गौतम चौधरी
झारखंड भाजपा विगत लंबे समय से गुटबाजी का दंश झेल रही है। यह गुटबाजी अब नए दौर में पहुंच गया है। जहां एक ओर झारखंड प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के नव नियुक्त अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी अपनी पूरी ताकत के साथ मैदान में हैं, वहीं उनके धुर विरोधी उनकी योजनाओं पर पनी फेरने में लगे हैं। विरोधियों की चर्चा यहां करना उचित नहीं है लेकिन झारखंड भाजपा की थोड़ी समझ रखने वाले इस बात से वाकफ हैं कि बाबूलाल के विरोधियों की संख्या कितनी हैं और वे कौन-कौन से नेता हैं।
खैर, फिलहाल उन विरोधियों के द्वारा दो प्रकार के नैरेटिव सेट किए जा रहे हैं, जिससे आने वाले समय में भाजपा के अभियान को थोड़ा नुक्शान तो जरूर होता दिख रहा है। साथ ही इन दोनों नैरेटिवों से प्रतिपक्षी कांग्रेस को लाभ मिलने की पूरी संभावना है।
अब हम सीधे-सीधे नैरेटिव पर आते हैं। आपको बता दें कि जब बिहार से विभाजित होकर झारखंड का गठन हुआ और बाबूलाल मरांडी उसके मुख्यमंत्री बने तो झारखंडी स्मिता को लेकर एक आन्दोलन खड़ा हुआ। हालांकि उस आन्दोलन की पृष्ठभूमि पहले से बन चुकी थी। यहां झारखंड के मूलवासी और बाहर का गतिरोध पुराना है। उस आन्दोलन के दौरान कथित रूप से बिहारी प्रवासियों को टारगेट किया गया। इसके कारण भाजपा की बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व वाली सरकार काफी बदनाम हुई। हालांकि वह आन्दोलन स्वाभाविक था। इसमें बाबूलाल की भूमिका नहीं के बराबर थी लेकिन विरोधियों ने उस आंदोलन को बाबूलाल के खिलाफ तीक्ष्ण हथियार के रूप में प्रयुक्त किया और इस बात का प्रचार किया कि आन्दोलन के केन्द्र में बाबूलाल मरांडी ही थे। उस दाग से बाबूलाल अभी तक उबर नहीं पाए हैं। कारण चाहे जो भी रहा हो लेकिन बाबूलाल उस आन्दोलन को संभालने में थोड़ी देर कर दी थी। दूसरी गलती बाबूलाल ने झारखंड के पिछड़ी जाति के साथ किया। उनके आरक्षण का कोटा घटा अनुसूचित जनजाति का कोटा बढ़ा दिया। बाबूलाल मरांडी ने पिछड़ों के साथ कई प्रकार के भेदभाव किये, जिसके कारण उस वर्ग के वोटर आज भी बाबूलाल को अपना विरोधी मानते हैं। जब से बाबूलाल मरांडी भाजपा के अध्यक्ष बनाए गए हैं तब से इन दोनों बातों का प्रचार बड़ी तेजी से किया जा रहा है और जानकारों की मानें तो वह प्रचार विरोधी नहीं भाजपा के अंतःपुर से जारी किया जा रहा है।
दूसरा नैरेटिव आजसू को लेकर है। जानकारी में हो कि झारखंड आन्दोलन दो धाराएं थी। एक भाजपा और दूसरी साम्यवादी। साम्यवाद में भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने झारखंड का कभी समर्थन नहीं किया। भाकपा सदा से बड़े राज्य की हिमायती रही है लेकिन माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, माले, एके राय गुट वाली माक्र्सवादी समन्वय समिति आदि झारखंड आन्दोलन में बड़ी भूमिका निभाई। यही नहीं झारखंड में सक्रिय ईसाई मिशनरियों ने भी झारखंड आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। ये तमाम, ईसाई मिशनरियों के लिब्रेशन थिआॅलाजी के प्रभाव से झारखंड विभाजन आन्दोलन में सक्रिय हुए लेकिन एक दूसरी धारा भी थी जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके विचार परिवार से संबद्ध थी। भाजपा उसका मुखौटा था। उपर वाले समूह ने दो संगठन को खड़ा किया। एक राजनीतिक था तो दूसरा सामाजिक व सांस्कृतिक। राजनीतिक संगठन के तौर पर झारखंड मुक्ति मोर्चा अस्तित्व में आया, तो सामाजिक संगठन के तौर पर आॅल झारखंड एस्टूडेंट यूनियन जिसे आजसू भी कहा जाता है, का गठन हुआ। आजसू गैर राजनीतिक संगठन था और किसी समय इसका जुड़ाव आॅल असम एस्टूडेंट यूनियन के साथ भी बताया जाता है। कुछ जानकार तो यहां तक कहते हैं कि आजसू का संबंध असम में सक्रिय कई पृथकतावादी संगठनों के साथ भी था लेकिन इसके प्रमाण कभी सामने नहीं आए।
आजसू अब झारखंड की एक महत्वपूर्ण राजनीतिक पार्टी बन गयी है। चूंकि आजसू का गठन ही झारखंड में स्थानीय लोगों के प्रभाव को बढ़ाने के लिए किया गया है इसलिए आज भी उसमें यह तत्व विद्यमान है। अब आजसू भाजपा के साथ है। पिछले 2019 के विधानसभा चुनाव में भले यह भाजपा से अलग होकर चुनाव लड़ी हो लेकिन आजसू एक बार फिर भाजपा के साथ गठबंधन में है। इस बात की पूरी संभावना है कि 2024 का लोकसभा और विधानसभा चुनाव आजसू भाजपा के साथ मिलकर लड़े। ये तमाम बातें सामान्य है लेकिन इसमें कुछ खास भी है। प्रवासी खासकर बिहार के झारखंडी वोटरों में इस बात की चिंता है कि बाबूलाल और आजसू का इकट्ठा होना उनके लिए कहीं खतरा न पैदा कर दे। बाबूलाल के विरोधी इस बात का भी जमकर प्रचार कर रहे हैं। विरोधी कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा इस मामले को हाथों हाथ ले रहे हैं।
इन दोनों नैरेटिव का जवाब बाबूलाल को देना होगा और अपने पारंपरिक मतदाताओं को यह विश्वास दिलाना होगा कि उनकी सरकार में ऐसा कुछ भी नहीं होगा। रामगढ उपचुनाव में भाजपा ने प्रवासी मतदाताओं को आजसू के पक्ष में मत देने के लिए मना लिया था लेकिन जानकारों की मानें तो रामगढ़ के प्रवासी मतदाताओं में आजसू के प्रति लगातार डर बढ़ रहा है। इसका प्रभाव अभी फिलहाल डुमरी उपचुनाव पर भी पड़ने की पूरी संभावना है। भाजपा और खासकर बाबूलाल मरांडी इस नैरेटिव को फ्यूज नहीं कर पए तो आने वाले लोकसभा चुनाव में तो इसका प्रभाव कम दिखेगा लेकिन विधानसभा में कठिनाई खड़ी हो सकती है।