गौतम चौधरी
धर्म, संप्रदाय, संस्कृति और धर्म के द्वारा बनाए हुए नियम इंसानी जिंदगी की खुशहाली के लिए बनाए गए हैं। अमूमन प्रत्येक धर्म अपने आदेशों में मानव कल्याण की ही शिक्षा देता है। इस्लामिक साहित्यों की यदि बात करें तो उसमें भी इंसानियत की भलाई के सैंकड़ों आदेश मौजूद हैं। यहां तक कि किसी दूसरे इंसान को पीड़ा न पहुंचे उसके लिए इस्लाम के पवित्र ग्रंथों में व्यापक आदेश देखने को मिलते हैं। इस्लाम के जानकारों का तो यहां तक कहना है कि इतरा कर चलने से भी यहां मना किया गया है। यह परमपिता परमात्मा जिसे इस्लाम में अल्लाह की संज्ञा दी गयी है को पसंद नहीं है। जहां एक ओर इस्लामिक चिंतन में जमीन पर फसाद करने वालों की निंदा की गई है, वहीं दूसरी तरफ किसी बेगुनाह का कत्ल करने वाले को सारी इंसानियत का कातिल कहा बताया गया है। इस्लामिक दुनिया के पवित्र ग्रंथों के सारे के सारे आदेशों के पीछे जनकल्याण की भावना निहित है और यही वजह है कि सारी जिंदगी अहले मक्का का जुल्म सहने के बाद, फतह मक्का के अवसर पर बदला लेने के सर्वसम्मत कानून के मौजूद होने के बाद भी पैगंबर हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने जुल्म करने वालों को आम माफी का ऐलान कर दिया था। यह ज्ञात दुनिया के इतिहास का सबसे बड़ी माफी थी।
भारत एक पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य है। यहां के संविधान में सभी धर्मों और जातियों को समान अधिकार और अवसर दिए जाने की बात कही गयी है। समान नागरिक संहिता जिसे यूनिफॉर्म सिविल कोड (UCC) भी कहा जाता है, भारत के संविधान निर्माताओं द्वारा, उसे आने वाले समय में, लागू करने की बात की गई थी। देश आजाद होने के 75 साल बाद अब शायद यही उपयुक्त समय है कि देश में समान नागरिक संहिता को लागू किया जाए। सबसे पहले तो हमें इस बात को समझना होगा कि समान नागरिक संहिता किसी भी रूप में धर्म के सिद्धांतों के विपरीत नहीं है। इस्लाम के कई व्याख्याकार, जिसमें सूफी खानकाह एसोसिएशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष सूफी मोहम्मद कौसर हसन मजीदी भी शामिल हैं, का मत है कि तात्कालिक परिस्थितियों के आधार पर पहले में इस्लामिक कई पारंपरिक नियम और कानून में परिवर्तन किए गए हैं। इसकी इस्लाम इजाजत भी देता है। यह इंसानियत के भलाई पर आधारित सिद्धांत की वकालत करता है। इस्लाम कहता है कि ऐसे मुल्क में जहां मुख्तलिफ नजरिया मजाहिब और फिक्र के लोग रहते हैं, उन सब पर एक कानून की हुकूमत होना चाहिए।
समान नागरिक संहिता नागरिकों को समान रूप से फौजदारी और दीवानी विधि के दायरे में लाना चाहती है। भारतीय दंड संहिता और दूसरी दंड विधियों के द्वारा दांडिक विधि समस्त भारत में, समान रूप से लागू है और बहुत से दीवानी मामलों में भी, समान नागरिक संहिता के ही तरह के नियम हैं। मसलन सरकारी नौकरी में, समान रूप से नियम लागू हैं।
भारत सरकार के जिम्मेदार अधिकारियों ने दावा किया है कि समान नागरिक संहिता के द्वारा धर्म के आंतरिक मामलों में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जा रहा है। ऐसे में यूनिफॉर्म सिविल कोड का विरोध मात्र एक राजनीतिक स्टंट के अतिरिक्त कुछ और नहीं है। संविधान की दुहाई देने वाले प्रतिपक्षी नेता फिर राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता से ग्रस्त लोग संविधान सभा के उस निर्णय को क्यों नकारते हैं जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड की रचना की जायेगी। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जिस शाहबानो केस के निर्णय के बाद देशव्यापी बवाल के बाद न सिर्फ तत्कालीन सरकार ने उच्चतम न्यायालय के निर्णय को बदलने के लिए कानून तक बना डाला, उसका लाभ क्या हुआ? जबकि 2010 में उच्चतम न्यायालय द्वारा एक व्यवस्था देते हुए तलाकशुदा महिला को उसके विवाह होने तक अथवा आजीवन गुजारा भत्ता देने का आदेश पारित किया गया है। ऐसे बहुत से व्यक्तिगत विधियों के उदाहरण हैं, जिनमें नागरिकों को समान कानूनों के अधीन ही रहना होता है।
कुछ लोगों के द्वारा समानता के अधिकार की प्रतीक समान नागरिक संहिता का विरोध किया जाना हास्यास्पद लगता है। जो लोग इसका विरोध धर्म और आस्था के नाम पर कर रहे हैं, उनके द्वारा कोरोना काल में सभी धर्मों के धार्मिक स्थल पर उपासना मर्यादित करने का इन कथित लोगों ने समर्थन किया था और तर्क दिया था कि पहले मानव जीवन को बचाना परम आवश्यक है और सभी को लॉकडाउन का पालन करना चाहिए। तो आज इन कथित लोगों द्वारा यूनिफॉर्म सिविल कोड का विरोध क्यों किया जा रहा है। यह स्पष्ट करता है कि यह मामला मात्र राजनीति है। यह एक दल विशेष को लेकर भ्रम फैलाना मात्र है। जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है। समान नागरिक संहिता सभी धर्मों के लोगों को समान अधिकार दिलाने के लिए ही है, न कि किसी विशेष धर्म के खिलाफ।