गौतम चौधरी
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी टीम को अब इस बात का एहसास हो गया है कि इस बार का संसदीय आम चुनाव आसान नहीं है। उन्हें इस बात का भी अंदाजा हो गया है कि केवल हिन्दू बोटांे के ध्रुवीकरण मात्र से चुनाव नहीं जीते जा सकते हैं। इसके लिए उन्हें कुछ कल्याणकारी योजनाओं पर भी अमल करने होंगे। हालांकि नरेन्द्र मोदी की सरकार विकास के मामले, अन्य सरकारों की तुलना में ज्यादा तेजी से आगे बढ़ रही है। यही नहीं सरकार कई कल्याणकारी योजनाओं को भी अंजाम दे रही है, जिसमें करोड़ों जनता को रियायती दर पर अन्न उपलब्ध कराने से लेकर किसानों के खातों में सालाना रुपये जमा कराना तक शामिल है। हालांकि चालू वित्तवर्ष के बजट में सरकार ने ग्रामीण असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए चलाए जाने वाले देश की सबसे बड़ी योजना, मनरेगा की राशि में थोड़ी कटौती कर दी लेकिन अन्य कई ग्रामीण योजनाओं में राशि बढ़ाई गयी है। ग्रामीण आधारभूत संरचना को मजबूत बनाने के लिए सरकार ने कई योजनाएं प्रारंभ की है। यह ग्रामीण क्षेत्रों से होने वाले पलायन को रोकने में सफल भी साबित हो रहा है। बावजूद इसके महंगाई और सरकार के काॅरपोरेटीकरण के प्रचार ने सरकार की छवि को कमजोर किया है। इस मामले में सरकार का प्रचार तंत्र लोगों की आम राय सामने आने नहीं दे रही है लेकिन वास्तविकता, दूरदर्शन वाहिनी, समाचार-पत्र और सोशल मीडिया पर फैलाए जा रहे भ्रम के ठीक उलट है। इसी का परिणाम है कि मरी हुई कांग्रेस एक बार फिर-से भाजपा के सामने बड़ी चुनौती प्रस्तुत करने लगी है।
वर्ष 2014 और 2019 के संसदीय आम चुनाव में भाजपा राजनीतिक विकल्पहीनता के कारण बड़ी जीत हासिल कर पायी। इन दोनों संसदीय चुनावों में भाजपा, मजबूत सांगठनिक शक्ति, वैचारिक अधिष्ठान, असंगठित विपाक्ष और बहुसंख्यक बोटों के ध्रुवीकरण के कारण जीत हासिल कर पायी। वर्ष 2024 का संसदीय आम चुनाव थोड़ा अलग लड़ा जाने वाला है। इस बार चुनाव से पहले विपक्षी एकता साकार होती नजर आ रही है। यही नहीं विपक्षी दलों ने कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को लगभग अपना नेता मान लिया है। इस विपक्षी गठबंधन में कुछ वे दल भी शामिल हो गए हैं, जो किसी समय भाजपा के साथ हुआ करते थे। हालांकि अपनी जगह उन दलों का प्रभाव बहुत ज्यादा नहीं है लेकिन वे राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी भूमिका निभाने में आज भी सक्षम हैं। इसका असर आम चुनाव पर पड़ना तय माना जा रहा है। दूसरी तरफ, इस बार भाजपा के अंदर और विचार परिवार में कई प्रकार के अंतरद्वंद्व उभरकर सामने आने लगे हैं। पार्टी और विचार परिवार के अंतरविरोध प्रांत स्तर पर भी मौजूद हैं। प्रदेश स्तर पर देखा जाए तो भाजपा शासित प्रत्येक प्रांतों में यह अंतरविरोध साफ देखने को मिलता है। गुजरात में केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह एवं प्रभावशाली पटेलों के बीच बड़ी खाई है। इस खाई को पाटने के लिए ही पिछले विधानसभा चुनाव के ठीक पहले अमित शाह के बेहद प्रिय कहे जाने वाले विजय रूपाणी को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा था।
मध्य प्रदेश में भाजपा ने ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके गुट के कुछ कांग्रेसी विधायकों को पार्टी में शामिल करा अपनी सरकार तो बना ली लेकिन अब वही गुट भाजपा के लिए बड़ी समस्या खड़ी करने लगी है। ज्योतिरादित्य के कारण मध्य प्रदेश भाजपा का एक बड़ा तबका पार्टी से विमुख होता दिख रहा है। यही तबका विगत लंबे समय से भाजपा को जीत दिलवाता रहा है। बेशक छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल कमजोर हुए हैं लेकिन वे इतने भी कमजोर नहीं हैं कि भाजपा उन्हें मात दे दे। छत्तीसगढ़ भाजपा नेतृत्व एवं तेज विहीन दिख रही है। इसका लाभ कांग्रेस को मिलेगा। राजस्थान में वसुंधरा राजे अभी भी प्रभावशाली बनी हुई है। भाजपा वसुंधरा को यदि मुख्यमंत्री नहीं घोषित करती है तो राजस्थान का चुनाव पार्टी के लिए कठिन होगा।
पिछली बार किसी तरह हरियाणा में भाजपा सत्ता हासिल कर पायी। इस बार हरियाणा में चुनाव जीतना भाजपा के लिए आसान नहीं होगा। यहां भी कांग्रेस की स्थिति मजबूत है। पंजाब में भाजपा की स्थिति पहले से कमजोर है। दिल्ली में यदि आम आदमी पार्टी के साथ कांग्रेस का गठबंधन सिरे चढ़ जाता है तो भाजपा के लिए दिल्ली भी आसान नहीं होगा। हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है और उत्तराखंड में भाजपा अभी भी मजबूत है। इन दोनों प्रांतों में आपसी संघर्ष के कारण कांग्रेस कमजोर है। उत्तर प्रदेश में इस बार भाजपा की सीट कम हो जाएगी। इसके कई कारण बताए जा रहे हैं। कारणों की व्यापक व्याख्या हो सकती है। बिहार, झारखंड, ओड़िशा, पंश्चिम बंगाल एवं दक्षिण के प्रांतों में विपक्षी गठबंधन पहले से मजबूत है। ऐसे में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी ने जो इंडिया नामक गठबंधन प्रस्तुत किया है, वह भाजपा के लिए चुनौती तो है।
इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि भाजपा अपनी नीतियों में बदलाव कर मुसलमानों के प्रति अपने रूख में नरमी बरतनी प्रारंभ कर दी है। भाजपा के रणनीतिकारों ने जहां एक ओर मुसलमानों में अपना जनाधार बढ़ाने के लिए पसमांदा मुसलमानों का संगठन खड़ा किया है, वहीं सूफीवाद को बढ़ावा देने की योजना बनाई है। यही नहीं, मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार ने कर्मचारियों को दी जाने वाली पुरानी पेंशन योजना को फिर-से लागू करने के लिए एक समिति का गठन किया है। संभव है कि चुनाव से पहले मोदी सरकार पुरानी पेंशन योजना लागू करने की घोषणा कर दे। मोदी सरकार, चुनाव से पहले जनता को और कई रियायतें देने वाली है। जिसमें, गैस और पेट्रोलियम पदार्थों पर छूट आदि शामिल है। सरकार रेल यात्रियों के लिए भी कोई बड़ी घोषणा कर सकती है। यह साबित करता है कि केन्द्र की सरकार संचालित करने वाली पार्टी को इस बात का आभास हो गया है कि इस बार केवल बहुसंख्यक ध्रुवीकरण से काम चलने वाला नहीं है, कई मामलों में जनता को कुछ ठोस रियायतें देनी होगी।