साम्यवादी आन्दोलन के 100 साल/ स्वातंत्रोतर भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की दशा और दिशा

साम्यवादी आन्दोलन के 100 साल/ स्वातंत्रोतर भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की दशा और दिशा

भारत को 1947 में आज़ादी मिली। इधर एमएन रॉय वाला कम्युनिस्टों का धरा इस स्वतंत्रता को आधा-अधुरा माना और संघर्ष जारी रखने की बात कही लेकिन कुछ साम्यवादी नेता इस स्वतंत्रता को राजनीतिक स्वतंत्रता मान कर आगे की दिशा तय करने में लग गए। स्वतंत्रता के बाद देश के प्रधानमंत्री पंडित जवारहरलाल नेहरू बनाए गए। नेहरू खुद को समाजवादी भी मानते थे और यह कहा जाता था कि उन्होंने एक तरह की समाजवादी सरकार चलाई भी।

इधर एशिया में एक नया और बड़ा बदलाव आया। 1949 में चीन में माओ के नेतृत्व में क्रांति हुई और चीन में भी साम्यवादी सरकार का गठन हुआ। रूस की तर्ज पर ही चीन में भी पीपल्स रिपब्लि ऑफ चाइना का गठन किया गया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीन ने सोवियत संघ की जगह लेनी शुरू कर दी। इसके अलावा भारत में किसानों के तीन आंदलोनों ने लोगों को चीन की साम्यवादी नीति की तरफ आकर्षित किया। बता दें कि रूस में जो साम्यवादी आन्दोलन हुआ था उसमें कारखानों में काम करने वाले श्रमिकों ने बड़ी भूमिका निभाई थी, जबकि चीन की क्रांति विशुद्ध रूप से किसान और खेतिहर मजदूरों की थी। चीन के साम्यवादियों ने गुरिल्ला लड़ाई के माध्यम से सत्ता पर कब्जा किया था। इसके लिए चीनी साम्यवादी नेताओं ने बाकायदा अपना सैन्य संगठन बनाया और सरकार के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष किया। चीन के इस संघर्ष ने भारतीय साम्यवादियों को भी प्रभावित किया।

स्वतंत्रता के चलते भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में उलझन की स्थिति बनी थी तो चीन की क्रांति ने कार्यक्रमों और रास्तों को लेकर कई सवाल और संदेह उत्पन्न किए। आज़ादी मिलने के शुरुआती दिनों में सबसे बड़ी दुविधा यही थी कि कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में हासिल की गई स्वतंत्रता को कैसे समझा जाए। इसके साथ नेहरू सरकार को समझने की दुविधा भी थी।

आज़ादी के शुरुआती दिनों में कम्युनिस्टों ने प्रस्ताव पास करते हुए कहा था कि जो हासिल किया गया है वह केवल सत्ता का हस्तांतरण है ना कि स्वतंत्रता। यह बड़ी बात थी लेकिन इसके लिए संघर्ष की रूपरेखा का तय होना भी जरूरी था, जो अभी बांकी था। सोवियत संघ की स्ट्रालिन के दबाव वाली कम्युनिस्ट पार्टी ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को कांग्रेस सरकार के ख़िलाफ़ लड़ाई न करने की सलाह दी। हालांकि उसने यह भी कहा कि भारत की सरकार राष्ट्रीय ‘बुर्जुआ वर्ग’ (अभिजात्य) के हाथ में है लेकिन आमने सामने का संघर्ष ठीक नहीं होगा। हालांकि इसमें भी एक बड़ा पेंच था, जिसकी चर्चा बाद में करूंगा।

इस कारण भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में दो विचारधारा और खेमा बन गया है। सोवियत संघ की साम्यवादी नीति के मुताबिक पार्टी के अंदर एक समूह का तर्क यह था कि नेहरू स्वतंत्र भी हैं और स्वघोषित समाजवादी भी हैं। ऐसे में वामपंथियों को कांग्रेस के साथ काम करना चाहिए और उन्हें अपने पक्ष में करना चाहिए। वहीं दूसरा समूह इससे असहमत था और उसका मानना था कि भारत को पूरी आज़ादी नहीं मिली है और सरकार साम्राज्यवादियों की एक कठपुतली है और इसलिए चीन की नीतियों का अनुपालन करते हुए संघर्ष करना चाहिए।

तेलंगाना में सशस्त्र किसानों के संघर्ष, तेभागा किसान आंदोलन और पुन्नपा-वलयार किसान आंदोलनों का नेतृत्व कम्युनिस्टों ने किया था और इन आंदोलनों में जिस तरह से ग्रामीण किसानों से हिस्सा लिया, इससे पार्टी का बड़ा तबका चीन की नीतियों की तरफ आकर्षित हो गया। कम्युनिस्ट नेताओं को लगने लगा कि अब वे पूरे देश में क्रांति कर सकते हैं लेकिन ऐसा नहीं हुआ। कुछ ही दिनों के बाद यह परिकल्पना खंडित हो गया।

यहाँ यह भी ध्यान देना होगा कि तेलंगाना सशस्त्र किसान संघर्ष के दौरान क़रीब 3,000 गांवों को निजाम के अधिकार से मुक्त कराया गया था और उसका संचालन कम्युनिस्ट गांवों की तरह किया गया जहां चीन की नीतियों की वकालत की गई थी। उन लोगों का अनुमान था कि अगर इसी तरह का आंदोलन, इतनी ही ताक़त से पूरे देश भर में चलाया जाए तो भारत में क्रांति होगी। इस तरह का विचार रखने वाले लोगों को जल्दी ही यह महसूस हो गया कि निजाम की सेना से लड़ना एक बात है और देश की सेना से लड़ना एकदम दूसरी बात।

इस समय तक अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट संस्था ने अपना नाम बदल कर कॉमइंटरनेशनल से कॉमनीइंफोर्म रख लिया और यह भी चीन की नीतियों की वकालत कर रहा था। इसलिए नेतृत्व में भी बदलाव दिखा। चीन की नीतियों की वकालत करने वाले लोगों को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में तरजीह मिलने लगी। 1951 में चंद्र राजेश्वर राव ने बीटी रणदीवे की जगह पार्टी प्रमुख की जगह ली।

तब तक तेलंगाना का सशस्त्र आंदोलन थम गया था। पार्टी के नेताओं के बीच सशस्त्र आंदोलन को जारी रखने या बंद करने के लिए लंबी और व्यापक चर्चा हुई। पार्टी के चार नेताओं का समूह मास्को गया और इस मामले में स्टालिन से सलाह ली गई। इस समूह में एम. बासवापुनैया, अजॉय घोष, एस.ए. डांगे और चंद्र राजेश्वर राव शामिल थे। सोवियत संघ से लौटने के बाद सशस्त्र आंदोलन की समाप्ति की घोषणा की गई और इससे 1952 के आम चुनाव में भागीदारी का रास्ता साफ़ हुआ।

हालांकि इस दौरान चीन की नीतियों को अपनाने की घोषणा करने में कोई बाधा नहीं थी। यह भी कहा जा सकता है कि चीन में पार्टी का चेयरमैन ही भारत में पार्टी का चेयरमैन है लेकिन तत्कालीन परस्थितियों को देखते हुए और दमन की आशंका जताते हुए पिछले अनुभवों के आधार पर पार्टी के अंदर दो धाराओं का प्रस्ताव रखा गया। संरक्षित गुरिल्ला संघर्ष को रणनीतिक रूप में प्रस्तावित किया गया और संसदीय मार्ग को राजनीतिक सिद्धांत के तौर पर। इसी दौरान मदुरै में आयोजित पार्टी कांग्रेस में सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार के ख़िलाफ़ मज़बूती से लड़ने का फ़ैसला लिया गया क्योंकि चीन की नीतियों वाला धड़ा प्रभुत्व में था।

दोनों धाराओं में किसे अपनाया जाए इसको लेकर असहमति के चलते पार्टी को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा था। जो भी प्रभुत्व रख रहा था पार्टी उसकी नीतियों को अपना रही थी। 1952 के आम चुनाव के दौरान भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मुख्य विपक्षी दल बनकर उभरी। पार्टी के अधिकांश नेताओं को भरोसा था कि 1955 में हुए आंध्र प्रदेश के चुनाव में पार्टी को जीत मिलेगी लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। हालांकि इस विषय पर पार्टी के अंदर चर्चा तो हुई लेकिन उस चर्चा को बेहद सतही तरीके से लिया गया।

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