गौतम चौधरी
पूरी दुनिया में श्रीराम मंदिर के निर्माण को लेकर जबरजस्त उत्साह है। इधर देश से लेकर विदेश में भगवान श्रीराम से जुड़ी कई कथाओं की चर्चा हो रही है। लोग अपने अपने ढंग से भगवान श्रीराम के साथ अपना निश्ता जोड़ रहे हैं। यहां तक कि कई परिवार अपने को भगवान श्रीराम का वास्तविक वंशज बता रहा है। ऐसे समय में भगवान राम की कथाओं और इतिहास का अध्ययन से एक तथ्य ऐसा भी सामने आया है, जिसमें बताया गया है कि झारखंड, छत्तीसगढ, ओडिशा आदि प्रांतों में निवास करने वाली जनजाति, उरांव भगवान श्रीराम का वंशज है। अभी तक उस ओर किसी का ध्यान नहीं गया है लेकिन इस जनजाति से जुड़े कुछ लोगों की मान्यता है कि वे लोग ही भगवान श्रीराम के वास्तविक वंशज हैं। दरअसल, इनकी मान्यता में ओराम शब्द को लेकर यह बात रूढ़ हुई है। ओराम का ही अपभ्रंश उरांव है और उरांव जनजाति की पहचान इसी नाम से है। इसके अलावा झारखंड के आदिवासी समाज में वैष्णव संप्रदाय को मानने वालों में एक टानाभगत और दूसरा सफाहोड़ संप्रदाय है। ये दोनों माता सीता को अपनी मां मानते हैं और भगवान राम को पिता की तरह पूजते हैं। इस समुदाय के चिंतक और धर्मगुरुओं का मानना है कि उनकी वंश परंपरा भगवान राम से प्रारंभ होती है। उरांव आदिवासी के सबसे प्रभावशाली देवता भगवान सूर्य हैं। भगवान राम की वंश परंपरा भी सूर्य से प्रारंभ होती है।
अब हम बात करेंगे बिहार के रोहताश गढ़ के इतिहास और उससे जुड़े हुए उरांव जनजाति की। दावा किया जाता है कि भगवान श्रीराम के पूर्वज सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र के पुत्र राजा रोहिताश ने ही रोहलाश गढ़ का किला बनवाया था। उसी किले में उरांव जनजाति निवास करती थी। इस दावा का समर्थन आज भी बिहार के रोहताश गढ़ में स्थित वह किला करता है, जहां प्रत्येक वर्ष माघ पूर्णिमा पर न केवल उरांव समाज के लोग बल्कि देश के अन्य समाज के लोग भी भारी संख्या में वहां जुटते हैं और अपने पुरखों की इस विरासत को देखकर गर्व महसूस करते हैं।
विदित हो कि रोहताश गढ़ के किले का निर्माण राजा हरिश्चंद के पुत्र राजा रोहिताश के द्वारा कराया गया था। उरांव जनजाति के पूर्वज शासक हुआ करते थे किंतु आज से लगभग 300 वर्ष पूर्व अफगानों के आक्रमण के बाद उन्हें वहां से बेदखल किया गया। तब से उरांव जनजाति के लोग महल छोड़ छोटा नागपुर के जंगलो की ओर पलायन कर गए लेकिन उन्होंने आज भी भगवान राम से जुड़ी अपनी परम्पराओ से कभी समझौता नहीं किया।
मान्यता है कि रोहताश गढ़ के किले में रहने के दौरान उरांव जनजाति के पुरखे उरगन ठाकुर के रूप में जाने जाते थे। तभी अफगान सम्राट शेरशाह सूरी के द्वारा उनके किले पर हमला किया गया। आक्रमण के दौरान पुरुष योद्धा मदिरा का सेवन कर अफगानों के आगे घुटने टेकने लगे, तभी राजा और सेनापति की पुत्रियां सिनगी और कैली दई ने अपने राज्य को बचाने के लिए पुरुषों का वेश धारण कर मोर्चा सम्भाल लिया। इन दोनों उरांव वीरांगनाओं ने तीन बार अफगानों की सेना को पराजित कर दिया। कहा जाता है कि तभी अफगानों को गुप्तचर ने सूचना दी कि उनकी सेना जिनसे हार रही है, वह दरअसल, पुरुष नहीं बल्कि महिलाएँ हैं। यह जानकारी होने के बाद अफगान सैनिकों ने पुनः उन पर हमला किया और अंततः महिलाओं के नेतृत्व वाली सेना को हारना पड़ा। कहा जाता है कि अफगानों से हारने के बाद उरांव जनजाति के पुरखे जंगलो की ओर पलायन कर गए और अपने साथ देवी देवताओं को भी लेकर भागे किंतु लगातार अफगानों के द्वारा पीछा करने के कारण अपने देवी देवताओं को साल के घने पेड़ो के बीच छुपा दिया और आगे बढ़ते गए। कालांतर में उरांवों ने उसी घने साल पेड़ को पवित्र मान लिया और उसकी पूजा करने लगे।
कहा यह भी जाता है कि जब उरांव जनजाति के पुरखे जंगलो में आपस मे मिलते तब एक दूसरे से ओराम का अभिवादन करते थे। बाद में गांव में रहने वाले लोग ओ राम से उरांव कहने लगे। आज भी उड़ीसा क्षेत्र में रहने वाले उरांव जनजाति के लोग अपने नाम के साथ ओराम ही लिखते हैं। इसके अलावा छत्तीसगढ़ में रहने वाले उरांव जनजाति के लोग अपने नाम के साथ राम शब्द लिखते हैं। यह परम्परा आज भी चली आ रही है।
रोहताश गढ़ का किला 28 मिल की चाहरदीवारी से घिरा हुआ है, जिसमें महल के अलावा भगवान श्री गणेश, शिव एवम माता दुर्गा का मंदिर स्थापित है। यहां आज भी पूजा होती है, जो प्रमाणित करता है कि यह किला राजा रोहिताश के द्वारा तैयार कराया गया है। इसके अलावा आज भी उरांव जनजाति के लोगों की लोककथाओं, लोकगीतों में भगवान श्री राम का उल्लेख होता है। साथ ही रोहताश गढ़ के शौर्य के इतिहास को स्मरण किया जाता है। ऐसे कई तथ्यों को यदि सिलसिलेवार देखा जाए तो यह प्रमाणित होता है कि वास्तव में उरांव जनजाति का सीधा सम्बंध भगवान श्रीराम से है।
वैसे प्रामाणिक इतिहास के अनुसार ओरांव या उरांव छोटा नागपुर क्षेत्र का एक आदिवासी समूह है। उरांव नाम इस समूह को दूसरी जनजातीय समूहों ने प्रदान किया है। अपनी लोकभाषा में यह समूह अपने आपको कुरुख नाम से वर्णित करता है। अंग्रेजी में ओ अक्षर से लिखे जाने के कारण इस समूह के नाम का उच्चारण ओरांव किया जाता है।
उरांव भाषा द्रविड़ परिवार की है, जो समीपवर्ती आदिवासी समूहों की मुंडा भाषाओं से सर्वथा भिन्न है। भाषा विज्ञानियों की मानें तों उरांव भाषा और कन्नड में अनेक समताएं हैं। संभवतः इन्हें ही ध्यान में रखते हुए, गेट ने 1901 की अपनी जनगणना की रिपोर्ट में यह संभावना व्यक्त की थी कि उराँव मूलतः कर्नाटक क्षेत्र के निवासी हैं। उनका अनुमान था कि इस समूह के पूर्वज पहले कर्नाटक से नर्मदा उपत्यका में आए और वहाँ से बाद बिहार राज्य के सोन तट पर आकर बस गए। पर्याप्त प्रमाणों के अभाव में इस अनुमान को वैज्ञानिक उचित नहीं मानते हैं।
अधिकांश उरांव इस समय रांची जिले के मध्य और पश्चिमी भाग में रहते हैं। उरांव समूह के प्रथम वैज्ञानिक अध्येता स्वर्गीय शरच्चन्द्र राय का मत है कि बिहार में ये पहले शाहाबाद जिले के सोन और कर्मनाशा नदियों के बीच के भाग में रहते थे। यह क्षेत्र कुरुख देश के नाम से जाना जाता था। कुरुख शब्द संभवतः किसी मूल द्रविड़ शब्द का बिगड़ा हुआ रूप है। राय का अनुमान है कि इस मूल शब्द का अर्थ मनुष्य रहा होगा। हालांकि इतिहास के विद्वान और उरांव समाज से आने वाले डाॅ. दिवाकर मिंज राय को बहुत प्रमाणिक इतिहासकार नहीं मानते हैं और कहते हैं कि आदिवासी इतिहास लेखन को नई दिशा देने की जरूरत है। डाॅ. मिंज का कहना है कि राय चूंकि अंग्रेजों के लिए काम करते थे इसलिए साम्राज्यवादियों के हितों के ध्यान में रखकर उन्होंने अपनी संकल्पना प्रस्तुत की है। इसलिए उनके तथ्यों को प्रमाणिक मानना यथोचित नहीं होगा।
इस समूह की अर्थव्यवस्था मूलतः कृषि पर अवलंबित है। थोड़ा आखेट के द्वारा भी ये अपनी जीविका उर्जित करते हैं। जाल और फंदों द्वारा वे जंगली जानवर और मछलियाँ पकड़ते हैं। इससे यह साबित होता है कि ये पुराने समय से तकनीक आदि से परिचित थे।
उरांव अनेक गोत्रों में विभाजित हैं। गोत्र के भीतर वैवाहिक संबंध निषिद्ध होते हैं। प्रत्येक गोत्र का अपना विशिष्ट गोत्र चिन्ह होता है। उरांव के 68 गोत्रों की सूची प्रात हुई है। इनमें से 16 के गोत्र चिन्ह जंगली जानवरों पर, 12 के पक्षियों पर, 14 के मछलियों तथा अन्य जलचरों पर, 19 के वनस्पतियों पर, 2 के खनिजों पर, 2 के स्थानीय नामों पर तथा 1 का सर्पो पर आधारित है। शेष दो विभाजित गोत्र हैं। प्रत्येक गोत्र अपने आपको एक विशिष्ट पूर्वज की संतान मानता है, यद्यपि गोत्र चिन्ह को ही पूर्वज मानने का विश्वास उनमें नहीं पाया जाता। गोत्रचिह्न के संबंध में उनका विश्वास है कि उनके पूर्वजों को उससे प्राचीन काल में कोई न कोई अविस्मरणीय सहायता मिली थी, जिसके कारण समूह के एक खंड का नाम उससे अविभाज्य रूप से संबद्ध हो गया। प्रत्येक गोत्र अपने गोत्र चिन्ह वाले प्राणी, वृक्ष अथवा पदार्थ का किसी भी तरह उपयोग नहीं करते। उसे किसी भी प्रकार हानि पहुँचाना भी उनके सामाजिक नियमों द्वारा वर्जित है। यदि उनका गोत्र चिह्न कोई प्राणी या पक्षी है, तो वे न तो उसका शिकार करेंगे और न उसका मांस खाएंगे। इसी तरह यदि उनका गोत्र चिह्न कोई वृक्ष है तो वे उसकी छाया में भी नहीं जायेंगे।
उराँव समाज में संबंध व्यवस्था वर्गीकृत संज्ञाव्यवस्था पर आधारित होती है। विवाह सदा गोत्र के बाहर होते हैं। तीन पीढ़ियों तक के कतिपय रक्तसंबंधियों और वैवाहिक संबंधियों में भी विवाह का निषेध होता है। इस प्रकार प्रमाणित होता है कि अन्य भारतीय जातियों में जो परिपाटी है वही उरांव जनजाति में भी देखने को मिलता है।
प्रत्येक उरांव ग्राम की अपनी स्वतंत्र नियंत्रण व्यवस्था होती है। सामाजिक नियमों के उल्लंघन पर विचार गांव के पंच करते हैं। गाँव के महतो और पाहन इस कार्य में उनका निर्देश करते हैं। पंचों की बैठक बहुधा गाँव के अखड़ा, जिसे वे पवित्र मानते हैं वहां होती है। राज्य-शासन-व्यवस्था का विस्तार अब आदिवासी क्षेत्रों में हो चुका है, इसलिए पंचों की परंपरागत शक्ति बहुत अंशों में क्षीण हो गई है। वे अब जातीय परंपराओं के उल्लंघन पर ही विचार कर सकते हैं।
उरांवों का अन्तर-ग्राम-संगठन भी उल्लेखनीय है। कई समवर्ती ग्राम परहा के रूप में संगठित होते हैं। उनके केन्द्रीय संगठन का नाम परहा पंच होता है। परहा का सबसे महत्वपूर्ण गाँव राजा-गाँव माना जाता है। तीन अन्य महत्वपूर्ण गाँव अपने महत्व के अनुसार क्रमशः दीवान गांव, पानरे गांव (लिपिक ग्राम) और कोटवार ग्राम माने जाते हैं। शेष सब प्रजा गांव माने जाते हैं। परहा संगठन अपने सब सदस्य ग्रामों की सुरक्षा का प्रबंध करता है। मानवीय तथा अमानवीय प्राकृतिक तथा दैवी, प्रत्येक प्रकार की शक्तियों से ग्राम समूह को बचाना इस संगठन का मुख्य कार्य होता है। परहा संगठन की ओर से सामूहिक शिकार, नृत्य, भोज इत्यादि का भी आयोजन किया जाता है। वे मेले और जात्राओं का भी प्रबंध करते हैं। जातीय लड़ाइयों में परहा के सदस्य एक दूसरे की सहायता करते हैं।
धूमकुड़िया, उरांवों की एक विशिष्ट शैक्षणिक सांस्कृतिक संस्था है। उरांव समाज में लड़कों और लड़कियों की अलग-अलग धूमकुड़िया होती है यद्यपि वे एक दूसरे के पास आ जा सकने के लिए स्वतंत्र रहते हैं। धूमकुड़िया उरांवों की एक विशिष्ट शैक्षणिक संस्थाएं थी, जिसे बाहरी विद्वानों ने गलत तरीके से परिभाषित किया है। पहले यहां सूचना और अनुभवों को साझा किया जाता था और नए सदस्यों को प्रशिक्षित किया जाता था। जीवन के प्रत्येक पहलुओं को यहां समझा और समझाया जाता था लेकिन बाहरी विद्वानों ने इसे युवागृह के रूप में परिभाषित कर दिया, जिससे इसकी विशिष्टता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। यह संस्था उरांव जनजाति की सांस्कृतिक पहचान थी लेकिन समवर्ती जातियों की आलोचना के कारण इस संस्था का ह्रास होता जा रहा है। उसकी संख्या कम हो गई है। जहाँ वह आज भी पाई जाती है वहाँ उसके आंतरिक संगठन में अनेक मूलभूत परिवर्तन कर दिए गए हैं।
उरांव जनजाति का सबसे प्रभावशाली देवता सूर्य है। राम के वंश का भी चिंह सूर्य ही है। इससे यह साबित होता है कि कहीं न कहीं उरांवों का संबंध भगवान श्रीराम की वंश परंपरा के साथ है।
(यह आलेख इंटरनेट पर प्राप्त कई छोटे-मोटे आलेखों का संग्रह है। मैंने इसे संपादित किया है। इसलिए इसे प्रमाणिक मान लेना यथोचित नहीं होगा। वर्तमान दौर में बहुत सारी बातें चल रही है। इस तथ्य को सार्वजनिक करने के पीछे एक मात्र धेय, उरांव जनजाति को जानना और उसके प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करना है। साथ ही आदिवासी इतिहास लेखन की नयी परंपरा विकसित करने के लिए शोधार्थियों को प्रोत्साहित करना है।)