प्रमोद जोशी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वॉशिंगटन-यात्रा के दौरान कोई बड़ा समझौता नहीं हुआ। वैसे संबंधों का महत्वाकांक्षी एजेंडा ज़रूर तैयार हुआ है। यात्रा के पहले आप्रवासियों के निर्वासन को लेकर जो तल्खी थी, वह इस दौरान व्यक्त नहीं हुई। अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप जिस ‘रेसिप्रोकल टैरिफ’ के विचार को आगे बढ़ा रहे हैं, वह केवल भारत को ही नहीं, सारी दुनिया को प्रभावित करेगा। यह विचार नब्बे के दशक में शुरू हुए वैश्वीकरण के उलट है। इसके कारण विश्व-व्यापार संगठन जैसी संस्थाएँ अपना उद्देश्य खो बैठेंगी, क्योंकि इसके कारण बहुपक्षीय-समझौते मतलब खो देंगे।
जहाँ तक भारत का सवाल है, अभी तक ज्यादातर बातें अमेरिका की ओर से कही गई हैं। अलबत्ता यात्रा के बाद जारी संयुक्त वक्तव्य काफी सकारात्मक है। इसमें व्यापार समझौते की योजना भी है, जो संभवतः इस साल के अंत तक हो सकता है। वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने अभी हाल ही में उम्मीद जताई कि अब दोनों पक्ष एक-दूसरे की प्रतिस्पर्धी सामर्थ्य के साथ मिलकर काम कर सकेंगे। इस दिशा में पहली बार 2020 में चर्चा हुई थी, पर पिछले चार साल में इसे अमेरिका ने ही कम तरज़ीह दी।
अमेरिका से अपने रिश्ते बनाकर रखने के अलावा हमें अपनी स्वतंत्र विदेश-नीति को भी छोड़ना नहीं है। जहाँ तक टैरिफ का सवाल है, यह राष्ट्रीय-हितों से तय होगा. यात्रा के दौरान चाबहार बंदरगाह पर अमेरिकी-प्रतिबंधों के बाबत भी बातें हुई होंगी। ईरान के विदेशमंत्री सैयद अब्बास अराग़ची ने हाल में कहा है कि भारत इस मामले में अमेरिका के संपर्क में है।
भारतीय उद्योग-व्यापार को भी वैश्विक-प्रतियोगिता में उतरना होगा, संरक्षणवादी-नीतियाँ देर-सबेर विदा होंगी। साल के अंत में ट्रंप के भारत आने की उम्मीद है। इस एजेंडे में व्यापारिक-रिश्ते सबसे ऊपर होंगे। उनके बाद सामरिक और भू-राजनीतिक मसले होंगे। पीएम मोदी वॉशिंगटन से पहले फ्रांस गए थे, इसलिए दोनों यात्राओं के निहितार्थ को समझना होगा। कारोबारी, सामरिक और भू-राजनीतिक प्रश्नों पर हमें अमेरिका के अलावा दूसरे देशों के साथ अपने रिश्तों को भी देखना होगा। ऐसे समझौतों के पहले काफी होमवर्क करना होता है, उसमें समय लगेगा।
ट्रंप ने भारत में अमेरिकी वस्तुओं के लिए बाजार खोलने की माँग की है। अभी स्पष्ट नहीं है कि उनकी टैरिफ नीति कितनी सफल होगी और अमेरिकी उद्योग-व्यापार समुदाय की राय क्या है। सच है कि अमेरिका का दुनिया के तकरीबन सभी देशों के साथ व्यापार घाटा है और ट्रंप उसे दूर करना चाहते हैं, पर यह कैसे होगा, यह स्पष्ट नहीं है।
अपने आयात पर अमेरिका भारी टैरिफ लगाता जाएगा, तो उसके उद्योग-व्यापार पर भी संकट आएगा। चीजें महँगी होती जाएँगी। मशीनरी के सहायक-उपकरण और कच्चा माल महँगा होगा, तो उसके उत्पाद महँगे होंगे। व्यापार घाटे को कम करने के ट्रंप के प्रयासों को गलत भी नहीं कहना चाहिए, पर उनकी व्यावहारिकता को भी देखना होगा।
मोदी और ट्रंप ने इस वार्ता के दौरान द्विपक्षीय संबंधों को बढ़ाने के अवसर तलाशे हैं। भारत, हाइड्रोकार्बन का प्रमुख आयातक है और वह अमेरिका से लाभ उठाने को तैयार हो सकता है, बशर्ते वह रूसी पेट्रोलियम से सस्ता हो। फिलहाल लगता है कि हम वहाँ से प्राकृतिक-गैस खरीद सकते हैं। दोनों देश परमाणु-ऊर्जा के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने पर सहमत हुए हैं, जिससे एक नए दौर की शुरुआत हो सकती है। इस मामले में फ्रांस और रूस भी प्रतियोगिता में हैं। इसे लेकर देश के कानूनों में कुछ बदलाव करने होंगे, जिनके छींटे आंतरिक राजनीति पर भी पड़ेंगे।
दोनों देशों ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसे उभरते क्षेत्रों में सहयोग के लिए भी प्रतिबद्धता जताई है। क्षेत्रीय सुरक्षा के संदर्भ में, वे हिंद-प्रशांत में अपनी भागीदारी बढ़ाने और पश्चिम एशिया में सहयोग के लिए सहमत हुए हैं। ट्रंप ने अपने स्टैल्थ लड़ाकू विमान एफ-35 भारत को देने की पेशकश की है। अमेरिकी हथियारों और रक्षा-तकनीक के आयात के लिए भारत तैयार है, पर हमें टेक्नोलॉजी का हस्तांतरण भी चाहिए। रक्षा-तकनीक बहुत जटिल मसला है, खासतौर से अमेरिकी शस्त्रास्त्र के साथ कई तरह की शर्तें होती हैं।
भारत को अपने लड़ाकू विमानों के बेड़े में लगातार होती कमी को दूर करना है, जिसके लिए 114 मल्टी रोल फाइटर एयरक्राफ्ट (एमआरएफए) खरीदने भी हैं। अमेरिका इसके लिए अपने एफ-21 विमानों को बेचना चाहता है। उनके साथ वह एफ-35 बेचने को तैयार है। हमें इस विमान की जरूरत है भी या नहीं? हमारे यहाँ इसके समकक्ष एम्का कार्यक्रम चल रहा है। अमेरिका के विमानों की खरीद से एम्का और तेजस मार्क-2 के विकास को धक्का नहीं लगना चाहिए। रक्षा के मामले में हमें आत्मनिर्भरता के रास्ते से भटकना नहीं है।
मोदी के साथ बैठक के बाद ट्रंप ने कहा, जैसे-जैसे हम अपनी रक्षा साझेदारी को गहरा करेंगे, हम अपने आर्थिक संबंधों को भी मजबूत करेंगे। उन्हें शिकायत है कि भारत 30 से 40 से 60 और यहाँ तक कि 70 प्रतिशत टैरिफ लगाता है और कुछ मामलों में तो इससे भी कहीं ज्यादा है। भारत के साथ व्यापार घाटे को दूर करने की वकालत करते हुए ट्रंप ने कहा, हम तेल और गैस की बिक्री से व्यापार अंतर को बहुत आसानी से पूरा कर सकते हैं। हमारे पास दुनिया में किसी भी देश से ज़्यादा एलएनजी है।
मोदी-ट्रंप वार्ता के दौरान दोनों देशों के बीच सहयोग को एक कॉम्पैक्ट (कैटेलाइज़िंग अपॉर्च्युनिटीज़ फॉर मिलिटरी पार्टनरशिप, एक्सेलरेटेड कॉमर्स एंड टेक्नोलॉजी) का नाम दिया गया है, जो इसके विविध-पक्षों को व्यक्त करता है। अमेरिका-भारत रक्षा साझेदारी के लिए एक नए दस-वर्षीय कार्यक्रम पर इस वर्ष हस्ताक्षर किए जाएंगे। जैवलिन मिसाइल और स्ट्राइकर वाहन पर काम किया जाएगा. पहले से हुए समझौते की शर्तों के अनुसार 6 अतिरिक्त पीआई विमानों की खरीद भी संभव है। इस वर्ष पारस्परिक रक्षा खरीद (आरडीपी) समझौते के लिए वार्ता शुरू की जा रही है।
दोनों देशों ने 2030 तक वार्षिक द्विपक्षीय व्यापार को 500 अरब डॉलर तक पहुँचाने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है, जिसके लिए भारत की व्यापार रणनीति का व्यापक पुनर्मूल्यांकन आवश्यक हो गया है। यह एक ऐसी ज़रूरत है, जो भारत की विदेशी-व्यापार से जुड़ी संरक्षणवादी नीतियों को लेकर बढ़ती शिकायतों के बीच बढ़ती जा रही है।
ट्रंप की संभावित नीतियों को या वैश्विक-परिस्थितियों को देखते हुए भारत ने इस साल केंद्रीय बजट में दो दर्जन से अधिक वस्तुओं पर सीमा शुल्क में कटौती की गई है, जिससे औसत सीमा शुल्क 11.66 प्रतिशत से घटकर 10.66 प्रतिशत हो गया है। यह भारत की छवि को बदलने की सरकारी इच्छा को दर्शाता है। ट्रंप ने याद किया कि कैसे हार्ले-डेविडसन को भारी टैरिफ के कारण भारत में मोटरसाइकिल बेचने में मुश्किलों का सामना करना पड़ा। कंपनी को शुल्कों से बचने के लिए भारत में कारखाना लगाने को मजबूर होना पड़ा। उन्होंने कहा, हमारे साथ भी यही करिए। यहाँ कारखाने लगाएँ। अमेरिका में भारतीय निवेश को अमेरिका ने स्वीकार भी किया है। भारतीय कंपनियों ने अमेरिका में 7.355 अरब डॉलर से अधिक का निवेश किया है।
भारत-पश्चिम एशिया-यूरोप कॉरिडोर के संदर्भ में ट्रंप ने कहा, हम इतिहास के सबसे महान व्यापार मार्गों में से एक के निर्माण में मिलकर काम करने पर सहमत हुए हैं। यह भारत से इसराइल, इटली और फिर अमेरिका तक जाएगा, जो हमारे भागीदारों को बंदरगाहों, रेलवे और समुद्र के नीचे केबलों से जोड़ेगा। अगले छह महीनों के भीतर भारत-पश्चिम एशिया-यूरोप कॉरिडोर और आईयू समूह के भागीदारों को बुलाने की योजना भी है। मेटा ने समुद्र के नीचे केबल परियोजना में कई अरब डॉलर के निवेश की घोषणा की है। इसपर इस वर्ष काम शुरू होगा और अंततः पाँच महाद्वीपों को जोड़ने और हिंद महासागर क्षेत्र और उससे आगे वैश्विक डिजिटल राजमार्गों को मजबूत करने के लिए 50,000 किलोमीटर से अधिक का विस्तार होगा।
एफ-35 विमान और संयुक्त वक्तव्य में मुंबई हमले को लेकर की गई टिप्पणी को पाकिस्तान में काफी महत्व दिया गया है। पाकिस्तान सरकार के प्रवक्ता ने भारत को उन्नत सैन्य तकनीक की आपूर्ति को लेकर अमेरिका को तत्काल चेतावनी भी दे दी। संयुक्त वक्तव्य में पाकिस्तान से कहा गया है कि 2008 के मुंबई हमलों और पठानकोट घटना के लिए जिम्मेदार लोगों को शीघ्र न्याय के कटघरे में लाएँ। साथ ही यह भी मांग की गई है कि वह अपनी ज़मीन का इस्तेमाल सीमा पार आतंकवाद के लिए न करे।
शुक्रवार को पाकिस्तानी विदेश विभाग के प्रवक्ता शफ़ाक़त अली खान ने इस टिप्पणी को ‘एकतरफा’ और ‘भ्रामक’ बताया। प्रवक्ता ने कहा, हमें आश्चर्य है कि अमेरिका के साथ आतंकवाद-विरोधी पाकिस्तानी सहयोग के बावजूद संयुक्त बयान में इस संदर्भ को जोड़ा गया है। एफ-35 विमान बेचने की पेशकश पर भी उन्होंने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की तथा उन्नत सैन्य प्रौद्योगिकी के संभावित हस्तांतरण पर गंभीर चिंता व्यक्त की। प्रवक्ता ने चेतावनी दी, ऐसे कदम क्षेत्र में सैन्य असंतुलन को बढ़ाएँगे और स्थिरता को कमजोर करेंगे।
भारत-पाकिस्तान रिश्तों के संदर्भ में ज्यादा बड़ी खबर यह है कि अमेरिका ने मुंबई हमले से संबद्ध तहव्वुर राणा के भारत प्रत्यर्पण को मंजूरी दे दी है। यह एक बड़ा कदम है, जो मुंबई हमले में पाकिस्तान सरकार का हाथ साबित करने में मददगार होगा। संयुक्त वक्तव्य में खालिस्तानियों और नार्काे-आतंकवादियों तथा संगठित अपराध सिंडिकेट के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई करने के लिए कानून प्रवर्तन सहयोग को मजबूत करने की बात भी है, जो सार्वजनिक और राजनयिक सुरक्षा और दोनों देशों की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता को खतरा पहुंचाते हैं।
मोदी की यात्रा के दौरान ही खबर यह भी आई है कि राष्ट्रपति ट्रंप ने पाकिस्तान पर आलोचनात्मक विचारों के लिए प्रसिद्ध एस पॉल कपूर को दक्षिण और मध्य एशिया के लिए अगले सहायक विदेशमंत्री के रूप में नामित किया है। उनकी नियुक्ति वाशिंगटन की दक्षिण एशिया नीति में व्यापक बदलाव का संकेत देती है-जिसमें भारत पर अधिक जोर दिया गया है, जबकि इस्लामाबाद के प्रति संदेहपूर्ण रुख अपनाया गया है।
अमेरिकी नौसेना स्नातकोत्तर स्कूल में प्रोफेसर और स्टैनफर्ड के हूवर इंस्टीट्यूशन में फैलो कपूर लंबे समय से कहते रहे हैं कि पाकिस्तान की सुरक्षा नीतियाँ इस्लामी आतंकवाद के सहारे हैं। इस नीति ने एक समय तक पाकिस्तान को फायदा पहुँचाया, लेकिन वह दाँव अब उल्टा पड़ रहा है।
सत्ता में चाहे कोई भी पार्टी हो, अमेरिकी प्रशासन लगातार इस बात पर सहमत रहा है कि अमेरिका को चीन से खतरा है। भारत के साथ अमेरिका की साझेदारी इस रणनीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रही है। अमेरिका को भारत के संरक्षणवाद पर आपत्ति है, जबकि भारत मानता है कि अमेरिका हमें विकासशील देश के रूप में स्वीकार करे। अमेरिका में भारत के इस नज़रिए की अभी बहुत कम समझ है। भारत की विकासशील अर्थव्यवस्था अभी संधिकाल में है। ऐसे में यह उम्मीद नहीं रखनी चाहिए कि चीन के खिलाफ भारत तत्काल संतुलन पैदा कर देगा।
यह आलेख आवाज द वाईस नामक वेबसाइट से प्राप्त किया गया है। लेखक एक प्रतिष्ठित अखबार के संपादक रह चुके हैं। आलेख में व्यक्ति विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।