गौतम चौधरी
रूस-यूक्रेन विवाद को हवा देकर संयुक्त राज्य अमेरिका के डेमोक्रेट राष्ट्रपति जो बिडेन ने यह साबित कर दिया है कि वे न केवल चालक रणनीतिकार हैं अपितु कुशल कूटनीतिक भी हैं। यूरोप के हालिया संकट पर जिस प्रकार उन्होंने कार्रवाई की है उससे साफि जाहिर होता है कि उन्होंने रूस-चीन गठबंधन के खिलाफ निर्णायक घेराबंदी प्रारंभ कर दी है। राष्ट्रपति का पदभार ग्रहण करते ही जो बिडेन ने अपनी विदेश नीति में कई परिवर्तन किए। घरेलु परेशानियों से जूझ रहे अमेरिका की सबसे बड़ी समस्या क्रूर पूंजीवाद को बचाए रखना है। इसके लिए अमेरिका को दुनिया भर में अपनी ताकत का अंदाजा कराते रहना पड़ेगा। इसके लिए दुनिया में कहीं न कहीं अमेरिका प्रत्येक्ष लड़ाई करने की नीति पर चलता रहा है। अमेरिका इसके लिए बाकायदा सैन्य ऑपरेशन का सारा खर्च उस क्षेत्र या देश के माथे पर लादता है, जहां कथित तौर पर उसने सैन्य कार्रवाई की होती है। हालांकि इस प्रकार की सैन्य कार्रवाई में अमेरिका का कई परोक्ष हितों के अलावे प्रत्यक्ष हित भी शामिल होता है। प्रथम विश्वयुद्ध काल से ही अमेरिका इस नीति पर चल रहा है।
दूसरे विश्वयुद्ध में उसने बड़ी चालाकी से मित्रराष्ट्र कहे जाने वाले जर्मनी-जापान-इटली को धरासाई किया। शीतयुद्ध काल में उसने सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक को समाप्त कर एकध्रुवीय विश्व की रचना कर दी। इसके बाद उसने इस्लामिक जगत को मथने का काम किया और पूरे इस्लामिक विश्व में अपनी धाक जमाने के लिए इराक व अफगानिस्तान पर आक्रमण किया। अमेरिका यहीं नहीं रुका, उसने आगे ईरान की घेराबंदी प्रारंभ की, तुर्की में चरमपंथी इस्लामिक समूह के द्वारा तख्ता पलटने की असफल कोशिश की। पहले आईएसआईएस को बढ़ावा दिया फिर उसके खिलाफ संघर्ष के बहाने सीरिया पर अपना दबाव बढ़ाया लेकिन तबतक रूस एक बार फिर से मजबूत हो चुका था। रूस को चीन का साथ मिला और उसने अमेरिकी अभियान के खिलाफ सीरिया का साथ दिया। पास पलट गया और अमेरिका को वहां से पैर पीछे करने पड़े। इसका उसे मलाल है। साथ ही उसे इस बात की भी चिंता सता रही है कि अगर यूरोपीय देश रूस-चीन खेमे में शिफ्ट कर गए तो अमेरिका की वैश्विक दादागीरी समाप्त हो जाएगी।
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन को यह लगने लगा कि वह नाहक दक्षिण एशिया में अपनी ताकत खर्च कर रहे हैं। यहां से जो मिलना था उन्हें मिल गया अब कुछ मिलना नहीं था। उन्होंने यह तय किया कि अब वे मात्र दो मोर्चों पर अपना ध्यान केंद्रित करेंगे। इससे उन्हें दुनिया में अपना रुतबा दिखाने का भी मौका मिलेगा और आर्थिक लाभ की भी पूरी संभावना है। इसलिए अमेरिका ने दक्षिणी चीन सागर में पीपल्स रिपब्लिक आॅफ चाइन की घेरेबंदी प्रारंभ की और दूसरा मोर्चा उन्होंने रूस के खिलाफ खोला। इससे जहां एक ओर चीन के खिलाफ एक जुट हो रहे जापान, फिलिपिंस, दक्षिन कोरिया, आॅस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, मलेशिया, भारत आदि देशों में अमेरिका के प्रति न केवल अकर्षण बढ़ेगा अपितु अरबों-खरबों के अमेरिकी आधुनिक हथियार भी बिकेंगे। दूसरी ओर अमेरिका यदि यूके्रन के बहाने यूरोप में अपना मोर्चा खालता है तो युरोपिय संघ से जुड़े तमाम देश रूसी उर्जा आपूर्ति से दूर चले जाएंगे और तब आसानी से अमेरिका उन्हें अपना प्राकृतिक गैस व तेल बेच सकेगा।
वास्तविकता यही है कि रूस-यूक्रेन गतिरोध के पीछे अमेरिका के तेल का छुपा खेल है। रूस और यूक्रेन के बीच तनावा का फायदा उठा कर अमेरिका एक ओर रूस को सबक सिखाना चाहता है तो दूसरी ओर यूरोप पर अपनी पकड़ मजबूत बनाना चाहता है। रूस और यूक्रेन को लेकर समूचे यूरोप में तनाव व्याप्त है। अमेरिका इस तनाव में अपनी रोटी सेकने की फिराक में है। अमेरिका चाहता है कि यूरोप में आ रही रूस की गैस और तेल सप्लाई को किसी सूरत से रोक दिया जाए। रूस और यूक्रेन के बीच जो विवाद छिड़ा है उसकी जहां एक वजह क्रीमिया व नाटो बना है, वहीं दूसरी ओर तेल का व्यापार भी है। फिलहाल यही वजह सबसे बड़ी है और अमेरिका इस वजह को छिपा रूस और यूक्रेन के बीच के तनाव को बढ़ाने की कोशिश में लगा है।
जानकारी में रहे कि यूरोप, रूस की गैस और तेल सप्लाई पर निर्भर करता है। अमेरिका इस तनाव के बहाने चाहता है कि यूरोप में हो रही इस सप्लाई को खत्म किया जाए। इस तनाव के पीछे अमेरिका क्षद्म रणनीति काम कर रही है। अमेरिका कहीं न कहीं चाहता है कि यूरोप में जो गैस और तेल सप्लाई रूस से की जा रही है वो अमेरिका से की जानी चाहिए। अमेरिका ने जर्मनी जो यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, पर इस बात का दबाव बनाना शुरू कर दिया है कि वो रूस की नार्ड स्ट्रीम-2 गैस पाइपलाइन को मंजूरी न देने की अपील कर चुका है। यूरोप के कई दूसरे देशों को भी अमेरिका इस मुद्दे पर अपने साथ मिला चुका है। यूरोप के देश अमेरिका के साथ मिलकर जर्मनी पर लगातार इस बात का दबाव बना रहे हैं, वो इस गैस पाइपलाइन को मंजूरी न दे। आपको बता दें कि रूस प्राकृतिक गैस का सबसे बड़ा उत्पादक देश है। अमेरिका अपने हितों को साधने के लिए इस बात की पूरी कोशिश कर रहा है कि ये तनाव किसी भी सूरत से कम न हो सके।
यूक्रेन-रूस गतिरोध या फिर चीन के साथ दक्षिण चीन सागर का विवाद, जो बिडेन का चीन-रूस गठबंधन के खिलाफ बड़ी कार्रवाई मानी जानी चाहिए। इससे अमेरिका को कहीं कोई घाटा होता नहीं दिख रहा है। इस दोनों विवाद के बढ़ने से अमेरिकी अर्थव्यवस्था को फायदा होगा। यदि अमेरिका रणनीति हारी तो भी यह बिडेन का सेफ गेम साबित होग। यहां अफगानिस्तान या फिर मुस्लिम जगत की तरह कोई बड़ी चुनौती नहीं है। इसलिए जो बेडिन को कुशल, चालाक और शातिर रणनीतिकार कहा जाना चाहिए, जो अमेरिकी राष्ट्रवाद को नए सिरे से परिभाषित कर रहे हैं।