उमेश नजीर
खेती के लिए बीज का होना, पहली जरूरत है। अगर बीज नहीं होंगे, तो खेती का होना संभव नहीं है। इसलिए बीज के बगैर खेती की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। आज जिन बीजों से हम खेती कर रहे हैं, वे ऐसे बीज हैं, जिन्हें सैकड़ों-हजारों साल के अनुभव उन्हें चुना और हम तक पहुंचने में हजारों पीढ़ियों का योगदान हैं। इन्हीं बीजों से हुई खेती से हमारी कृषि-जैवविविधता खड़ी हुई है, जिसने हजारों साल तक खेती को स्थायीत्व प्रदान किया है। वहीं दूसरी ओर कथित वैज्ञानिक खेती जिसे हम हरित क्रांति के नाम से जानते हैं, उसने निश्चित तौर से उत्पादन की मात्रा बढ़ा दी है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। परंतु इसी के साथ इस खेती ने बीज, खाद, कीटनाशक और यहां तक कि कृषि-उपकरण, जो हमारे पुरखों के हजारों के अनुभव से हम तक पहुंचे थे, उससे हमें अलग कर दिया है। इतना ही नहीं, कृषि-जैवविविधता को भी बड़े पैमाने पर नष्ट किया है और एक ही तरह की खेती जिससे सिर्फ पैसा मिल सके, उन फसलों को ही बढ़ावा दिया है। एक ही तरह की खेती होने से जमीन की उपरी सतह में मौजूद फसलों की पैदावार-शक्ति बढ़ाने वाले पोषक तत्व की कमी हो गयी है और अधिकांश खेत बंजर होते जा रहे हैं। झारखंड सरकार का आंकड़ा बताता है कि लगातार एक ही तरह की खेती होने से झारखंड की करीब 70 प्रतिशत जमीन या तो बंजर हो गयी है या बंजर होने के कगार पर है।
किसानों के सामने दुविधा की स्थिति पैदा हो गयी है और इस दुविधा ने उनके अंदर खेती करने को लेकर मोहभंग की स्थिति पैदा कर दी है। फलतः खेती के लिए लगने वाली श्रमशक्ति में भी बड़ी गिरावट देखने के लिए मिलती है। यह स्थिति बड़ी भयावह है। परंतु किसानों को इस स्थिति से उबारने को लेकर केंद्र से लेकर राज्य सरकार तक सचेत नहीं दिखती है। ऐसा इसलिए है कि सदियों से विकसित खेती की हमारी पद्धति की अपेक्षा इस विनाशकारी कथित उन्नत खेती को हमारी सरकार बेहतर मानती है। इसलिए खेती को लेकर जितनी भी योजनाएं और सरकार द्वारा संचालित हो रही है, उनमें से अधिकांश की बुनियाद है- विनाशकारी खेती को बढ़ावा देना।
ऐसे में किसान ही एक विकल्प बचता है, जो हमारी बीजों की विविधता की हिफाजत कर सके। इन बीजों की हिफाजत इसलिए भी जरूरी है कि इन किस्म-किस्म के बीजों के होने से हम अपनी खेती की उर्वरता को फिर से वापस लौटा सकते हैं। साथ ही तरह-तरह के फसल हमारी खाद्य-संप्रभुता को भी सुनिश्चित करेंगे। इन बीजों के होने से हमारी सरकार के अनुदान वाले और कंपनियों के बीजों पर से हमारी निर्भरता कम होगी। इतना ही नहीं, इन पारंपरिक बीजों से होने वाली खेती में रासायनिक खाद और कीटनाशक के उपयोग की भी जरूरत नहीं होगी। इनके लिए जरूरी होगा, पारंपरिक खाद और कीटनाशक। इन पारंपरिक खाद और कीटनाक को तैयार करने वाली चीजें हमें जंगल से या हमारे पालतू जीव-जंतुओं से प्राप्त हो जायेंगे, इससे हम पशुपालन जो हमारी खाद्य-संप्रभुता के एक भाग को सुनिशचित करता है, उसकी ओर बढ़ेंगे।
सामुदायिक बीज भंडार- नाम भले ही नया है। परंतु इस काम को हमारे पुरखे बहुत पहले ही करते आये हैं। 20-25 वर्ष पहले तक झारखंड के किसानों का शायद ही कोई घर होगा, जहां वे अपनी फसलों का कुछ हिस्सा बचा कर रख लेते थे, ताकि अगले वर्ष फिर से उन बीजों की बुवाई कर सके। उस समय शायद ही कहीं बीजों की दुकान थी, जहां से किसान बीज लेकर खेती करता हो। अब तो हमारी आदत बना दी जा रही है कि हम खेती करने के लिए हर साल बीज दुकान पर जायें और वहां से बीज खरीद कर अपना फसल उगायें। जब दुकान से बीज खरीदेंगे, तो खाद और कीटनाषक भी दुकान से ही खरीदने पड़ेंगे। इस तरह से तो बाजार की दोहरे चंगुल में फंस जायेंगे। क्योंकि खेती करने के लिए भी बाजार पर निर्भर और फसल उपजाने के बाद बेचने के लिए भी बाजार। हमारे पास कोई विकल्प नहीं बचेगा कि हम अपनी मर्जी के मालिक हों।
अभी समय है कि हम इस चंगुल से निकलने के लिए कम से कम छटपटा तो सकते हैं। अगर यह भी समय निकल गया, तो वह रास्ता बंद हो जायेगा और हम अपने पुरखों की खेतों में ही खेत मजदूर बनने के लिए विवश होंगे। क्योंकि शहरों की हालत तो आप कोराना की अवधि में तो देख चुके हैं कि कैसे प्रवासी मजदूर अपने गांव-घर आने के लिए छटपटा रहे थे और उनके पास वापस लौटने का भी रास्ता बंद हो गया था। जो हाथ शहरों की धड़कन को जिंदा रखे हुए थे, वे एकाएक दान पर आश्रित हो गये और कुछ तो मर-खप भी गये। यह कोराना खत्म नहीं हुआ है, लेकिन कुछ समय तो इसने यह एहसास दिला दिया है कि खेती में ही वह ताकत है कि रोती-बिलखती दुनिया की आंखों में चमक पैदा कर दे। इस एहसास पर एक साजिश की तरह फिर से मिट्टी डालने की कोशीशहो रही है।
इस स्थिति से किसी एक किसान के लिए निकलना मुश्किल है। इसके लिए किसानों को एक साथ मिल-बैठ कर रास्ता तलाशने की जरूरत है। यहीं आकर हमारी गांवों को चलाने की पुरानी विधि- ग्राम सभा का महत्व है। ग्रामसभा के संचालन के अनुभवों से सामुदायिक बीज भंडार समृद्ध होगी और सामुदायिक बीज भंडारों के संचालन से ग्रामसभा जुड़ कर नयी समस्याओं से निकलने के रास्ते को खोजने में वह सफल होगी। इस तरह से सिर्फ खेती के लिए ही नहीं, बल्कि गांवों की टूटती समरसता के साथ-साथ ग्रामसभा को भी सशक्त करने का एक माध्यम हो सकता है- सामुदायिक बीज भंडार।
इस तरह के बीज भंडार को लेकर देश ही नहीं, दुनिया के कई हिस्सों में काम हो रहे हैं। उनसे हम सीख सकते हैं और अपने बीज भंडारों के संचालन के तरीके और बीज-भंडारण की तकनीक को हम अपने बीजों पर उपयोग करके देख सकते हैं और अगर वे हमारे बीज भंडारण को मजबूत करते हैं, तो उसे अपनाने की जरूरत है। सामुदायिक बीज- भंडार के संचालकों को अपनी नजर खुली रखनी होगी और आने वाली प्रत्येक समस्या को सुलझाने के लिए उत्साहित रहना होगा। यह सिर्फ बीज भंडार नहीं, किसानों को बाजार की चंगुल से निकालने के एक विकल्प के रूप में इसे विकसित करने की जरूरत है।