आखिर किसके हित में है उत्तर प्रदेश बिजली विभाग का निजीकरण

आखिर किसके हित में है उत्तर प्रदेश बिजली विभाग का निजीकरण

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार बिजली विभाग पर निजीकरण का बुलडोज़र चलाने की ठान चुकी है। बिजली कर्मचारियों के व्यापक विरोध प्रदर्शन के बावजूद योगी सरकार पूँजीपतियों के हक़ में अपने अटल इरादे को ज़ाहिर कर चुकी है। इसके लिये योगी सरकार एस्मा जैसे क़ानून का डण्डा और निलम्बन और बर्खास्तगी जैसे हथकण्डे इस्तेमाल करने के लिए तैयार बैठी है। उत्तर प्रदेश पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड (यूपीपीसीएल) दो प्रमुख बिजली वितरण निगमों (डिस्कॉम), दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगम (आगरा) और पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम (वाराणसी) का निजीकरण करने जा रही है। योगी सरकार की मंज़ूरी के बाद ऊर्जा विभाग ने यूपी पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड को इस योजना को लागू करने के लिए आदेश जारी कर दिया है। यह निर्णय उत्तर प्रदेश के 40 से अधिक ज़िलों को प्रभावित करेगा।

इतना ही नहीं, उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा ग्रामीण और शहरी इलाक़ों में बिजली की दरों में 40-45 प्रतिशत वृद्धि का फ़ैसला लिया गया है। इस बढ़ोत्तरी के बाद बिजली जैसी बुनियादी ज़रूरत की चीज़ों का इस्तेमाल करना भी लोगों के लिए मुश्किल हो जायेगा। ज़ाहिर है कि बिजली की दरों के बढ़ने से मँहगाई में भी बढ़ोत्तरी होगी क्योंकि जिन वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन में बिजली का इस्तेमाल होता है, उनकी लागत तत्काल बढ़ जायेगी। कुल मिलाकर कहा जाये तो एक तरफ़ निजीकरण की मार और दूसरी ओर बिजली की बढ़ी हुई दरों के वार से उत्तर प्रदेश की योगी सरकार आम जनता पर दोहरा हमला कर रही है।

वास्तव में आज के समय में बिजली हर इन्सान की ऐसी बुनियादी ज़रूरत बन चुकी है, जिसके बग़ैर किसी की भी पूरी दिनचर्या ही अस्त-व्यस्त हो जायेगी। ज़ाहिर है कि वर्तमान समय में जीवन की ज़रूरतों का स्तर ऐसा है कि अब ढिबरी और लालटेन पर वापस नहीं लौटा जा सकता। हाँ! यह बात अलग है कि मोदी सरकार के 100 प्रतिशत विद्युतीकरण की घोषणा के बावजूद अभी भी ढिबरी और लालटेन की बाध्यता बनी हुई है। 24 घण्टे बिजली की आपूर्ति के लिए ‘सौभाग्य’ योजना शुरू की गयी लेकिन अभी भी बहुत से इलाक़ों में 12 घण्टे भी बिजली न मिल पाने का ‘दुर्भाग्य’ बना हुआ है! यानी अभी हर घर तक सुचारु रूप से 24 घण्टे निर्बाध बिजली की आपूर्ति भी सम्भव नहीं हुई थी कि सरकार ने बिजली का निजीकरण जनता पर थोप दिया। स्पष्ट है कि बिजली का निजीकरण मुट्ठी भर पूँजीपतियों के मुनाफ़े की हवस को पूरा करने के लिए किया जा रहा है और आम मेहनतकश आबादी पर इसका बहुत बुरा असर पड़ेगा।

निजीकरण के इस निर्णय को लागू करने के मामले में कॉरपोरेशन बहुत जल्दी में है और दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगम (आगरा) और पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम (वाराणसी) को औने-पौने दामों में निपटा देना चाहता है। राज्य विद्युत उपभोक्ता परिषद के अध्यक्ष अवधेश कुमार वर्मा ने बताया कि कॉरपोरेशन प्रबन्धन जिस टीए कम्पनी से निजीकरण का प्रस्ताव तैयार करा रहा है, वह अमेरिका में जुर्माने की दोषी है और उसे असंवैधानिक तरीक़े से नियुक्त किया गया है। पूर्वांचल और दक्षिणांचल को समाप्त करके पाँच नयी कम्पनियाँ बनायी गयी हैं। लेकिन पूर्वांचल और दक्षिणांचल के इक्विटी शेयर कैपिटल को कम करके आँका गया है। 6000 से 7000 इक्विटी शेयर कैपिटल मानकर दोनों बिजली कम्पनियों में प्रस्तावित पाँच नई बिजली कम्पनियों की कुल रिज़र्व बिड प्राइस को दो हज़ार करोड़ से नीचे रखा गया है ताकि आसानी से कॉरपोरेशन प्रबन्धन की मनचाही कम्पनियों को टेण्डर प्रक्रिया में हिस्सा लेने का मौक़ा मिल जाये। जबकि दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगम की इक्विटी शेयर कैपिटल 25862 करोड़ और पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम की इक्विटी शेयर कैपिटल 28024 करोड़ है। दोनों की इक्विटी शेयर कैपिटल 53886 करोड़ है।

सरकार और कॉरपोरेशन का निजीकरण के पक्ष में कहना है कि ये दोनों बिजली वितरण निगम वर्षों से घाटे में चल रही थीं जिसका सीधा असर न केवल राज्य की अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा था बल्कि उपभोक्ताओं को भी अनियमित आपूर्ति, बिलिंग समस्याओं और सेवा की गुणवत्ता में कमी जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था। सरकार का कहना है कि निजीकरण से ये सारी समस्याएँ दूर हो जायेंगी और इसका सबसे ज़्यादा लाभ ग्रामीण और अर्द्ध-शहरी इलाक़ों में देखने को मिलेगा।

यही नहीं, उत्तर प्रदेश सरकार ने तो बिजली के निजीकरण में सामाजिक न्याय और समानता तक को तलाश लिया है! सरकार का कहना है कि ऐसे नीतिगत फ़ैसलों को राजनीतिक चश्मे से देखने की ज़रूरत नहीं है। ज़रूरी यह है कि हम दीर्घकालिक “राष्ट्रीय” हित को प्राथमिकता दें। निजीकरण केवल आर्थिक सुधार नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और ऊर्जा समानता का एक माध्यम है। अब ज़ाहिर है कि जब बात “राष्ट्रीय” हित (पढ़ें रू पूँजीपतियों के हित) की है इसलिए इसकी झण्डाबरदार योगी सरकार डण्डे के ज़ोर पर भी इसे पूरा करने के लिए कटिबद्ध है।

आइये देखते हैं कि बिजली के निजीकरण में सरकार और कॉरपोरेशन के दावे की सच्चाई क्या है और बिजली के निजीकरण में किसका हित है? सबसे पहली बात यह है कि इन दोनों वितरण निगमों में घाटे का असली कारण सरकार द्वारा ऊँची लागत पर निजी क्षेत्र से बिजली की ख़रीदारी है। ग़ौरतलब है कि उत्तर प्रदेश 30000 मेगावॉट की ज़रूरत में से केवल 5000 मेगावॉट बिजली उत्पादन करता है। बाक़ी वह निजी क्षेत्र से ऊँची लागत पर ख़रीदता है। देश के स्तर पर बिजली के आधे से अधिक का उत्पादन टाटा, अदानी, जिन्दल, टोरेण्ट जैसे कारपोरेट घरानों द्वारा किया जा रहा है। एनटीपीसी की बिजली 4.78 रुपये प्रति यूनिट है, जबकि निजी क्षेत्र की बिजली 5.59 रुपये प्रति यूनिट में ख़रीदी जा रही है। घाटे का एक प्रमुख कारण यह है। सरकार अब वितरण को भी तेज़ी से निजी हाथों में सौंपने की तैयारी में है। केन्द्र सरकार द्वारा 20 जुलाई 2021 को 303758 करोड़ रुपये के बजट के साथ संशोधित वितरण क्षेत्र योजना (आरडीएसएस) शुरू की गयी थी। वास्तव में, वितरण के ढाँचे को उन्नत करने और जनता का फ़ायदा करने के नाम पर इस सरकारी योजना का मक़सद यह था कि इसमें जनता का पैसा ख़र्च किया जाये और पूँजीपतियों के लिए बिना एक धेला ख़र्च किये मुनाफ़ा बटोरने का रास्ता साफ़ किया जाये। वितरण प्रणाली में सुधार से देश में एटी एण्ड सी घाटा (यानी बिजली वितरण कम्पनियों को होने वाला कुल तकनीकी और वाणिज्यिक घाटा) 2011-12 के लगभग 22 प्रतिशत से घटकर 2021-22 में लगभग 17 प्रतिशत हो गया। लेकिन इस अवधि में बिजली की दरें हर साल बढ़ती गयीं। मतलब सुधार के फ़ायदे को उत्पादन और वितरण कम्पनियों ने हड़प लिया जबकि सरकार का दावा उपभोक्ताओं को फ़ायदा पहुँचाना था।

दूसरे, यूपीपीसीएल को वर्तमान में कुल 1.1 लाख करोड़ रुपये का घाटा हो रहा है जबकि वित्तीय वर्ष 2023-24 के लिए उपभोक्ताओं पर बकाया बिजली बिल 1.15 लाख करोड़ रुपये है। इससे साफ़ है कि घाटे की बात केवल लोगों को गुमराह करना है। वास्तव में, सरकार सस्ती दर पर जनता को बिजली मुहैया करने से पल्ला झाड़ते हुए अन्य विभागों की तरह इसे भी पूँजीपतियों के लूट के अड्डे में तब्दील करना चाहती है।

तीसरे, जहाँ भी बिजली का निजीकरण हुआ है वहाँ लोगों को बहुतेरी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। उदाहरण के लिए टाटा समूह मुम्बई और दिल्ली में, टोरेण्ट समूह अहमदाबाद में, गोयनका समूह कोलकाता में बिजली आपूर्ति का काम करता है। कुछ शहरों में निजी कम्पनियाँ राज्य के स्वामित्व वाली वितरण कम्पनी की फ्रेंचाईज़ी के रूप में बिलिंग और संग्रह का काम करती हैं। उदाहरण के लिए महाराष्ट्र के ठाणे जिले में भिवण्डी, कलवा, मुंब्रा और दिवा में टोरेण्ट समूह। लेकिन इन जगहों पर लोगों को कोई फ़ायदा नहीं हुआ। यहाँ बिजली की दरें देश में सबसे ज़्यादा ऊँची हैं। सरकार का दावा था कि वितरण में प्रतिस्पर्धा से बिजली सस्ती होगी लेकिन मुम्बई में टाटा और अम्बानी की प्रतिस्पर्धा में लोगों को कोई फ़ायदा नहीं हुआ।

चौथे, सरकार का कहना है कि बिजली के निजीकरण से कर्मचारियों के रोज़गार पर कोई फ़र्क़ नहीं आयेगा। इसके लिए सरकार कर्मचारियों को उन्हीं सेवा शर्तों पर निजी कम्पनी में काम करने, किसी अन्य विभाग में ट्रांसफर करने या वीआरएस के विकल्प की बात करती है। लेकिन हक़ीक़त यह है कि जहाँ निजीकरण हुआ है, वहाँ निजीकरण के बाद बहुत से लोगों को बाहर कर दिया गया। स्थायी नौकरियों की जगह एक तिहाई से एक चौथाई वेतन पर संविदाकर्मियों की भर्ती की गयी। एक अनुमान के मुताबिक़ वितरण के निजीकरण से केवल तमिलनाडु में 20 हज़ार कर्मचारी प्रभावित होंगे। नौकरियों के घटने का असर छात्रों-युवाओं के भविष्य पर भी पड़ेगा। इतना ही नहीं, हाल ही में विभाग में जॉइनिंग करने वाले बहुत से कर्मचारी प्रोबेशन पीरियड में हैं। ऐसे में उत्तर प्रदेश में बिजली के निजीकरण से कर्मचारियों को अपनी नौकरी पर ख़तरा मंडराता दिख रहा है। इससे बहुत साफ़ है कि बिजली के निजीकरण से कर्मचारियों और आम मेहनतकश जनता को केवल नुक़सान होगा जबकि पूँजीपति वर्ग मालामाल होगा।

कुल मिलाकर देखा जाये तो केन्द्र और राज्य में बैठी फ़ासीवादी भाजपा सरकार का एक सूत्री कार्यक्रम है। अम्बानी, अदानी जैसे उद्योगपतियों के मुनाफ़े की हवस पूरी करने के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन और बिजली आदि बुनियादी सुविधाओं को निजीकरण की भेंट चढ़ा देना। आज दीर्घकालिक आर्थिक संकट की मार झेल रहे पूँजीपति वर्ग की यही चाहत हो सकती है कि कम से कम लागत पर ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा पीटे। तो जनता के ख़ून-पसीने की कमाई से खड़े सार्वजनिक विभागों को पूँजीपतियों के लूट के अड्डे में बदल देने से अधिक सुगम रास्ता भला क्या हो सकता है? पूँजीपति वर्ग की लूट के रास्ते को सुगम बनाने के लिये भाजपा जैसी पार्टी का सत्ता में होना ज़रूरी है जो पूँजीपतियों के हक़ में जनता के खिलाफ़ नीतियाँ बनाये। लेकिन सूचना-संचार माध्यमों पर क़ब्ज़े और अपने फ़ासीवादी नेटवर्क के ज़रिये जनता को एकदम उलटी बात बताये। जो एक तरफ़ अपने को कर्मचारियों का सेवक बताये और दूसरी तरफ़ कर्मचारियों के अधिकार की हर आवाज़ को कुचल देने में कोई कोताही न बरते। जो जन-विरोधी नीतियों को “राष्ट्रहित” में ज़रूरी बताकर लोगों को गुमराह करे।

इसका यह मतलब कत्तई नहीं है कि भाजपा के अलावा किसी अन्य चुनावबाज़ पार्टी से हम कोई उम्मीद रखें। वास्तव में, भाजपा अगर सत्ता से बेदखल हो भी जाये और किसी अन्य चुनावबाज़ पार्टी या किसी गठबन्धन की सरकार बन भी जाये तो भी इस स्थिति में कोई बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला क्योंकि भाजपा के अलावा अन्य चुनावबाज़ पार्टियाँ भी पूँजीपतियों के चन्दों से चलती हैं और उन्हीं के किसी न किसी हिस्से की नुमाइंदगी करती हैं।

आज के समय में बिजली लोगों की बुनियादी ज़रूरत है। बिजली का निजीकरण आम मेहनतकश जनता की जेब काटने के साथ-साथ बहुत-सी परेशानियों को पैदा करेगा। इसलिए जहाँ एक तरफ़ पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा ख़ुद पैदा किये संकट के दौर में पूँजीपति वर्ग की ज़रूरतों के रूप में निजीकरण की नीतियों और उसके भयानक नतीजों का व्यापक जनता में ख़ुलासा करना ज़रूरी हैं, वहीं बिजली के निजीकरण और आम तौर पर निजीकरण की नीतियों के विरुद्ध विभिन्न विभागों के कर्मचारियों समेत आम मेहनतकशों की व्यापक एकजुटता क़ायम करना भी ज़रूरी है।

यह आलेख मज़दूर बिगुल, जून 2025 से प्राप्त किया गया है। आलेख के लेखक वामपंथी विचार से अपना संबंध रखते हैं। आलेख में तथ्य और विषय लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई तालुकात नहीं है।

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