डॉ. नर्मदेश्वर प्रसाद चौधरी
सियासत जातियों के इर्द-गिर्द घूमती रहती है। इसके महत्वपूर्ण माध्यम बिहार में श्मांजनश् तो दूसरे राज्यों में जातियों के मुखिया या प्रधान जी कहलाते हैं। ये प्रधान जी लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुने गए प्रधान नहीं बल्कि सामाजिक प्रक्रिया से चुने गए जातियों के प्रभावशाली व्यक्ति होते हैं। कई दशकों से इन मांजनों के हाथ में जातियों के वोट की कमान रही। इन्हीं के इशारे पर राजनीतिक दल सत्ता पर काबिज होते और उतारे जाते रहे। पिछले कुछ चुनावों से इन मांजनों की पकड़ अपने समाज पर ढीली पर गई है। ऐसे में अब राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों में इनकी पूछ – परख भी धीरे- धीरे खत्म होती जा रही है।
जातियों के मांजन अपनी जाति के मुखिया होते हैं। वे आपसी मतभेद और लड़ाई को पंचायत या पुलिस में जाने से पहले सामाजिक स्तर पर ही सुलझा लेते हैं। ये इतने प्रभावशाली होते है कि दोनों पक्षों को इनकी बात माननी पड़ती है। इतना ही नहीं, लोगों के सुख- दुख और शादी-विवाह तक में इनकी सीधी दखल होती हैं। सामाजिक रूप से जातियों के सबसे प्रभावशाली इन मांजनों की पकड़ राजनीति पर भी मजबूत थी। मांजन जिसे कह देते, जाति के सारे वोट उसी प्रत्याशी या पार्टी की झोली में जाता था। लिहाजा, राजनीतिक दल और प्रत्याशी भी सीधे वोटर से नहीं, इन मांजनों को खुश करने में लगे रहते थे। लेकिन अब स्थिति वैसी नहीं रही। मांजन अब नाम के रह गए हैं। लोग अब मांजन की राय जरूरी नहीं समझते। इसलिए इन मांजनों की राजनीति में भी पूछ घट गई है।
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत मे लगभग तीन हजार जातियां और 25 हजार उपजातियां है। औसतन 10 – 12 मील पर जातियों का कुनबा बदल जाता है। इन सभी जाति और उपजातियों में मांजन चुना जाता है। अब हालात यह है कि ये मांजन चुने तो गए है लेकिन राजनीति में इनकी कोई सुन नहीं रहा। इतिहासकार एनपी जायसवाल एवं रजनी कोठारी ने लिखा है कि भारत में 68 फीसदी आबादी पिछड़ों की है और मांजन प्रथा इन पिछड़ी जातियों में ही प्रभावशाली है।
जातियों के मांजनों की ताकत घटने का असर राजनीति पर भी पड़ा है। पहले किसी एक जाति के पांच हजार वोट के लिए केवल उनके मांजन को ही मना लेना होता था लेकिन अब स्थिति अलग है। अब वोट के लिए हर दरवाजे पर दस्तक देनी पड़ती है । आज की नई पीढ़ी मांजन की नहीं सुनते। इस कारण वे राजनीति में निष्प्रभावी हो गए है।
बिहार के एक मांजन कहते है- एक जमाना था,जब समाज के सबसे प्रभावशाली व बुद्धिजीवी व्यक्ति को मांजन चुना जाता था। वह समाज के प्रत्येक व्यक्ति और परिवार के दुख-सुख में ही शामिल नहीं होता बल्कि बिरादरी की उन्नति और सामाजिक न्याय रक्षक भी होता था। लेकिन आज की नई पीढ़ी को इन बातों से कोई लेना- देना नहीं है। राजनीतिक शास्त्र के प्राध्यापक एनपी चैधरी बताते है कि बिहार ही नहीं, राजनीति में जातियों का प्रभुत्व पूरे देश में है। प्रत्येक जाति का स्थानीय तौर पर मुखिया होता था, जो अपनी बिरादरी के राजनीतिक व सामाजिक व्यवहार को नियंत्रित करता था,उसे दिशा देता था। आर्थिक उदारीकरण के दौर के बाद यह व्यवस्था निष्प्रभावी हो गई।
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