भारत में साम्यवादी आन्दोलन का वैचारिक संकट

भारत में साम्यवादी आन्दोलन का वैचारिक संकट

भाग : 01

राघव शरण शर्मा

नक्सल आंदोलन का वैचारिक संकट भारत में पूरे वामपंथ का वैचारिक संकट बन गया है। ऐसा क्यों हो गया है? इसकी जांच-पड़ताल अतीत की पृष्टभूमि और वर्तमान की परिस्थिति के आधार पर करना जरूरी है। सच पूछिए तो कम्युनिस्टों के सिद्धांत और व्यवहार, दोनों के पुनर्पाठ की जरूरत है। यह केवल साम्यवादी आन्दोलन के लिए ही नहीं देश और समाज के लिए भी जरूरती है।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, यानी सीपीआई की मान्यता है कि भारत का शासक वर्ग पूंजीपति वर्ग है और इसका चरित्र राष्ट्रीय है। अतः इस वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों और नेताओं के साथ संयुक्त मोर्चा बनाया जाना चाहिए। सीपीआई मानती है कि क्रान्ति की मंजिल पूंजीवादी जनवाद है। वाम मोर्चा बनाने की स्वामी सहजानंद और सुभाषचंद्र बोस की सोच साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष को कमजोर करता है। उत्पीड़ित राष्ट्रीयता को आत्मनिर्णय और अलग होने का अधिकार स्वीकार्य है।

ऐसी अवधारणा के तहत पार्टी ने सन 1930 ई. में सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व वाले मजदूर संगठन आईटेक को विभाजित कर दिया। सन 1945 ई. स्वामी सहजानंद के नेतृत्व वाले किसान सभा को भी विभाजित कर दिया। राष्ट्रीय मोर्चे की नीति के तहत गांधी-नेहरू के नेतृत्व को मजबूत किया। भारत के पूंजीपति विदेशी सामानों के वितरक भर हैं और तकनीकी, वित्त तथा बाजार आदि के लिए उन पर निर्भर हैं। इसे राष्ट्रीय कहना सत्य को नकारना है। भारतीय पूंजीपति वर्ग का उद्भव रजवाड़ी, जमींदारी, महाजनी, सट्टा बाजारी, अफीम के कारोबार और विदेशी पूंजी के समर्थन से हुआ। आत्मनिर्णय के अधिकार के नाम पर पार्टी ने पाकिस्तान बनाया और अभी भी भारत को एक सांस्कृतिक राष्ट्र मानने के लिए तैयार नहीं है।

सीपीआई का इतिहास खोए हुए अवसर की कहानी है। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद सन 1920 ई. के आसपास जब महंगाई से परेशान मजदूर वर्ग बगावत के कगार पर था और महात्मा गांधी ने खतरा भांप कर आंदोलन को बन्द कर दिया। तब कम्युनिस्ट पार्टी निष्क्रिय हो गयी। सन 1930 ई. में जब भारत में मंदी का प्रकोप था तब किसान बगावती थे। इनको संगठित कर राष्ट्रीय राजनीति में हस्तक्षेप किया जा सकता था लेकिन सीपीआई मौन रही।

सन 1939 ई. में जब ब्रिटेन अपने से भी ज्यादा ताकतवर दुश्मन जर्मनी से मरणांतक युद्ध में फंस गया था तब भारत में संघर्ष छेड़ने का सुअवसर था। लेकिन 1939 ई. अखिल भारतीय किसान सभा के चतुर्थ अधिवेशन में पी सी जोशी और आचार्य नरेन्द्र देव ने स्वामी सहजानंद के उग्र किसान आंदोलन का विरोध किया और राष्ट्रीय मोर्चे की वकालत की।

सन 1948 में पार्टी का एक हिस्सा नेहरूवियन हो गया और दूसरी हिस्सा, दुःसाहसवाद में भटक गया। सन 1974 में जब परिस्थिति क्रान्तिकारी थी तब एक हिस्सा इंदिरा गांधी के साथ हो लिया और दूसरा जयप्रकाश नारायण का पिछलग्गू बन गया। यह जयप्रकाश नारायण ही थे जिन्होंने नाना जी देशमुख से मिलकर राष्ट्रीय राजनीति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रतिष्ठित किया। पार्टी पहले गैर कांग्रेसवाद के तहत भटकाव में थी और अब गैर भाजपावाद के तहत उसी भटकाव की पुनरावृत्ति कर रही है। पार्टी सड़क की लडाई छोड़कर संसदवाद के मकड़जाल में उलझ गई जिसके चलते अस्मिता के नाम पर क्षेत्रीय, जातीय और संप्रदायवादी सामाजिक शक्तियां राजनीति के केन्द्र में आ गई। और कम्युनिस्ट परिधि पर ढकेल दिए गए।

सन्दर्भ : –
1- एम ए रसूल की पुस्तक – किसान सभा का इतिहास
2- अरिंदम सेन की पुस्तक – कम्युनिस्ट पार्टी के दस्तावेज

(सोशल मीडिया से सभार। यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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