
त्वरित टिप्पणी
गौतम चौधरी
लाख कोशिश करने के बाद भी भारतीय जनता पार्टी, का वर्तमान नेतृत्व बंगाल फतह करने में असफल रहा। क्यों नहीं कर पाया, इसकी मीमांसा बाद में करूंगा, फिलहाल आगे की राजनीति किस तरह बदलती दिख रही है उस पर चर्चा करना ज्यादा ठीक रहेगा। यदि सब कुछ ठीक रहा तो बहुत जल्द ममता बनर्जी बंगाल की कमान अपने किसी सहयोगी या फिर अपने भतीजे को सौंप राष्ट्रीय राजनीति में दस्तक देगी। ममता बनर्जी अगर केन्द्रीय राजनीति में आती है तो वह देश के वर्तमान किसी भी नेता की तुलना में ज्यादा सफल होगी। हालांकि ममता दीदी की भी अपनी कुछ कमियां हैं लेकिन उन कमियों पर नेतृत्व वाला पलड़ा भारी पड़ेगा।
पश्चिम बंगाल के वर्तमान विधानसभा चुनाव को कुछ लोग गुजराती बनाम बंगाली अस्मिता के साथ भी जोड़ कर देख रहे हैं। उत्तराखंडी पृष्टभूमि के एक गुजराती पत्रकार बसंत रावत इस राजनीतिक लड़ाई की व्याख्या करते हुए बताते हैं, ‘‘एक तरफ जहां गरवी गुजरात वाले हैं वहीं दूसरी तरफ सोनार बांग्ला वाले लोग हैं। वर्तमान राजनीतिक लड़ाई आधुनिक भारत के इन दो उप राष्ट्रवाद के बीच लड़ा जा रहा था। जिस प्रकार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह इस लड़ाई में अपनी भूमिका निभा रहे थे, उससे तो यही लग रहा था कि बंगाली अमिता, जो भारतीय रिणासा काल से प्रभावशाली रहा है, उसको गुजराती राष्ट्रवाद चुनौती दे रहा है।’’ बसंत थोड़ा और आगे बढ़ कर कहते हैं, ‘‘जिस प्रकार का वातावरण देश में बना है, आगे भी कई उपराष्ट्रवाद जो अभी सुसुप्तावस्था में है हिलोरे मारेगा और तब सांस्कृतिक राष्ट्रवाद उन उपराष्ट्रवाद के सामने बौना प्रतीत होगा। इसकी शुरूआत ममता के बंगाली अस्मिता वाले उपराष्ट्रवाद ने कर दी है।’’
बंगाल चुनाव में जबरदस्त वापसी के बाद ममता बनर्जी की ताकत पूरे देश भर में बढ़ने वाली है। अब सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस भी आना-कानी नहीं करेगी। दूसरा, साम्यवादी भी अब ममता बनर्जी के प्रति मुलायम होंगे। जिस प्रकार ममता को बिहार के राष्ट्रीय जनता दल और झारखंड के झारखंड मुक्ति मोर्चा का साथ मिला है, उससे साफ हो गया है कि आने वाले समय में ममता बनर्जी पूरे उत्तर भारत में एक नए प्रकार का राजनीतिक गठबंधन बनाने में सफल होगी। इस गठबंधन में उत्तर प्रदेश के अखिलेश यादव, बिहार के तेजस्वी यादव, झारखंड के हेमंत सोरेन, पंजाब के बादल गुट वाले शिरोमणि अकाली दल, हरियाणा के ओम प्रकाश चौटाला वाली पार्टी इंडियन नेशनल लोकदल, इकट्ठे होंगे।
यही नहीं दक्षिण भारत में भाजपा से खार खाए चंद्रबाबू नायडू भी चुप नहीं बैठेंगे। दक्षिण में द्रविड़ मुनेत्र कषगम, तेलंगाना राष्ट्रवादी पार्टी, वाईएसआर कांग्रेस, जनता दल (सेक्युलर) एक मोर्चा बनाकर ममता बनर्जी के साथ आ सकते हैं। जब यह मोर्चा तैयार हो जाएगा तब कांग्रेस और कम्युनिस्टों की भी मजबूरी हो जाएगी। ऐसी पस्थिति में भले ये दोनों पार्टियां चुनाव अलग-अलग लड़े लेकिन चुनाव के बाद यदि सीटें कम पड़ी तो ममता का ही साथ देंगे। हालांकि ममता बनर्जी के नेता बनने में नवीन पटनायक बराबर से अडंगा लगाते रहे हैं लेकिन इस बार ममता भाजपा विरोधी मतों के केन्द्र में आ जाएगी। यदि वह देश में नेता के रूप में उभरती है तो उसे देश भर में समर्थन प्राप्त होगा।
कुल मिलाकर देखें तो 2021 का यह चुनाव 2024 के संसदीय आम चुनाव की पृष्टिभूमि तैयार कर रहा है। इस चुनाव में भाजपा माने या न माने लेकिन वह साफ तौर पर कमजोर दिख रही है। क्योंकि असम में भी भाजपा नेतृत्व बहुत बढ़िया प्रदर्शन नहीं कर पायी है। दूसरी बात यह है कि कोरोना महामारी की दूसरी लहर में केन्द्र सरकार के स्वास्थ्य प्रबंधन में कमी और वैक्सीनेशन अभियान में गतिरोध के कारण केन्द्र सरकार के प्रति जनता का आक्रोश साफ दिखने लगा है। किसान आन्दोलन ने बड़ी तेजी से ग्रामीण भारत की मानसिकता बदली है। जो बड़े किसान भाजपा के साथ थे वे अब भाजपा का साथ छोड़ने लगे हैं। मंहगाई, बेरोजगारी और खुदरा बाजार में विदेशी पूंजी की पहुंच के कारण भाजपा का सबसे बड़ा समर्थक शहरी मध्यम एवं निम्न मध्यम वर्ग लगातार भाजपा से दूर होता जा रहा है। ऐसे में 2024 का संसदीय आम चुनाव में यदि ममता बनर्जी जैसा कोई प्रभावशाली नेतृत्व देश के सामने आया तो स्थिति बदल जाएगी। ममता बनर्जी में वह दम है। संयुक्त प्रतिपक्ष का वह नेतृत्व करने में कितना सक्षम होगी यह तो समय बताएगा लेकिन यदि वह ऐसा कर पायी तो ममता बनर्जी भाजपा के लिए बड़ी चुनौती बनकर उभरेगी।