गौतम चौधरी
वर्तमान प्रगतिशील दौर में यदि मुस्लिम महिलाओं को सशक्त किया जाय तो वह मस्जिद व खानकाहों में महिलाओं के प्रवेश को लेकर व्यापक मुहिम चला सकती है। यहां एक बात बता दूं कि पुराने समय में भी राजनीतिक रूप से, मुस्लिम महिलाओं को सम्राटों द्वारा विश्वास में लिया गया था। दुनिया के प्रभावशाली इस्लामिक सम्राटों ने उन महिलाओं से हर स्तर पर उनसे सलाह ली और उसे सत्ता एवं शासन में क्रियान्वित किया। इतिहासकारों की मानें तो मुगल वंश के संस्थापक जहीरुद्दीन बाबर ने भी लड़ाई के लिए बाहर निकलने से पहले अपनी महिलाओं, माँ, पत्नियों और बेटियों से सलाह ली थी। भारतीय मध्यकालीन युग में मुस्लिम महिलाओं के सशक्तिकरण की शुरुआत रजिया सुल्तान और महम अंगा के उदाहरणों से की जा सकती है।
दिल्ली सल्तनत की शासक रजिया सुल्तान 13वीं शताब्दी की शुरुआत में दिल्ली की पहली महिला शासक बनीं। रजिया सौतेले भाई मुइज उद-दीन बहराम से पहले गद्दी पर बैठी। वह प्रशासन में निपुण थी और युद्ध में सल्तनत का नेतृत्व करने में सक्षम थी। लेकिन उस समय उलेमाओं ने शुरू में उनकी उम्मीदवारी का विरोध किया था। सल्तनत का नियंत्रण संभालने के लिए, वह मेहरौल्ट में कुव्वतुई इस्लाम मस्जिद गई, जिसे उत्तर भारत की पहली मस्जिद कहा जाता है। उन्होंने शुक्रवार के दिन ऐसा किया, जब मस्जिद में बड़ी संख्या में नमाजी उपस्थित थे। रजिया ने अपनी सल्तनत की सुरक्षा के लिए मस्जिद में उपस्थित प्रभावशाली लोगों के सामने अपना दावा पेश किया। कुव्वतुई इस्लाम मस्जिद में अपने संबोधन से, रजिया ने न केवल अन्य महिलाओं को मस्जिद जाने के लिए तर्क प्रस्तुत किए बल्कि मस्जिद बनाने के लिए भी रास्ता दिखाया। उस दिन खुतबा भी उनके नाम पर पढ़ा गया, जो भारत की तारीख में दर्ज इतिहास ऐसा पहला खुतवा है।
दिल्ली में खैरुल मंजिल मस्जिद जिसे 1561 में महानतम मुगल शासक जलालुद्दीन अकबर की पालक मां महम अंगा ने बनवाया था। कहा जाता है कि यह दिल्ली की पहली मस्जिद है जिसे किसी महिला ने तामीर की थी। मस्जिद के केंद्रीय मेहराब में एक शिलालेख है, जो स्पष्ट रूप से बताता है कि मस्जिद का निर्माण महम अंगा द्वारा किया गया था। संयोग से, कई मुगल राजकुमारियों ने भी मस्जिदों का निर्माण करवाया था। मस्जिद से जुड़ा एक मदरसा था, जो बच्चों की इस्लामी शिक्षा के लिए खुद अंगा द्वारा वित्त पोषित था।
मध्ययुगीन भारत में कई मस्जिद शाही महिलाओं और यहां तक कि रईसों के परिवारों द्वारा पोषित थे। सिर्फ मस्जिद ही नहीं, सूफी खानकाहों और दरगाहों में भी महिलाएं जाती थीं और कहा जाता है कि उन्होंने सूफियाना कलाम गाने में बड़े उत्साह के साथ भाग लेती थी। ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर 13वीं शताब्दी की शुरुआत से, महिलाएं खानकाहों के संरक्षण में लगातार अपना योगदान दे रही थीं। चूंकि अधिकांश दरगाहों और खानकाहों से मस्जिदें जुड़ी हुई थीं, सूफियों ने वहां महिलाओं के प्रवेश के खिलाफ कोई कठोर वक्तव्य नहीं दिया। यह दिखाने के लिए एक भी ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं है कि महिलाओं को मस्जिदों में प्रवेश करने से कभी मना किया गया हो। उलेमाओं द्वारा मस्जिदों में महिलाओं के प्रवेश के खिलाफ फतवा जारी करने का कोई ऐसा पुराना रिकॉर्ड भी नहीं मिलता है। उदाहरण के लिए, दिल्ली के वजीराबाद में एक तुगलक युग की मस्जिद में एक ऊंचा कक्ष है, जो जाली की दीवारों से घिरा हुआ है। कहा जाता है कि यहां शाही महिलाओं के नमाज पढ़ने की व्यवस्था थी।
अधिकांश इतिहासकारों का मानना है कि वजीराबाद मस्जिद में जालीदार दीवारों के पीछे का स्थान महिला उपासकों के लिए आरक्षित था। इस मस्जिद में पुरूष श्रद्धालू मुख्य हॉल में नमाज पढ़ते थे और महिलाएं जाली की दीवारों के पीछे नमाज अता करती थी।
मस्जिदों के अंदर महिलाओं के प्रवेश पर रोक लगाने वाले कोई स्पष्ट चिह्न पूरे इस्लामिक इतिहास में कहीं नहीं मिलता है। मुगलों के पतन और अंग्रेजों के आने के साथ यह सब बदलना शुरू हुआ। फिरंगियों ने अपने तारीके से इस्लाम की व्याख्या करवाई और फालतू के रूढ़ि को इस्लामिक मूल्य कहकर प्रचारित किया। मस्जिद, खानकाह और कब्रिस्तानों से महिलाओं को बेदखल कर दिया गया। आध्यात्मिक उत्थान के लिए उन्हें मस्जिदों में प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी। उन्हें कब्रिस्तान में अपने निकट और प्रिय लोगों की कब्र पर फातिहा करने से भी रोका जाने लगा। इस दौरान महिलाओं का हज के लिए जाना जारी रहा। मध्ययुगीन और आधुनिक काल में भी, महिलाओं को हज पर जाने के अधिकार से कभी वंचित नहीं किया गया था। अन्य इस्लामिक देशों की तरह हमारे देश की महिलाएं भी हज करती रही। मक्का और मदीना दोनों में प्रार्थनाएं करती रही लेकिन अपने यहां उन्हें मस्जिद से वंचित कर दिया गया। आज भी भारत की मुस्लिम महिलाएं पैगंबर मोहम्मद की पत्नियों के अंतिम विश्राम स्थल पर जा रही हैं।
यह कितनी बड़ी विडंबना है कि इस्लाम के भारतीय रूप का मतलब है, महिलाएं मस्जिदों का निर्माण कर सकती हैं, या उनके वित्तपोषण में भाग ले सकती हैं लेकिन उनके अंदर नियमित नमाज नहीं पढ़ सकती हैं। आज महिलाएं उन मस्जिदों में नमाज के लिए नहीं जा सकतीं जिन्हें उस युग की प्रभावशाली महिलाओं ने बनाया था। कुल मिलाकर यह अंग्रेजों का खड़ा किया गया फसाद है। अब इसे ठीक किया जाना चाहिए और मस्जिदों में महिलाओं के लिए अलग से व्यवस्था की जानी चाहिए। इससे न तो इस्लामी मूल्यों को ठेस पहुंचेगा और न ही महिलाओं के अधिकारों का हनन होगा।