आधुनिक युग में बिदत को कट्टरवादी नहीं उदारवादी नजरिए से देखने की जरूरत है

आधुनिक युग में बिदत को कट्टरवादी नहीं उदारवादी नजरिए से देखने की जरूरत है

आधुनिक दुनिया का इस्लाम एक नए उहापोह से ग्रस्त है। अरब में उत्पन्न इस्लाम की नयी विचारधारा, या इसे ऐसा कहें कि इस्लाम की नयी क्रांति ने पूरी दुनिया को विभ्रम में डाल दिया है। यह विभ्रम केवल इस्लाम के अनुयायियों के लिए ही नहीं है, अपितु उन लोगों के लिए भी एक चुनौती के रूप में प्रस्तुत है, जो इस्लाम को जानना और समझना चाहते हैं। इसे सतही तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। इसके पीछे वही साम्राज्यवादी ताकत काम कर रही है, जिसने कभी दुनिया को गुलाम बनाने के इरादे से यूरोप की सीमाओं को लांघा था। खैर, इसकी चर्चा बाद में होगी लेकिन इस्लाम के कई विवादास्पद शब्दों और उसकी व्याख्याओं में से एक शब्द बिदत है, जिसपर हम आज चर्चा करने वाले हैं। आधुनिक युग में बिदत शब्द जितना विवादास्पत इस्लाम का कोई अन्य शब्द नहीं जान पड़ता है। इस्लाम के अनुयायियों के लिए बिदत की समझ जितनी जरूरी नहीं है, उससे कहीं ज्यादा अन्य लोगों को इसकी समझ होनी चाहिए। मसलन, कुछ स्थानों पर तो इसे हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाने लगा है। इस शब्द का उपयोग पूरे समुदायों या प्रथाओं को गलत ठहराने के लिए उपयोग में लाया जाना बेहद खतरनाक है। सबसे पहले बिदत का पारंपरिक अर्थ समझ लें। यह शब्द अरबी भाषा से लिया गया है। इस्लाम के पवित्र ग्रंथ कुरान में इस शब्द का उपयोग हुआ है। कुल मिलाकर, इस्लामी परंपरा में इसका मतलब, ऐसा नया धार्मिक कार्य या विश्वास जो कुरान, सुन्नत या शुरुआती मुस्लिम समुदाय के समझ के आधार पर न हो। हालांकि कुछ जानकार इसे धार्मिक नवाचार के रूप में देखते हैं, जो परंपरा को आधुनिक यथार्थ से जोड़ता है। इसका सीधा अर्थ है, वह कुप्रथा जो इस्लाम के लिए जायज नहीं है। वैसे मूल रूप में, बिदत बुरा या गलत नहीं है। इस्लामिक इतिहास में कुछ ऐसी भी घटनाएं घटी है, जो बिदत होने के बाद भी इस्लाम का महत्वपूर्ण अंग बन गया लेकिन आज कुछ धार्मिक नेता इस मामले को इसलिए भी तूल दे रहे हैं क्योंकि इससे उनके व्यक्तिगत हित सध रहे हैं।

अब थोड़ा विस्तार से इस पर व्याख्या प्रस्तुत होनी चाहिए। धार्मिक मामलों के जानकार, बरेलवी फिरके के मुफ्ती तुफैल खान कादिरी साहब फरमाते हैं, ‘‘एक स्थान पर पैगंबर ﷺ ने कहा है – “जो हमारे इस धर्म में ऐसी कोई चीज़ जो इसमें न हो, लाएगा, वह रद्द कर दी जाएगी” (सहीह बुख़ारी)। लेकिन उन्होंने यह भी कहा – “जो कोई इस्लाम में कोई अच्छी पहल करता है, उसे और उसके अनुयायियों को इसका फल मिलेगा” (सहीह मुस्लिम)। अगर हम एक बात को लेकर दूसरी को नजरअंदाज कर दें तो पैगंबर ﷺ की संतुलित हिदायत को समझना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए किसी भी धर्म या चिंतन को मुकम्मल तौर पर समझने की जरूरत होती है। यदि आप टुकड़ों में उसकी व्याख्या करते हैं तो समाज के लिए घातक साबित होता है।’’

मुफ्ती साहब फरमाते हैं, ‘‘साथी सहाबा ने भी बिदत को काले और सफेद जैसा नहीं माना। उदाहरण के तौर पर, उमर इब्न अल-ख़त्ताब ने रमज़ान में तरावीह की नमाज़ जब अलग-अलग लोग घरों में पढ़ते देखी, तो उन्हें एक जगह इकट्ठा किया और साफ तौर पर कहा – “यह कितनी अच्छी बिदत है!” यहां बिदत की तारीफ की गई, न कि निंदा। क्यों? क्योंकि यह धर्म के उद्देश्य के अनुकूल थी, सुन्नत पर आधारित थी और सार्वजनिक भलाई के लिए थी।’’

आज कई आधुनिक सलाफी आंदोलन के नहनुमा मानते हैं कि सभी बिदतें गुमराह हैं। वे कहते हैं कि जो पैगंबर ﷺ या उनके साथी न की हों, वह धार्मिक रूप से गलत है। तब तो उन्हें मोहब्बत, मेला, लाउडस्पीकर से अज़ान या समूह में ज़िक्र जैसे अभ्यास भी नापसंद करने होंगे। हालांकि कुछ नव इस्लामवादी ऐसा भी कह रहे हैं और लोगों को उस दिशा में प्रेरित करने की कोशिश करते हैं। लेकिन यह समझ इस्लाम की उन सिद्धांतों की उपेक्षा करती है जो बदलाव को स्वीकार करते हैं – कियास (तर्कसंगत तुलना), मस्लाहा (सार्वजनिक हित), ‘उर्फ़ (रिवायत) और इज्मा (सम्मति)।

अगर हम हर नई चीज़ को खारिज कर दें, तो फिर पवित्र ग्रंथ कुरान को पैगंबर के बाद एक किताब में संकलित करना, मीनारें बनाना, धार्मिक स्कूल खोलना या प्रार्थना का समय नापने के लिए घड़ी का इस्तेमाल करना इस्लाम का अंग कैसे हो सकता है? इसे आप कैसे सही ठहराएंगे? यदि इन तामाम चीजों को आप अपने साथ नहीं करेंगे तो आधुनिकता से दूर हो जाएंगे फिर इस्लाम का वह आदर्श पूरा ही नहीं होगा जिसके लिए पैगंबर ﷺ बार बार हेदायत करते हैं। दरअसल, ये तमाम चीजें इस्लाम की आत्मा के अनुकूल है।

कुरान खुद कहता है – “और जो कुछ रसूल तुम्हें दे, उसे ले लो और जो कुछ वह तुम्हें मना करे, उससे दूर रहो।” (अल-हश्र 59ः7) यह आदेश यथार्थपरक पालन की हिदायत देता है, ना कि इसे उदारवादी माना जाना चाहिए। हर नई धार्मिक अभिव्यक्ति को गलत कहना इस्लामी सभ्यता की समृद्धि को नजरअंदाज करना होगा। आधुनिक काल में कला, क़ानून, दर्शन, और संस्थान-जो सभी नए विचारों और नवीनीकरण से विकसित हुए हैं, उसको नकारना बंद कमरे जैसा साबित होगा और इससे इस्लाम कमजोर होता चला जाएगा। इस्लाम के शास्त्रीय न्यायविद जानते थे कि बिदत दोनों प्रकार की होती हैं-जो कुरान और सुन्नत के खिलाफ है, वह गलत और जो इनके अनुकूल है, वह सही। इसे रूप में इसे माना भी जाना चाहिए।

इस्लाम के रहनुमाओं को सोचना चाहिए – क्या नई प्रथा हमारे विश्वास के मूल को तोड़ती है? क्या यह शिर्क या गुमराही को बढ़ावा देती है? या यह लोगों को अल्लाह की याद दिलाती है, समुदाय को मजबूत बनाती है और शरिया के उच्च उद्देश्य को पूरे करती है? कुरान कहता है – “अल्लाह तुम्हारे लिए आसानी चाहता है, कठिनाई नहीं।” (अल-बक़रह 2ः185) इस्लामिक चिंतन, समय और स्थान के अनुसार इंसानों को मार्गदर्शन देने के लिए है, न कि उनके विकास को रोकने के लिए।

इस्लाम के अनुयायियों के लिए आगे का रास्ता न तो हर बिदत को मना करने का है और न ही हर नयी चीज़ को बिना समझे अपनाने का। रास्ता है समझदारी का – रिवायत के प्रति ईमानदारी और नयी परिस्थितियों में धर्म की सेवा करने के लिए खुलापन जरूरी है। यही साथी सहाबा की विरासत है, न्यायविदों की बुद्धिमत्ता है और वही सच्चा इस्लाम है जिसने सदियों से लोगों के दिलों पर राज किया है। सच्ची ईमानदारी समय को जमे रहने में नहीं, बल्कि उद्देश्य, स्पष्टता और करुणा के साथ दिव्य मार्गदर्शन के जीवंत अनुभव में है। मुझे लगता है गैर इस्लामिक लोगों को भी बिदत को इसी रूप में देखना चाहिए। यदि इस प्रकार की समझ विकसित हो जाती है तो इस्लाम के मानने वालों को इसका फायदा तो होगा ही साथ ही गैर इस्लामिक जमात को भी इस्लाम के आदर्श को समझने में सहूलियत होगी।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate »