ट्रम्प टैरिफ : चरखा बनाम साम्राज्यवाद

ट्रम्प टैरिफ : चरखा बनाम साम्राज्यवाद

अभी हाल ही में अमेरिका ने भारत के टेक्सटाइल, जेम्स-ज्वेलरी, लेदर, फुटवियर और सी-फूड्स पर 50 फीसदी का अतिरिक्त टैरिफ लगा दिया है जो पहले के मात्र 3 फीसदी से कहीं ज्यादा है। ऐसे में सवाल उठता है कि भारत इसका मुकाबला कैसे करे हालांकि भारत के प्रधानमंत्री ने इसकी तैयारी काफी पहले से शुरू कर दी थी। अपने कार्यकाल की शुरुआत से ही उनका मिशन मेक इन इंडिया, आत्मनिर्भर भारत और अब स्वदेशी की अपील इसी रणनीति का विस्तार है। कुछ वर्ष पूर्व जब प्रधानमंत्री मोदी खादी उत्सव में शामिल होकर साबरमती किनारे चरखा चला रहे थे, तब वह केवल लघु उद्योगों को बढ़ावा देने की औपचारिकता नहीं थी बल्कि गांधी के उस संकल्प की प्रासंगिकता को दोहराने का प्रतीक भी था। यह संदेश था कि खादी केवल एक वस्त्र नहीं बल्कि स्वदेशी का विचार है और चरखा उसका मिशन।

आज जो स्थिति ट्रम्प टैरिफ से बनी है, वैसी ही और उससे भी भयावह परिस्थिति अंग्रेजों के समय आई थी जब ब्रिटेन के व्यापारियों ने भारत के टेक्सटाइल निर्यात को लगभग ख़त्म कर दिया था। अंग्रेजों ने भारतीय कपड़ा उद्योग को यूरोपीय बाजार में ऊँचे टैरिफ और अपने सस्ते माल से नष्ट कर दिया था। उस दौर में स्वदेशी अभियान के तहत शुरू हुआ चरखा मिशन औद्योगिक क्रांति के बाद उभरे यूरोपीय साम्राज्यवाद और बड़े कारखानों के एकाधिकार के जवाब में सनातन अर्थशास्त्र आधारित कारगर कदम था। इतिहास गवाह है इसने न केवल ब्रिटेन की सत्ता को चुनौती दी, उनकी आर्थिकी की नींव भी हिला दी. इस अभियान ने भारत के हर घर को रोजगार और आर्थिक स्वावलंबन का मार्ग भी दिया। चरखा केवल कपड़ा बुनने का साधन नहीं था, बल्कि ब्रिटेन के निर्यात को घटाने और उसकी अर्थव्यवस्था पर प्रहार करने का एक सुनियोजित औजार भी था। हम अपना कपडा ही नहीं सिल रहे थे, हम जितना सिल रहे थे, उतना ही ब्रिटेन का निर्यात कम और उसकी इकॉनमी पर मारक चोट कर रहे थे, हम साम्राज्य की आँखों में बिना कुछ कहे आंखों में आँखें डाल कर बात कर रहे थे।

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान लिए गए निर्णय सुविचारित और दूरगामी सोच पर आधारित थे। इन्हीं में से एक था चरखा और खादी का आंदोलन। गांधी का चरखा अभियान तत्कालीन ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था पर सीधा प्रहार था। आज के ट्रम्प टैरिफ युग में भी यही चरखा स्वदेशी की अपील है. मोदी की यह अपील स्वदेशी आधारित आत्मनिर्भरता, स्वअनुशासन, मितव्ययिता और सार्वजनिक जीवन के लिए एक नजीर बन सकता है। ट्रम्प टैरिफ का मुकाबला करना है तो हमें आजादी के समय ब्रिटिश साम्राज्यवाद से हुई हमारी अर्थ की लड़ाई को भी पढ़ना पड़ेगा, तभी हम इस टैरिफ से भी लड़ सकते हैं.

इतिहास पर नजर डालें तो पंद्रहवीं शताब्दी के अंत में वास्कोडिगामा के आगमन ने भारत और यूरोप के बीच व्यापार का नया समुद्री मार्ग खोला। इसी रास्ते से पुर्तगाली, डच, फ्रांसीसी और अंग्रेज भारत आए और कारखाने स्थापित किए। उन्हें भारत के रेशम और कपास ने आकर्षित किया। इसी लालच में 1608 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी भारत आई, जो मसाले, कपास और रेशम का व्यापार करती थी। गांधी खादी के माध्यम से अंग्रेजों के इसी लालच की जड़ पर प्रहार करना चाहते थे।

सत्रहवीं शताब्दी में भारत से कपास का निर्यात तेजी से बढ़ा। गाँवों में बुने कपड़े व्यापारी बंदरगाहों तक पहुँचाते और वहीं से निर्यात होता। भारतीय छपाई वाले कपड़े इंग्लैंड और यूरोप में अत्यधिक लोकप्रिय थे। यहाँ तक कि इंग्लैंड की रानी तक भारतीय वस्त्र पहनती थीं। इस बढ़ती लोकप्रियता से परेशान होकर इंग्लैंड के स्थानीय उद्योगपतियों ने भारतीय आयात का विरोध शुरू कर दिया। परिणामस्वरूप 1730 के दशक में इंग्लैंड का पहला वस्त्र उद्योग स्थापित हुआ जिसने भारतीय डिज़ाइनों की नकल की और भारतीय वस्त्रों का बाजार समाप्त कर दिया।

18वीं शताब्दी तक वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत की हिस्सेदारी 23 प्रतिशत थी जो पूरे यूरोप के बराबर थी लेकिन जब अंग्रेज भारत छोड़कर गए तो यह केवल 3 प्रतिशत रह गई। वस्त्र उद्योग इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि कैसे अंग्रेजों ने सुनियोजित साजिश से भारतीय अर्थव्यवस्था को नष्ट किया। औद्योगिक क्रांति और तकनीकी आविष्कारों ने ब्रिटेन को वाणिज्यिक और साम्राज्यवादी ताकत बना दिया। भारत से आयातित वस्त्रों पर ऊँचे शुल्क लगा दिए गए जबकि अंग्रेजी माल भारत में लगभग शुल्क-मुक्त प्रवेश करता था। परिणामस्वरूप हजारों भारतीय बुनकर और कारीगर बेरोजगार हो गए। भारत, जो कभी वस्त्रों का सबसे बड़ा निर्यातक था, धीरे-धीरे कच्चा माल निर्यात करने वाला और तैयार माल आयात करने वाला देश बन गया।

गांधी ने इस अन्याय को भांप लिया था। उन्होंने कपड़ा उद्योग को अंग्रेजों की नब्ज माना और उसी पर चोट करने का निश्चय किया। हाथ से काता और बुना कपड़ा खादी के उपयोग को उन्होंने लोकप्रिय बनाया। यह न केवल स्वराज और आत्मनिर्भरता का प्रतीक बना बल्कि अंग्रेजों की अर्थव्यवस्था पर सीधा आघात भी। चरखा उस समय औद्योगिक साम्राज्यवाद के खिलाफ सबसे बड़ा प्रतीक बन गया। ठीक वैसी ही अपील आज प्रधानमंत्री मोदी कर रहे हैं।

आज अमेरिकी कंपनियाँ भारत में न केवल विदेशी ब्रांड ही नहीं बेच रही हैं बल्कि यहाँ यूनिट या दुकानों की चेन खोलकर सस्ता माल खरीदकर हमें ही महँगे दामों पर बेच रही हैं। चाहे फूड चेन होंकृस्टारबक्स, डोमिनोज़, मैकडोनाल्ड्सकृया अन्य उपभोक्ता उत्पाद या सेवा क्षेत्र की कंपनियां, वे मोटा मुनाफा कमाकर विदेश ले जा रही हैं। ग्लोबल कानूनों की बाध्यता के कारण भारत सरकार उन्हें रोक नहीं सकती लेकिन गांधी के चरखे की तर्ज पर उपभोग का निर्णय हमारे भारत की जनता की हाथों में है। यदि हम विदेशी वस्तुओं की खरीद कम करें और स्वदेशी का उपभोग बढ़ाएँ तो बिना किसी सरकारी हस्तक्षेप के ही अमेरिका को अपने टैरिफ पर पुनर्विचार के लिए मजबूर किया जा सकता है। इस लड़ाई को सरकार अकेले नहीं लड़ सकती. उसे हमारा साथ चाहिए. सीमा पर सैनिक तो देश के अंदर हमें लड़ना पड़ेगा. अगर हम चार सौ की कॉफी पीते हैं तो उसमें से 100 रुपया हम उस ट्रम्प को दे देते हैं जो कई रूपों में हमें टैरिफ के हथौड़े मार रहा है. महत्तम स्वदेशी और न्यूनतम विदेशी ही इस लड़ाई का हथियार है और वह हथियार हमारे ही पास है.

आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।

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