गांधीनगर/ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दूरदर्शितापर्ण नेतृत्व में वर्ष 2019-20 में नेशनल बाम्बू मिशन प्रारंभ किया गया था। इस योजना के अंतर्गत बांस की खेती करने वाले किसानों को वित्तीय सहायता एवं प्रोत्साहन दिए जाते हैं। गुजरात में इस मिशन को पूर्ण प्रतिबद्धता से लागू किया गया है और पिछले तीन वर्षों में नेशनल बाम्बू मिशन योजनांतर्गत गुजरात में बांस की खेती करने वाले किसान लाभार्थियों की संख्या दुगुनी हो गई है। योजना शुरू होने के बाद वर्ष 2020-21 में इस योजनांतर्गत 306 लाभार्थी लाभ प्राप्त कर रहे थे, जिनकी संख्या आज वर्ष 2022-23 में दुगुनी हुई है। आज जब मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल के नेतृत्व में गुजरात कृषि क्षेत्र में उत्तरोत्तर विकास कर रहा है, तब राज्य में बांस की खेती को भी संपूर्ण प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
उल्लेखनीय है कि बाँस एक अत्यंत उपयोगी वृक्ष है, जिसका उपयोग प्राचीन समय में घर तथा मकानों की मजबूती के लिए किया जाता था। आज 21वीं शताब्दी में भी बाँस का उपयोग विवाह मंडप, संगीत के संसाधन-उपकरण, घर की सजावट की कीमती वस्तुओं आदि के लिए किया जाता है। बांस से आयुर्वेदिक औषधियाँ तथा दवाइयाँ भी बनाई जाती हैं और बाँस से बनने वाले खाद्य व्यंजन भी अत्यंत लोकप्रिय हैं। बाँस के ऐसे पेड़ों के संरक्षण के प्रति जागरूकता लाने के लिए हर वर्ष 18 सितंबर को वर्ल्ड बाम्बू ऑर्गेनाइजेशन द्वारा वर्ल्ड बाम्बू डे (विश्व बांस दिवस) मनाया जाता है।
नेशनल बाम्बू मिशन योजना के विषय में विस्तारपूर्वक जानकारी देते हुए गुजरात के सामाजिक वनीकरण विभाग के अतिरिक्त प्रधान मुख्य वन संरक्षक डॉ. ए. पी. सिंह ने बताया कि नेशनल बाम्बू मिशन योजनांतर्गत पिछले 3 वर्षों में लाभार्थियों की संख्या दुगुनी हुई है और बुवाई क्षेत्र में भी वृद्धि हुई है। वर्ष 2020-21 में राज्य में बाँस का बुवाई क्षेत्र 897 हेक्टेयर था और 306 लाभार्थियों ने इस योजना का लाभ लिया था। आज वर्ष 2022-23 में बाँस का बुवाई क्षेत्र 1226 हेक्टेयर हुआ है तथा लाभार्थियों की संख्या बढ़ कर 646 हुई है। उन्होंने बताया कि किसानों को बाँस की बुवाई तथा स्वयंसहायता समूहों के लिए प्रोत्साहित करने वाली योजनाएँ लाई गई हैं, जिससे अधिक से अधिक किसान कम ख़र्च से इसमें जुड़ सकें तथा अपनी आय में वृद्धि कर सकें।
नेशनल बाम्बू मिशन के अंतर्गत हाई डेंसिटी बुवाई (भ्क्च्) मॉडल और ब्लॉक बुवाई (ठच्) मॉडल से बाँस की बुवाई की जाती है और बाँस की खेती करने वाले किसानों को प्रति पौधा तीन वर्ष के लिए 120 रुपए की वित्तीय सहायता दी जाती है। भ्क्च् तथा ठच् मॉडल से बुवाई करने के लिए किसान को पहले वर्ष में 60 रुपए, दूसरे वर्ष में 36 रुपए तथा तीसरे वर्ष में 24य इस प्रकार तीन वर्ष में कुल 120 रुपए की वित्तीय सहायता दी जाती है।
डॉ. ए. पी. सिंह ने आगे बताया कि दिनांक 11 सितंबर से 18 सितंबर तक नवसारी एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी में राज्य स्तर पर बाँस की खेती एवं बाँस से बनने वाली प्रोडक्ट्स के लिए एक सप्ताह के ट्रेनिंग प्रोग्राम तथा वर्कशॉप का आयोजन किया गया है। इसमें ज्ञटज्ञ किसान, छळव्े, वन विभाग के कर्मचारी, विद्यार्थी एवं स्थानीय बाँस कला के कारीगर भाग ले रहे हैं। इस वर्कशॉप में विशेषज्ञों द्वारा बाँस की सफल बुवाई तथा पालन के लिए लेक्चर का आयोजन और बाँस बुनाई, हैंडीक्राफ्ट, आर्किटेक्चरल ट्रेनिंग, बाँस से खाद्य सामग्री बनाने की ट्रेनिंग व एग्जीबिशन का आयोजन किया गया है।
बांस की पंजीकृत कई प्रजातियों में से केवल दो प्रजातियाँ डेंड्रोकैलेमस स्ट्रिक्ट्स (मानवेल) तथा बाम्बूसा अरुंडीनेसिया (काटस) गुजरात में औद्योगिक रूप से सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रजातियाँ हैं, जो प्राकृतिक रूप से जंगलों में पाई जाती हैं। राज्य के 15 जिलों में बाँस पाया जाता है और वह दक्षिण, मध्य तथा उत्तर गुजरात के हिस्सों में फैला हुआ है। राज्य में बाँस का कुल क्षेत्र 3547 वर्ग किलोमीटर है। पिछले कुछ वर्षों में नर्मदा, डांग तथा दक्षिण गुजरात के तापी, सूरत व वलसाड जिलों में बाँस के वन स्थित है।