ये जासूस उनका पीछा करते, मगर कल्पना ऐसी योजना बनातीं कि मेहमान उनकी आँखों के सामने से गायब हो जाते और कभी भी पुलिस की पकड़ में न आने पाते।
सितंबर 1931 में दल के दो सदस्यों लोकनाथ बल और अनंत सिंह कि चिटगाँव अदालत में पेशी थी। जैसे ही उनकी गाड़ी चलने वाली थी, पुलिस को भीड़ में बुर्के में एक औरत दिखी। उसके मर्दों जैसे डील-डौल पर पुलिस को शक हुआ, पर इसके पहले कि वो कल्पना को पकड़ पाते, उन्होने लाठी टेकती एक बुढ़िया का रूप बदल लिया और वहाँ से निकल गईं, लेकिन जाने से पहले उन्होने वहाँ एक खतरनाक विस्फोटक रख दिया जो नाइट्रिक एसिड और कपास के मिलाने से बना था और डाइनामाइट की तरह काम करता था। मकसद था विद्रोहियों को छुड़ाना। बाद में उन्होने दल के सदस्यों को ये विस्फोटक बनाना सिखाया।
कल्पना छिपती रहीं, और 1933 में जब मास्टरदा को एक रिश्तेदार नेत्र सेन की मुखबिरी का बाद अंग्रेजों ने गिरफ्तार किया, तब भी वे अंग्रेजों के हाथ नहीं आयीं। तीन महीने बाद अंग्रेज उन्हें पकड़ सके और उन पर चिटगाँव विद्रोह मामले में मुकदमा चला। उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गयी। बाद में छः साल जेल में रखने के बाद 1939 में उन्हें रिहा कर दिया गया। तब उनकी उम्र महज 26 साल की थी।
एक आजाद हिन्दोस्तान के साथ-साथ उनका सपना एक ऐसे देश का भी था जहां किसी को गरीबी और अभाव न देखना पड़े। अपनी रिहाई के बाद वो कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुईं। वो हमेशा उपेक्षित, बिसरा दिये गए लोगों के लिए काम करती रहीं, चाहे वो युद्ध हो, दंगे, महामारी या कोई प्राकृतिक आपदा, वो 8 फरवरी 1995 को अपनी मृत्यु होने तक लोगों के साथ खड़ी रहीं।
(यह आलेख सोशल मीडिया मंच फेसबुक के वाॅल से लिया गया है। इस आलेख में जो विचार हैं वह लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)