भारतीय साम्यवादी आन्दोलन का वैचारिक संकट

भारतीय साम्यवादी आन्दोलन का वैचारिक संकट

राघव शरण शर्मा  

भाग 03

ऑक्सफोर्ड रिटर्न होने पर भी बंगाल की धरती पर ज्योति बसु ने आंदोलनों का नेतृत्व किया। बसु, संयुक्त मोर्चे की राजनीति पर महारत हासिल किए, कम्युनिस्ट पार्टी के अन्तः संघर्ष में सदैव मध्य मार्गी बने रहे और 32 वर्षों तक बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार टिकाकर एक मिथकीय व्यक्ति बन गए। 

ज्योति बाबू में बंगालियत और मार्क्सवाद का ऐसा सम्मिश्रण था जो बंगाली मध्य वर्ग को लम्बे समय तक रास आता रहा। इसके अलावा राजनीतिक-सामाजिक आधार भी मजबूत हुआ। ज्योति बाबू के समय  मजदूर संगठन, किसान संगठन, बंगाली अस्मिता और स्वाभिमान, वाम-मोर्चा बनाने की हिकमत, तरकीब विकसित हुई। 

उन्होंने सन 1964 में चार वाम दलों का मोर्चा बनाया, जो 1977 में बढ़कर 14 दल का हो गया। सन 1977 में संपन्न हुए विधानसभा के चुनाव में सी.पी.एम को 294 सीट में से 178 और वाम मोर्चा को 230 सीटें प्राप्त हुई। सन 1990 में सी.पी.एम. को 150 सीटें प्राप्त हुई। ज्योति बसु के कार्यकाल में सी.पी.एम. के पराभव के कई कारण हैं, जिसमें से हड़ताल के कारण कारखानों का बंद होना, ट्रेड यूनियन का कमजोर होना। मजदूर संगठनों का राजनीतिकरण नहीं होना और केवल आर्थिकी तक सीमित होना। कृषि सुधार के बाद किसानों का जोश उत्साह संघर्ष का ठंडा पड़ जाना। पार्टी में अधिनायकवादी मनोवृति के कारण फूट पड़ना एवं नौकरशाही का दबाव बढ़ना। वित्तमंत्री अशोक मित्रा जैसे पुराने मंत्री का सरकार से बाहर हो जाना। नृपेन्द्र चक्रवर्ती जैसे प्रभावशाली एवं ईमानदार नेता का निष्कासन। सैफुद्दीन जैसे नेता का केन्द्रीय समिति से बाहर होना। शिवदास घोष के नेतृत्व में सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर और केशव प्रसाद शर्मा के नेतृत्व में क्रान्तिकारी समाजवादी दल का वाम मोर्चा से अलग हो जाना। मध्यवर्गीय बंगालियत के नए चैंपियन के रूप में ममता बनर्जी का बंगाल की राजनीति में उभार होना, बेहद महत्वपूर्ण है। 

सन 1989 में ज्योति बसु को अरुण नेहरू और चंद्रशेखर ने प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव, कांग्रेस की तरफ से दिया। किन्तु उस समय विश्वनाथ प्रताप सिंह लोकप्रिय थे। सन 1990 में राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री पद ग्रहण करने का प्रस्ताव दिया, मगर ज्योति बसु, चंद्रशेखर की तरह विश्वासघाती बनने को तैयार नहीं हुए। सन 1997 में जब पुनः प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव आया तब ज्योति बसु तैयार हो गए, मगर पार्टी के केंद्रीय समिति ने 20 के मुकाबले 35 से प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया। पोलियो ब्यूरो का भी बहुमत ज्योति बसु के प्रधानमंत्री बनने के खिलाफ चला गया। 

उस समय पार्टी की ओर से तर्क दिया गया कि नीति निर्धारण की शक्ति कांग्रेस के पास होती। कांग्रेस से दोस्ती पार्टी के विस्तार में बाधक होगी। सरकार पर दबाव सरकार से बाहर रखकर ही कायम रखा जा सकता था। वर्ष 1997 में बुद्धदेव पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बनें, उन्होंने रोजगार के लिए औद्योगीकरण का सही मार्ग चुना मगर किसानों में यह भय व्याप्त हो गया कि उनकी जमीनें छीनी जा रही हैं। ममता बनर्जी ने इस भय का राजनीतिक लाभ लिया, उन्हे नक्सलियों और महाश्वेता देवी का भी समर्थन प्राप्त हो गया। ममता की बडी बंगालियत जीत गई और सी.पी.एम. की छोटी बंगालियत हार गई। 

तेजस्वी, स्टालिन, मुलायम, जगमोहन रेड्डी आदि से संसय इस बात का प्रमाण है कि पार्टी का सफर क्रान्तिकारी जनवाद से शुरू होकर सामाजिक जनवाद के रास्ते लोहिया, अंबेडकर, नायक के जातीय जनवाद पर जाकर अटक गया है। चुनावी जीत की बलिवेदी पर भारतीय साम्यवादियों ने सिद्धांत कुर्बान कर दिया। 


(यह लेखक के अपने निजी विचार हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेना-देना नहीं है।)

क्रमशः

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