
भाग-02
राघव शरण शर्मा
नक्सल आंदोलन का वैचारिक संकट भारत में पूरे वामपंथ का वैचारिक संकट बन गया है। ऐसा क्यों हो गया है? इसकी जांच-पड़ताल अतीत की पृष्टभूमि और वर्तमान की परिस्थिति के आधार पर करना जरूरी है। सच पूछिए तो कम्युनिस्टों के सिद्धांत और व्यवहार, दोनों के पुनर्पाठ की जरूरत है। यह केवल साम्यवादी आन्दोलन के लिए ही नहीं देश और समाज के लिए भी जरूरती है।
जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) का विकास गतिरोध से फैल गया तब सन 1964 ई. में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (CPM) का गठन हुआ, जो सीपीआई की उस शाखा का प्रतिनिधित्व करती थी जिसके पताका तले कम्यूनिस्टों ने तेभागा, तेलंगाना, अमवारी, टेकारी की बहादुराना लड़ाईयां लडीं थी और शहादत दी।
स्वामी सहजानंद के किसान आन्दोलन के दुर्गादास कहे जाने वाले दुर्गादास पासवान को फिरंगी सरकार ने 1938 में फांसी पर इसलिए लटकाया क्योंकि वे किसानों के संघर्ष को नेतृत्व प्रदान किया। शक्ति पासवान की हत्या जहानाबाद के कसमा गांव में भूपतियों ने निर्दयता पूर्वक कर दी।
स्वामी सहजानंद ने अपनी वैचारिकी को इस प्रकार सूत्रबद्ध किया था। क्रान्ति की मंजिल जनता का जनवाद होगा। वाम मोर्चा बनाना परिस्थितियों की आवश्यकता की पहचान है। संघर्ष के दो मोर्चे होंगे संसदीय और गैरसंसदीय अर्थात संसद और सड़क का संघर्ष।
सीपीएम की वैचारिकी को निम्न तरीके से सूत्रबद्ध किया जा सकता है। क्रान्ति की मंजिल जनता का जनवाद है। भारत का शासक वर्ग, पूंजीपति विदेश पर निर्भर हैं। भारत की राजसत्ता जमींदार तथा बडे पूंजीपति वर्ग के हाथों में है। क्रान्ति का नेतृत्व संगठित मजदूर करेंगे, किसान सहायक होंगे। संयुक्त मोर्चा वाम दलों को मिला कर बंगाल मोर्चे पर बनेगा। भाजपा की सांप्रदायिकता का मुकाबला पूंजीवादी दलों और धर्म निरपेक्ष शक्तियों के सहयोग से किया जाएगा। राष्ट्रीय एकता की रक्षा करना वामपंथ का प्राथमिक अधिकार है। इस हेतु इंका या भाजपा का भी सहयोग लिया जा सकता है।
राष्ट्रीय एकता के प्रश्न पर यह सीपीआई और नक्सल से अलग है। जब तक यह दल सड़क पर संघर्ष करता रहा और आम जनता के साथ जुड़ा रहा प्रभावशाली भूमिका में रहा। पर संसदवाद के मकड़जाल में जब यह उलझ गया तब इसका पराभव होना प्रारंभ हो गया।
सरल शब्दों में कहें तो, सीपीएम को यकीन है कि मौजूदा घड़ी में वामपंथ की मुख्य कार्यनीति है भाजपा के सांप्रदायिक खतरे से संघर्ष में एकजुट होने के लिए पूंजीवादी, विपक्षी पार्टियो पर दबाव बनाए रखना। उसी के तहत, पार्टी बिहार में तेजस्वी, बंगाल में ममता, आंध्र में जगमोहन रेड्डी, मद्रास में डीएमके और केरल मे नायर और एजवाहा जातियों के साथ है। यह पार्टी के सामाजिक जनवाद का दौर है।
(सोशल मीडिया से सभार। यह लेखक के निजी विचार हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेना-देना नहीं है।)
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