कोरोना पर काबू पाने में विफल रही केंद्र सरकार, दूसरी लहर ने ऐसी तबाही मचाई कि मध्ययुग का बर्बर दौर याद आ गया

कोरोना पर काबू पाने में विफल रही केंद्र सरकार, दूसरी लहर ने ऐसी तबाही मचाई कि मध्ययुग का बर्बर दौर याद आ गया

रुचिर शर्मा

पिछले महीने जब देश में महामारी चरम पर पहुंच रही थी, ऐसे वक्त में भी करीब 15 करोड़ लोगों ने पांच राज्यों के चुनावों में मतदान किया। सत्ताधारी भाजपा चाहती थी कि मतदान कई चरणों में हो, ताकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ज्यादा से ज्यादा जगहों पर दिखें। इसी वजह से अकेले पश्चिम बंगाल में पीएम मोदी ने 24 बार दौरे किए।

शायद ही किसी दल ने एक राज्य की सत्ता पाने के लिए इतना कड़ा संघर्ष किया होगा, जितना कि भाजपा ने बंगाल के लिए किया। पार्टी ने अपनी पूरी राजनीतिक मशीनरी और भारी-भरकम फंड के साथ कार्यकर्ताओं की फौज राज्य के दंगल में उतारी थी। लेकिन रविवार को अंतिम नतीजों से साफ हो गया कि इतनी कोशिशों के बाद भी वे बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को सत्ता से बेदखल नहीं कर पाए। दरअसल चुनाव में बाद के चरणों में कोरोना देश में बेकाबू हो चला गया था और ऐसे हालात में भाजपा की रफ्तार मंद पड़ गई थी।

पिछले करीब छह हफ्तों में देश ने कोरोना के मामलों में ऐसा जबरदस्त उफान देखा, जो शायद ही किसी दूसरे देश में दिखा हो। आधिकारिक आंकड़े ही मामलों में 12 गुना बढ़ोतरी बता रहे हैं, असल आंकड़े तो इससे भी ज्यादा डरावने होंगे। इस स्तर का संकट दुनिया के सबसे अच्छे हेल्थ केयर सिस्टम वाले देश को भी संकट में डाल सकता है।

इस आपदा ने भारत की पहले से ही तहस नहस व्यवस्था को दुनिया के सामने उजागर कर दिया है। यूं तो इटली और फ्रांस जैसे कुछ विकसित देशों ने भी कोरोना की नई लहर में मरीजों की संख्या में तेज बढ़त देखी, लेकिन उन्होंने पहली लहर से सबक लेकर अपने हेल्थ सिस्टम को नए खतरे के लिए तैयार कर लिया था। इसलिए ये देश पहली लहर की तुलना में मौतों की दर कम रखने में सफल रहे। इसके उलट, भारत में दूसरी लहर तबाही के ऐसे दृश्य लाई, जिसने मध्ययुग के बर्बर दौर की याद दिला दी।

जब मैंने वीडियो क्लिप में देखा कि क्षमता से ज्यादा भरे अस्पताल गेट बंद कर रहे हैं और इलाज के लिए भटक रहे मरीजों को मरने के लिए छोड़ रहे हैं तो मैं बुरी तरह डर गया और मुझे अपने दादाजी के साथ हुआ वाकया याद आ गया। ऐसी ही परिस्थितियों में हार्ट अटैक से उनका निधन हुआ था।

हम उन्हें एक सरकारी अस्पताल ले गए थे। वहां नाइट ड्यूटी पर कोई डॉक्टर नहीं था। उन्हें बचाने की भरसक कोशिश की गई, पर पेसमेकर लगाने में सफलता नहीं मिली। यह बात 1993 की है। लेकिन उसके बाद भी बहुत कम तरक्की हुई है।

दुनिया के 25 उभरते बाजारों में शामिल भारत 1,000 मरीजों के लिए अस्पताल में मौजूद बिस्तरों के मामले में आखिरी पायदान पर है। यही स्थिति डॉक्टर, नर्स और दवाइयों को लेकर है। अगर अमीर देशों को छोड़कर तुलना करें तो भी भारत की प्रति व्यक्ति आय 1,000 से 5,000 डॉलर है, जो कमोबेश पाकिस्तान और बांग्लादेश के बराबर ही है। भारत आज भी बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में औसत दर्जे पर है। भारत अपनी जीडीपी का 30ः से ज्यादा खर्च करता है। इसलिए समस्या भारत के आकार को लेकर नहीं है, बल्कि वह खर्च कैसे करता है, इस बात पर है।

जब 2014 में मोदी सत्ता में आए थे तो उन्होंने अपने पूर्ववर्तियों के लोकलुभावनवाद का मखौल उड़ाया। पर कुछ ही सालों में उन्होंने भी रसोई गैस, खाद्यान्न से लेकर मकान तक मुफ्त देने के वादे करने शुरू कर दिए। आज कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च देश की जीडीपी का 9ः है। ये उन करिश्माई अर्थव्यवस्थाओं (दक्षिण कोरिया और ताइवान) की तुलना में कहीं ज्यादा है, जिनका अनुकरण भारत करना चाहेगा। जबकि उनके विकास के स्तर समान हैं।

पीएम मोदी ने खुद को देश के रक्षक के तौर पर पेश किया था, जो हर समस्या का समाधान करेंगे। पर यह हकीकत है कि फॉर्मूला-1 का ड्राइवर, एंबेसडर (देश की पुरानी कारों में से एक) में कमाल नहीं दिखा सकता। वास्तविकता यह है कि भाजपा अब शासन का बेहतर मॉडल पेश करने का दावा नहीं कर सकती। यह कमी चुनावों में दिखने लगी है।

अच्छी बात यह है कि महामारी के दौर में देश के निजी समूह मदद देने में जुट गए हैं, जो सरकार नहीं दे पाई। प्रवासी विदेश से पैसे और मेडिकल जरूरतों के सामान भेज रहे हैं। रहवासी संघ पड़ोसियों की सेहत संबंधी मदद कर रहे हैं। देश का स्टॉक मार्केट शायद ही मौतों के बढ़ते आंकड़ों से विचलित हुआ। ऐसा संभवतरू इसलिए हुआ क्योंकि सबका अनुमान यही था कि भारत इस संकट से भी बचा रहेगा, लेकिन यह नेताओं और पुराने ढर्रे पर चल रहे राज्यों के कारण नहीं होगा।

मोदी ने देश के आधुनिकीकरण के लिए बहुत काम किया है, क्योंकि देश अभी तक उन तौर-तरीकों पर चल रहा था, जो ब्रिटिश शासन काल की याद दिलाते हैं। राज्यों की कई एजेंसियों का मॉडल 1800 के बाद का है और हेल्थकेयर का मॉडल 1940 के करीब का है। पिछली बार चुनावों में मैंने भारत में हजारों किमी का सफर किया। उस दौरान देखा कि कई स्वास्थ्य क्लीनिक स्टाफ की कमी से जूझ रहे हैं।

ऑपरेटिंग रूम में सर्जन नहीं हैं, एक्स-रे मशीन के लिए रेडियोलॉजिस्ट नहीं हैं। इस पर हैरानी नहीं होगी कि अब वे चरमरा गए हैं। पीएम मोदी ने अधिकतम गवर्नेंस का वादा किया था। लेकिन देश के पुराने ढर्रे पर चल रहे राज्यों में सुधार करने के बजाय उन्होंने देश के लोकतांत्रिक इतिहास में पावर का केंद्रीकरण कर दिया।

(दैनिक भास्कर के वेबपेज से सभार।)

(लेखक ग्लोबल इन्वेस्टर एवं समसामयिक आर्थिक विषयों के जानकार हैं। आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। जरूरी नहीं कि प्रबंधन इनके विचार से सहमत हो।)

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