गौतम चौधरी
जिस प्रकार अरबी भाषा के बिदत शब्द को आज विवादस्पत बना दिया गया है उसी प्रकार कुछ स्वार्थी तत्वों ने इस्लाम के दो पाक शब्द-हिजरत और जिहाद को भी विवादों के कठघरे में लाकर खड़ा कर दिया गया है। आज के अस्थिर समय में, जब धार्मिक भाषा का उपयोग राजनीतिक या हिंसक उद्देश्यों के लिए किया जा रहा है, ऐसे में हिजरत (ईश्वर की खातिर प्रवास) और जिहाद (अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए युद्ध) जैसे पवित्र इस्लामिक शब्द व सिद्धांतों को सबसे ज़्यादा गलत तरीके से पेश किया जा रहा है। चरमपंथी संगठनों, विशेष रूप से इस्लामिक स्टेट ने इन पवित्र शब्दों को हथियार बना लिया है, इनकी आध्यात्मिक और कानूनी वास्तविकता को बिगाड़ कर, रक्तपात को वैध ठहराने और दुनियाभर के भोले-भले धर्मानुयायियों को अपनी ओर खींचने के लिए इस्तेमाल किया है।
सच पूछिए तो हिजरत की गलत व्याख्या मुसलमानों के साथ किया जा रहा सबसे बड़ा धोखा है। इस्लामी शरीअत में हिजरत का अर्थ है – एक ऐसे देश से इस्लामी देश की ओर प्रव्रजन यानी प्रवासन करना है, जहां धार्मिक रूप से दबाव हो या इस्लाम का पालन करना संभव न हो।
इस मामले में इस्लाम के विभिन्न फिरकों के विद्वानों में मतभेद तो है लेकिन सारे विद्वान इस विषय पर एकमत हैं कि जिस राजनीतिक सीमा में इस्लाम के खिलाफ माहौल है वहां से निकल कर इस्लाम के आदर्शों के पालन की छूट हो वहां जाना सचमुच का हिजरत है। हिजरत के बारे में बरेलवी फिरके के महान विद्वान स्व. करिमुला खान साहब के बड़े बेटे मुफ्ती तुफैल खान कादिरी साहब फरमाते हैं, ‘‘इस्लाम के पवित्र ग्रंथ में अल्लाह कहता है – ‘और जो कोई अल्लाह के लिए हिजरत करेगा, वह धरती पर बहुत-सी जगहें और समृद्धि पाएगा…’ (अन-निसा: 100) लेकिन हिजरत के नए व्याख्याकारों में से आज जो लोग अपने घरों को छोड़कर इस्लामिक स्टेट जैसे संगठनों में शामिल होने के लिए अपने मूल बतन को छोड़े, वे न तो किसी धार्मिक अत्याचार के शिकार थे और न ही वे काफ़िर देशों से पलायन कर रहे थे। उलट जिस देश से वे इस्लामिक स्टेट के लिए लड़ने गए उसमें से अधिकांश तो धार्मिक मान्यताओं और नियमों के आधार पर घोषित रूप से इस्लामिक हैं। कादिरी साहब बताते हैं कि ऐसे लोगों को मुहाजिर कहना शरीअत की गंभीर अवहेलना है।’’
कादिरी साहब एक कदम और बढ़ते हैं और कहते हैं, ‘‘यह कहना कि ये वही लोग हैं, जिनके बारे में कुरान में कहा गया है – ‘वास्तव में जो लोग ईमान लाए, हिजरत की और अल्लाह के रास्ते में जिहाद किया, वही लोग अल्लाह की रहमत की आशा रखते हैं…(अल-बकरा: 218), यह इन आयतों का गलत इस्तेमाल है। ये आयतें पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) के उन साथियों के बारे में थीं जो सच्चे दिल से अल्लाह की राह में त्याग कर चुके थे। चरमपंथी खुद को ही सच्चा मुसलमान बताते हैं और दूसरों पर कुफ़्र का फतवा लगाते हैं। लेकिन कुरान साफ कहता है, ‘‘तो अपने आपको पाक बताने (शेखी बघारने) की कोशिश न करो। अल्लाह भली-भांति जानता है कि कौन उसका डर रखता है।’’(अन-नं 32)
इसी तरह जिहाद को लेकर भी कई प्रकार की गलतफहमी फैलाई गई है। कादिरी साहब बताते हैं कि कुछ गुटों का दावा है कि जिहाद हर मुसलमान पर हर समय फ़र्ज़ अईन (व्यक्तिगत दायित्व) है, जबकि असल में जिहाद केवल कुछ खास परिस्थितियों में ही व्यक्तिगत दायित्व बनता है, जैसे-दुश्मन द्वारा मुस्लिम भूमि पर आक्रमण या शरीअत-सम्मत नेता द्वारा जंगी आदेश। वरना यह एक सामूहिक दायित्व (फ़र्ज़ किफ़ाया) होता है। जैसा कि कुरान कहता है, ‘‘यह आवश्यक नहीं कि सारे ईमानवाले एक साथ (युद्ध के लिए) निकल खड़े हों…‘‘ (अत-तौबा: 122)। सबसे चिंता की बात यह है कि इस्लामिक स्टेट या बोको हरम जैसे संगठनों के द्वारा विदेशी लड़ाकों को जानबूझकर लक्ष्य बनाया जाता है। उन्हें स्थानीय लोगों से अलग रखा जाता है। गलत जानकारी दी जाती है और कई बार आत्मघाती हमलों के लिए मजबूर किया जाता है।
सच बताएं तो अब वक्त आ गया है कि मुसलमान इन पवित्र शब्दों को केवल और केवल धार्मिक मायने में ही समझने कोशिश करें। उन्हें यदि समझ में नहीं आ रहा है तो इस्लाम के मान्यता-प्राप्त मौलवियों से संपर्क करें। हमारे देश में कई फिरके के मुसलमान रहते हैं और लगभग सभी फिरकों में जानकार भरे पड़े हैं। इस बात की तसल्ली से व्याख्या करने में देवबंदी फिरके के जानकार भी अहम भूमिका निभा रहे हैं। इस मामले में गैर मुसलमानों को भी संयम रखने की जरूरत है। वे कम से कम सोशल मीडिया के प्रचार से परहेज करें। इस प्रकार के लगभग सभी प्रचार हमारे पड़ी मुल्क के द्वारा प्रायोजित होता है। यदि सही जानकारी चाहिए तो प्रमाणिक धर्मिक ग्रंथों का अध्ययन करें या फिर विद्वान मौलवियों से शंका का समाधान करें।
कुल मिलाकर हिजरत, एक आध्यात्मिक यात्रा है, अव्यवस्था और खून-खराबे की नहीं। जिहाद, न्याय और रक्षा का प्रयास है, हिंसक संघर्ष का नहीं। इस्लाम के पवित्र ग्रंथ, कुरान और सही इस्लामी परंपरा हमारे आधुनिक समाज को संतुलन, दया और स्पष्ट मार्गदर्शन की ओर प्रेरित करता है। इसमें मुसलमानों की तो भलाई है ही, गैर मुसलमानों का भी भला होगा। खासकर मुसलमानों को इन्हीं शिक्षाओं पर लौटकर इस्लाम की वास्तविक छवि को बहाल करना चाहिए न कि व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए चरमपंथ का सहारा लेने वालों का समर्थन करना चाहिए।
