बंगाल की हालिया हिंसा तृणमूल के 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी का हिस्सा है

बंगाल की हालिया हिंसा तृणमूल के 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी का हिस्सा है

पंकज सिंहा

इन दिनों पश्चिम बंगाल पूरे देश भर में चर्चा का विषय बना हुआ है। दीदी यानी ममता बनर्जी की जीत के बाद से हर कोई अपने-अपने ढंग से प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा है। भारतीय जनता पार्टी कार्यकर्ताओं पर तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के द्वारा हमले को लेकर एक नई बहस प्रारंभ हो गयी है। इस बहस के केन्द्र में हिंसा है, जिसका लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं है। पश्चिम बंगाल की इस रक्तरंजित हिंसा की पटकथा तो 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान ही लिखी गयी थी, जब कोलकाता में तत्कालीन भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष, अमित शाह के रोड शो के दौरान जिस तरह बड़े पैमाने पर हिंसा हुई और ममता बनर्जी ने इसे दिल्ली के खिलाफ आंदोलन का नाम देकर इसे जायज ठहराया। और तो और अभी हाल ही में संपन्न पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में भी उन्होंने कहा कि चुनाव के बाद केन्द्रीय सुरक्षा बल जब चली जायेगी तब तृणमूल कांग्रेस का समय आएगा और अब परिणाम सामने है। क्योंकि तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को शासन-प्रशासन की शह मिली हुई है।

ममता बनर्जी ने परिवर्तन का नारा देकर सत्ता संभाली थी तो यह लगा था कि वह सचमुच कुछ तब्दीली लाएंगी लेकिन अपने मनमाने शासन से उन्होंने प्रदेश के साथ देश को भी निराश करने का काम किया है। यह हैरानी की बात है कि वाम दलों के कुशासन और उनकी अराजकता का सामना करने वालीं ममता बनर्जी उन्हीं के रास्ते पर चल रही हैं। दरअसल, इसी कारण राज्य में वैसी ही चुनावी हिंसा देखने को मिल रही है, जैसी वाम दलों के शासन काल में दिखती थी। यह एक विडंबना ही है कि लोकतांत्रिक मूल्यों और मान्यताओं को ठेंगा दिखा रहीं ममता बनर्जी खुद को प्रधानमंत्री पद का दावेदार साबित कर रही हैं।

2 मई को मतगणना शुरू हुई, तो जब तक भारतीय जनता पार्टी सत्ताधारी तृणमूल को चुनौती देते नजर आई, तब तक शांति बनी रही जैसे ही रुझानों में तृणमूल कांग्रेस पार्टी भारी अंतर से भारतीय जनता पार्टी को हराते हुए दिखने लगी, पूरे परिणाम आने से पहले ही ‘खेला होबे’ पर मदमस्त तृणमूल कार्यकर्ताओं ने मारकाट, आगजनी, हत्या और दुव्र्यवहार शुरू कर दिया। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में अप्रत्याशित सफलता प्राप्त करने वाली भाजपा, ममता बनर्जी को पूरी ताकत से चुनौती देती दिख रही थी, इसीलिए राष्ट्रीय मीडिया की दिलचस्पी बंगाल में बहुत ज्यादा थी और यही वजह रही कि बंगाल में परिवर्तन की उम्मीद से नजर गड़ाए बैठे राष्ट्रीय मीडिया के जरिये बंगाल में हिंसा की खबरों ने समूचे देश को हिलाकर रख दिया।

राष्ट्रीय मीडिया के अलावा इंटरनेट मीडिया के विभिन्न मंचों के जरिये भी बंगाल का हिंसक राजनीतिक परिदृश्य देश को पीड़ा दे रहा था। बंगाल में नारे, नेता, राजनीतिक दल और सत्ता बदलती रही लेकिन राजनीतिक हिंसा रक्तरंजित बंगाल का स्थाई भाव बन गया है। जब तक पूरे चुनावी नतीजे आते, बंगाल से करीब एक दर्जन भाजपा कार्यकर्ताओं का जीवन राजनीतिक हिंसा में खत्म होने की खबर आ गई। कई जिलों से भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोगों के पलायन की खबरें भी आने लगीं। आठ चरणों में चुनाव कराने के चुनाव आयोग के निर्णय को राजनीति से प्रेरित बताने वालों के लिए यह करारा तमाचा पड़ने जैसा था। बंगाल के अलावा कहीं से कोई सामान्य विवाद की भी खबर नहीं आ रही थी। इस सबके बावजूद राष्ट्रीय मीडिया, विशेषकर अंग्रेजी मीडिया का एक बड़ा हिस्सा बंगाल में लोगों के जानमाल के नुकसान को खबर मानने को भी तैयार नहीं था। कोलकाता से छपने वाले एक बड़े अंग्रेजी अखबार के सत्ता विरोधी रुख को लेकर देश में बहुत चर्चा होती है, लेकिन बंगाल में हुई हिंसा की खबरों को दबाने से यह स्पष्ट हो गया कि सारी रचनात्मकता केवल मोदी विरोध तक सीमित है।

नक्सल आंदोलन, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने बंगाल में वर्ष 1967 में नक्सलबाड़ी से हिंसक राजनीतिक विरोध की शुरुआत की थी। तत्कालीन सरकार ने हिंसक हो चुके नक्सलबाड़ी आंदोलन पर पुलिस बल का प्रयोग करके उसे कुचलने का प्रयास किया और उसके बाद कांग्रेस और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के बीच शुरू हुई राजनीतिक हिंसा की बेहद खराब परंपरा बंगाल में पड़ी जो आज तक जारी है। वर्ष 1972-77 के दौर में कांग्रेस सरकार के दौरान नक्सलियों और सरकार के बीच संघर्ष बहुत बढ़ गया था। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की अगुआई में वामपंथी पार्टियों ने हिंसक राजनीति को सत्ता परिवर्तन का जरिया बनाया। इसके बाद वर्ष 1977 में राज्य में वामपंथी पार्टियां सत्ता में आईं तो करीब साढ़े तीन दशकों तक उनका कब्जा बना रहा और सत्ता पर कब्जा बरकरार रखने का तरीका वही राजनीतिक हिंसा बनी, जिसका इस्तेमाल करके वामपंथी दल सत्ता में आए थे।

वामपंथियों ने राजनीतिक हिंसा को सत्ता में रहते हुए संस्थागत तरीके से संरक्षण देना शुरू किया। नक्सलबाड़ी अब सिंडीकेट बन चुका था और राजनीतिक हिंसा का शिकार सबसे ज्यादा कांग्रेस और बाद में कांग्रेस से अलग हटकर वामपंथियों का उग्र विरोध करने वाली ममता बनर्जी बनीं। सिंगूर और नंदीग्राम, ये दो घटनाएं ऐसी मील का पत्थर बन गईं, जिसने बंगाल में वामपंथियों के साढ़े तीन दशकों के हिंसक शासन को खत्म कर दिया। लेकिन बंगाल का दुर्भाग्य यहीं खत्म नहीं हुआ और हिंसक राजनीति के ठेकेदार सिंडीकेट बनाकर सत्ता से लाभ लेने और उसे लाभ देने की कला में पारंगत हो चुके थे। इसीलिए 2011 में भले ही वामपंथी पार्टियां सत्ता से बाहर हो गईं और अब विधानसभा में उनका कोई प्रतिनिधि नहीं रह गया, पर 1967 में नक्सलबाड़ी से शुरू हुई हिंसा राजनीतिक लाभ के साथ बंगाल के हर क्षेत्र में मजबूत हो गई।

यह महज संयोग नहीं है कि पिछली सदी के सातवें दशक के आखिर में रक्तरंजित हुआ बंगाल राजनीतिक हिंसा के संस्थागत होने के साथ ही प्रति व्यक्ति औसत आय के मामले में सबसे ज्यादा कमाने वाले राज्य से धीरे धीरे देश के गरीब राज्यों में शुमार होता चला गया। वहीं दूसरी ओर, ननक्सल प्रभावित इलाकों में जनता को सुविधाएं न मिलने का हवाला देकर नक्सल गतिविधियों को सही ठहराने की कोशिश शहरों में बैठा एक बड़ा बुद्धिजीवी वर्ग करता रहा है, जबकि सच्चाई यही है कि नक्सलियों की वजह से शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली और पानी जैसी मूलभूत आवश्यकताएं तक नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के लोगों को नहीं मिल पाती हैं।

यह हिंसा 2024 के लोकसभा और 2026 के विधानसभा की तैयारी भी है क्योंकि ममता बनर्जी अपने विरोधियों को डराने का काम कर रही है। कि उसके विरोध में फिर से बंगाल की जनता खड़ी न हो सके। बंगाली जनसमुदाय में भय का वातावरण बनाये रखना चाहती है। जिससे उनकी सरकार के विरोध में कोई आंदोलन न खड़ा हो सके। परंतु वो यह भूल गयी है कि यह वह धरती है जिसने अंग्रेजी हुकूमत को चुनोती दी जिसका परिणाम स्वरूप अंग्रेजों को कोलकाता से अपनी राजधानी हटानी पड़ी। और अंततः भारत छोड़कर जाना पड़ा। यह वो धरती है जिसने राजा राम मोहन राय रविन्द्र नाथ टैगोर, विवेकानंद, अरविंद घोष, रासबिहारी बोस, सुभाष बाबू जैसे अनेक वीरो को जन्म दिया। यह वह धरती है जंहा चैतन्य महाप्रभु ने मुस्लिम आततायी के विरोध में हिन्दू धर्म की महिमा को बनाये रखा।

मुस्लिम लीग के द्वारा 1946 में डायरेक्ट एक्शन प्लान के बाद यह सबसे विकराल हिंसा है परंतु बंगाल की पुलिस ने एक भी एफआईआर दर्ज नहीं की। यह हिंसा तो पुर बंगाल में हुआ लेकिन सबसे अधिक प्रभावित जिला वीरभूम, मालदा, मुर्शिदाबाद 24 दक्षिण परगना और उत्तर परगना के उन इलाके हुए जंहा मुस्लिम आबादी 60 से 80 प्रतिशत तक है। इससे यह आशंका भी उत्पन्न हो रहा है कि क्या पश्चिम बंगाल कश्मीर जैसी समस्या बनने की तरफ अग्रसर है। ममता बनर्जी को यह समझना चाहिए कि हिंसा एक बार शुरू हुई तो उसका शिकार कोई भी हो सकता है।

इन तमाम घटनाक्रमों के बीच कमाल की बात यह है कि वामपंथी पार्टियों के नेताओं की ही तरह मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी कह रहा है कि बंगाल में हिंसा हुई, लोगों की जान गई, बम फोड़े जा रहे, गोलियां चल रहीं, लेकिन सबसे बड़ी बात है कि ममता बनर्जी ने नरेंद्र मोदी का विजय रथ रोक लिया है।

रक्तरंजित बंगाल को,सिर्फ मोदी विरोध की राजनीति कमजोर न हो इसलिए छिपाने-ढकने की कोशिश ठीक उसी तरह से हो रही है, जैसे बिहार में जंगलराज को सामाजिक न्याय के आवरण में ढकने की कोशिश की गई थी। इसका खामियाजा बिहार आज तक भुगत रहा है। राजनीतिक विचार अलग होने भर से हत्या, हिंसा और लूटपाट को मोदी विरोध का जामा पहनाने का नतीजा अब बंगाल भुगत रहा है। शीतलकूची में अर्धसैनिक बलों पर हमला करते तृणमूल के कार्यकर्ता उसी भाव में थे कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की पुलिस पर हमला कर रहे हैं। दुर्भाग्य से मीडिया में एक बड़ा वर्ग इसी प्रवृत्ति को बढ़ाने में लगा है। जनवरी 2016 में मालदा में एक लाख से ज्यादा मुसलमानों ने हिंदू नेता कमलेश तिवारी के बयान के खिलाफ प्रदर्शन किया और पुलिस चैकी में आग लगी दी।

हिंसा और आगजनी की इस घटना पर बंगाल की मुख्यमंत्री का बयान बताता है कि बंगाल में ममता किस तरह की राजनीति कर रही हैं। ममता ने कहा कि यह पूरी तरह से स्थानीय लोगों और केंद्रीय अर्धसैनिक बलों के बीच का मसला है। इसमें सांप्रदायिकता खोजना गलत होगा। ममता बनर्जी ने जैसे कहा, ठीक वैसा ही विमर्श मीडिया के एक खास वर्ग ने बनाया। लेकिन ऐसी घटनाएं सिर्फ मुस्लिम बहुल जिलों में ही क्यों होती है क्या यह अंतराष्ट्रीय षडयंत्र है।

(लेखक के विचार निजी हैं। इनके विचारों से जनलेख प्रबंधन का कोई लेना देना नहीं है। लेखक झारखंड प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के प्रशिक्षण सह प्रमुख हैं। हाल के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान लेखक 6 विधानसभाओं में सक्रिय थे। इसमें से 5 विधानसभाओं में इनकी पार्टी जीत गयी है।)

DECLARATION : दरअसल, हम लोकतांत्रिक मूल्यों को सर्वोपरि मानते हैं। हम हर किसी के सकारात्मक विचार का आदर करते हैं। खुले तौर पर हर किसी के विचारों की प्रस्तुति हमारे वेबसाइट की नीति का हिस्सा है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate »