पर्यावरण गांधी सुंदरलाल बहुगुणा, जिन्होंने प्रकृति को ही अपना भगवान मान लिया

पर्यावरण गांधी सुंदरलाल बहुगुणा, जिन्होंने प्रकृति को ही अपना भगवान मान लिया

गौतम चौधरी 

21 मई 2021, जी हां इसी दिन भारत के उस महान विभूति को क्रूर कोरोना ने हमसे छीन लिया, जिसे हिमालय पुत्र और चिपको आंदोलन के प्रणेता के रूप में जाना जाता है। आपने सही समझा, मैं उसी महानतम पर्यावरणविद, स्वतंत्रता सेनानी और कई सामाजिक आंदोलन के सूत्रधार सुंदरलाल बहुगुणा जी की ही बात कर रहा हूं। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में गांधीजी के प्रभाव में आ कर वे आंदोलनकारी बने और गांधीवाद को उन्होंने अपने जीवन में ऐसे समाहित कर लिया कि आखिर तक यह और भी मजबूत होती चली गई।

तत्कालीन उत्तर प्रदेश (अब उत्तराखंड ) के टिहरी जिले के मरूड़ा गांव में 9 जनवरी 1927 को जन्मे सुंदरलाल बहुगुणा का जीवन पर्यावरण, राजनीति, समाज सेवा और पत्रकारिता समेत बहुत सारे अनुभवों को समेटे था। तत्कालीन टिहरी रियासत के एक राजशाही समर्थक परिवार में पैदा हुए बहुगुणा जी की शिक्षा दीक्षा उस वक्त के नामी संस्थानों में हुई थी। वह चाहते तो आसानी से टिहरी रियासत में किसी बड़े पद पर आसीन हो सकते थे, लेकिन उन्होंने सुविधाजनक रास्ता चुनने के बजाय वर्षों से शोषित, पीड़ित आमजन का साथ देने का दुर्गम मार्ग चुना। तेरह साल की उम्र में ही इन्होंने आजादी के आंदोलन में अपनी सहभागिता दर्ज करवानी शुरू कर दी। उन्हीं दिनों टिहरी रियासत के खिलाफ आवाज उठाने पर श्रीदेव सुमन को सींखचों में डाल दिया गया था। सुंदरलाल बहुगुणा उन्हें अपना हीरो मानते थे, इसलिए उनसे मिलने जेल पहुंचे। श्रीदेव सुमन ने तब सुंदरलाल के कान में जो मंत्र फूंका, आजीवन उनकी आत्मा में वह गूंजती रही। सत्रह साल की आयु में ही वे इतने परिपक्व हो चुके थे कि श्रीदेव सुमन जी के विचारों को प्रकाशित कर जन जन में प्रचारित करने लग गए। टिहरी को राजशाही से मुक्ति दिलाने के आंदोलन में खुद को बहुगुणा जी ने समर्पित कर दिया। राजशाही की हिंसा झेली, दमन झेला लेकिन जनपरस्ती का रास्ता नहीं छोड़ा।

ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ देश में जब स्वतंत्रता आंदोलन जोर पकड़ रही थी, साथ ही टिहरी में राजशाही के विरुद्ध आक्रोश भी बढ़ रही थी। सुंदरलाल बहुगुणा इस मुहिम के अगुआ दस्ते में शामिल हो गए। राजशाही के खिलाफ आंदोलनरत प्रजामंडल के वह अग्रणी नेता रहे। इसी वजह से टिहरी राजा के आंख की किरकिरी बने और गिरफ्तार कर लिए गए। पांच माह बाद मरणासन्न अवस्था में उन्हें नरेंद्रनगर के हवालात से रिहा किया गया। श्रीदेव सुमन की 84 दिनों की भूख हड़ताल के बाद जब 1944 में मौत हुई थी, तब टिहरी कांग्रेस के जिला सचिव के तौर पर सुंदरलाल बहुगुणा चर्चा में आने लगे थे।

सुंदरलाल अपनी राजनीतिक सक्रियता जारी रखने की वजह से रियासत के जासूसों के निशाने पर थे। अतः वे वहां से भागकर लाहौर चले गए। लाहौर तब स्वाधीनता की जंग का केंद्र हुआ करता था, स्वाभाविक रूप से बहुगुणा की सक्रियता वहां और तेज हो गई,लेकिन वहां भी वे अंगेजों की नजरों में आ गए। गिरफ्तारी से बचने के लिए बहुगुणा जी ने तब सिख का वेश धारण कर लिया, सिख का नाम रख लिया और एक साल तक ऐसे ही वे वहां रहे।

जिस तरह गांधी जी अफ्रीका के अनुभवों को आत्मसात कर परिपक्व होकर स्वदेश लौटे, उसी तरह आजादी के संघर्ष से तप कर परिपक्वता के साथ बहुगुणा वापस पहाड़ को लौटे। देश आजाद हो चुका था, कुछ ही महीनों बाद टिहरी भी आजाद हो कर भारत वर्ष में समाहित हो गया लेकिन बहुगुणा जी गांधी के समतामूलक विचार से प्रभावित थे और वैसा ही समाज बनाना उनकी प्राथमिकता रही।

किशोरावस्था में उनका वक्त कौशानी में सर्वोदय कार्यकर्ता सरला बहन के आश्रम में भी गुजरा था, वहीं गांधी जी भी आया जाया करते थे और वहीं उनकी चेतना भी विकसित हुई। विमला नौटियाल ( बहुगुणा ) भी सरला बहन की शिष्या थी, वहीं पढ़ी लिखी और कौसानी में सरला बहन के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सर्वोदय के काम में जुटी थी। यहीं पर बहुगुणा की मुलाकात उत्तर भारत के जाने माने कम्युनिस्ट नेता और साहित्यकार विद्यासागर नौटियाल जी की बहन विमला नौटियाल से हुई। विमला शादी से पूर्व ही महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित थी। उन्होंने गांधीजी की अनन्य शिष्या मीरा बेन के साथ लंबा समय महाराष्ट्र के वर्धा स्थित उनके आश्रम में गुजारा। उधर, बहुगुणा भी गांधीजी के अनुयायी थे। मगर, वह राजनीति में आ गए थे और कांग्रेस के तत्कालीन महासचिव की जिम्मेदारी संभाल रहे थे। बाद में बहुगुणा जी की शादी विमला नौटियाल जी के साथ हुई। शादी के बाद सुंदरलाल बहुगुणा जी की जीवन धारा ही बदल गई क्योंकि शादी के लिए विमला जी ने यह शर्त रखी कि शादी के बाद उन्हें राजनीति छोड़कर पूरी तन्मयता से सिर्फ और सिर्फ समाजसेवा का कार्य करना होगा। इसी शर्त से बंधे बहुगुणा ने राजनीति छोड़ 9 जून 1956 को विमला नौटियाल से विवाह कर लिया।

बहुगुणा ने जैसे ही सक्रिय राजनीति छोड़ सामाजिक आंदोलन शुरू किया,पूरे सामाजिक परिवेश में हलचल पैदा हो गई।

अस्पृश्यता, नशाखोरी के खिलाफ टिहरी के सिल्यारा में नवजीवन आश्रम की स्थापना की और समाज को न सिर्फ इससे मुक्ति दिलाने के लिए अभियान चलाया बल्कि वहां पर दलित बचे बच्चियों को शिक्षित करने का काम भी किया। उनकी पत्नी विमला जी सामाजिक कार्यों में कदम से कदम मिलाकर साथ दिया। पलायन की समस्या विकराल रूप ले चुकी थी, जंगलों पर अधिकार की लड़ाई जारी थी। उन्होंने उस दौर में समाज में हाशिए पर खड़े लोगों को सम्मान दिलाने के लिए, छुआछूत विरोधी और दलितों को मंदिर में प्रवेश दिलाने के लिए भारी विरोध झेलने के बावजूद भी जोरदार आंदोलन शुरू किया ,जो काफी सफल भी रहा।

सुंदरलाल बहुगुणा को सारी दुनियां चिपको आंदोलन के लिए जानती है, लेकिन वास्तव ने यह आंदोलन उनके सामाजिक जीवन के संघर्षों में से सिर्फ एक था। 60 के दशक में नशा मुक्ति आंदोलन,70 के दशक में निरंकुश सत्ता से वनों को बचाने का आंदोलन, 80 के दशक में टिहरी और आसपास के गांवों को बचाने का आंदोलन, ऐसे अनेकानेक आंदोलन के वे प्रणेता रहे। बहुगुणा के विरोधी या आलोचक भले यह कहें कि सुंदरलाल टिहरी की लड़ाई जीत न सके, लेकिन सच तो यह है कि उनके ही संघर्ष का यह प्रतिफल है कि टिहरी में पुनर्वास के सवाल को संजीदगी से निपटाने के लिए सरकार मजबूर हुई और देश विदेश में बड़े नदी बांधों के पर्यावरणीय दुष्प्रभावों के खिलाफ जनमत तैयार होना शुरू हुआ।

सुंदरलाल बहुगुणा जी ने पर्यावरण संरक्षण को नया आयाम दिया । सत्तर के दशक में उनका रुद्रप्रयाग प्रवास के दौरान दिया एक नारा लोगों की चेतना का आधार बना।

‘‘क्या है जंगल के उपकार,
मिट्टी, पानी और बयार,
जिंदा रहने के अधिकार।’’

चिपको आंदोलन यूं तो चंडी प्रसाद भट्ट, गौरा देवी और अन्य लोगों द्वारा शुरू की गई थी, लेकिन इसको विश्व पटल पर जगह मिली सुंदरलाल बहुगुणा जी के इस आंदोलन से जुड़ने के बाद ही। हिमालय के ग्लेशियरों की सेहत जानने के लिए प्रख्यात पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा 1978 में गोमुख की यात्रा पर गए। इस दौरान गोमुख में ग्लेशियरों को पीछे हटते देखा, तो हैरान हो गए। फिर क्या था, उन्होंने तत्काल भागीरथी में गोता लगाकर हिमालय और जल संरक्षण का संकल्प ले लिया। इतना ही नहीं, भविष्य में जल संकट के खतरों को भांपते हुए चावलों का भी त्याग कर दिया। क्योंकि उनकी सोच थी कि धान की खेती में ज्यादा जल लगता है। तब से लेकर बहुगुणा ने जीवन में कभी भोजन में चावल नहीं लिया।

हिमालय की महत्ता से यूं तो कोई इंकार नहीं करता , धर्मग्रंथों में भी इसके महिमा का बखान किया गया है,लेकिन बहुगुणा जी ने जल भंडार, ऑक्सीजन और पर्यावरण सुरक्षा में हिमालय के योगदान का महत्व आमजन तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई। अपने इस मुहिम को उन्होंने सिर्फ उत्तराखंड तक सीमित नहीं रखा बल्कि पूरे हिमालयी समाज को जोड़ने और उनकी पर्यावरणीय चिंताओं को एक दूसरे से साझा करने के उद्देश्य से कश्मीर से कोहिमा तक की पदयात्रा भी की।

उनका कहना था कि हिमालय पानी के लिए है, न कि राजस्व के लिए। वे सदा प्रकृति के अविवेकी दोहन के खिलाफ आवाज उठाते रहे।सुंदरलाल बहुगुणा बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। वे न सिर्फ एक स्वतंत्रता सेनानी, कुशल राजनीतिज्ञ, महानतम पर्यारणविद और समाजसेवी थे बल्कि एक सुलझे हुए पत्रकार भी थे। लंबे अरसे तक वे पी टी आई, यू एन आई और हिंदुस्तान टाइम्स से जुड़े रहे। डायरी लेखन भी उनके दिनचर्या का हिस्सा था। खादी ग्रामोद्योग को बढ़ावा देने के साथ ही ग्राम स्वराज की स्थापना करने के लिए बहुगुणा जीवन भर संघर्षरत रहे और महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। बहुगुणा के काम से प्रभावित हो कर अमेरिका की फ्रेंड ऑफ नेचर नमक संस्था ने 1980 में उन्हें पुरस्कृत किया। भारत सरकार की ओर से उन्हें पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया। इसके अलावा भी देश विदेश में उन्हें कई अन्य पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है।

बहुगुणा का सबसे बड़ा योगदान यह रहा कि अपने जीवनकाल में ही उन्होंने अपने प्रदेश के यूवापीढी को पर्यावरण की चिंताओं को लेकर जागरूक बना दिया। वे प्रकृति पर आधारित स्वावलंबी जीवन के बड़े पैरोकार थे और ताउम्र अपने इस दर्शन पर अडिग रहे।

ऐसे महान विभूति को जनलेख की ओर से श्रधांजलि अर्पित करता हूं।

(यह आलेख सोशल मीडिया के इनपुट पर आधारित है।)

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