गौतम चौधरी
नागरिकता संशोधन अधिनियम के बारे में कहा जा रहा है कि यह सबसे अधिक गलत और पूर्वाग्रहपूर्ण कानूनों में से एक है। इसके कारण देश में कई स्थानों पर कई विरोध प्रदर्शनों को अक्सर हिंसक होते देखा गया है। अधिनियम के प्रावधान के बारे में भावनाओं को भड़काकर और गलत धारणाएं पैदा करके अल्पसंख्यकों विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय के बीच भय पैदा करने की कोशिश की जा रही है। हालांकि इससे मुसलमानों को कोई लेना-देना नहीं है लेकिन कुछ मौकापरस्त तत्व इस मामले को लेकर देश की समावेशी सांस्कृतिक माहौल में जहर घोलने की पूरी कोशिश की है। उन तत्वों को जितनी उम्मीद थी, उतनी सफलता नहीं मिली लेकिन देश के अंदर इसको लेकर भ्रम तो पैदा किया ही गया।
सीएए के बारे में सबसे अधिक प्रचारित मिथक यह है कि इसका उद्देश्य पूर्वोत्तर के आदिवासी क्षेत्रों में अनुच्छेद 371 और आंतरिक भूमि परमिट के प्रावधानों को कमजोर करना है। सरकार में सर्वोच्च संगठनों द्वारा बार-बार यह दोहराया गया कि संविधान की छठी अनुसूची में शामिल असम, मेघालय, मिजोरम और त्रिपुरा के आदिवासी क्षेत्रों में सीएए लागू नहीं होगा। वास्तव में, मणिपुर राज्य को भी सीएए के दायरे से अलग ही रखा गया है। अनुच्छेद 371 का उद्देश्य भारत के पूर्वोत्तर भाग में रहने वाले आदिवासियों की भाषाई, सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान को संरक्षित करना है और सीएए का कोई भी प्रावधान इस अनुच्छेद का उल्लंघन नहीं करता है। ऐसे में यह कानून पूर्वोत्तर के आदिवासियों को प्राप्त पूर्व के विशेषाधिकार का हनन कैसे कर सकता है?
सीएए के बारे में एक और गलत धारणा यह है कि इसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश से हिंदुओं का नया प्रवास होगा। हालांकि सीएए का उद्देश्य पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यक प्रवासियों को कानूनी दर्जा देना है जो धार्मिक उत्पीड़न के शिकार होने के कारण भारत आए हैं। यहां साफ कर देना उचित रहेगा कि भारत के पड़ोसी तीन मुस्लिम देश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के अल्पसंख्यक – हिन्दू, बौद्ध, जैन, पारसी, ईसाई और सिख, जो 31.12.2014 तक भारत की सीमा में प्रवेश कर गए उन्हें ही इस कानून के तहत भारत की नागरिकता प्रदान की जाएगी, या की जा रही है। इसमें कहीं कोई शक नहीं है कि बांग्लादेश में हिन्दुओं की संख्या बड़ी तेजी से घटी है। इसका मलतब यह नहीं है कि वे सारे भारत में ही आ गए हैं। उनका पलायन दुनिया के कई अन्य देशों में हुआ है। इसमें से कुछ भारत भी आए हैं। उनमें से अधिकतर असम में ही नहीं बसे हैं। देश के अन्य भागों में भी उन्हें बसाया गया है। यह कांग्रेस सरकार के कालखंड में भी हुआ है। इसलिए इस पर भी विवाद ठीक नहीं है। यहां एक और मिथक का निराकरण जरूरी है कि सीएए प्रवासी बंगाली हिंदुओं के पक्ष में अपनी जनसांख्यिकीय प्रोफाइल को बदलकर असम पर बोझ डालेगा, यह भी सच नहीं है क्योंकि यह अधिनियम पूरे देश के लिए लागू है, केवल असम तक ही सीमित नहीं है। अधिकांश बंगाली हिंदू बहुत पहले ही असम के बराक घाटी में बस चुके हैं और तब से बंगाली को दूसरी राज्य भाषा घोषित किया गया है। यहां के बंगाली हिन्दू लंबे समय से असम में रह रहे हैं और असमिया संस्कृति के अंग बन चुके हैं।
इसलिए सीएए का उद्देश्य किसी भी घुसपैठिये को सुविधा प्रदान करना नहीं है। वास्तव में पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में धार्मिक उत्पीड़न के शिकार रहे हिंन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी, ईसाई पिछले 70 वर्षों से बुनियादी नागरिक अधिकारों से वंचित हैं। सीएए उन लोगों को नागरिकता देने वाली एक संवैधानिक प्रक्रिया है। इसका उद्देश्य वास्तविक शरणार्थियों को वैध बनाना है न कि घुसपैठियों को।
यह समय की आवश्यकता है कि हम स्वार्थी तत्वों द्वारा उत्पन्न इन गलत धारणाओं को भावनाओं को भड़काने वाले झूठे आख्यानों से दूर रहे। विषय को पहले खुद समझे, फिर अपने साथियों को समझाएं। अपने अन्य जानने वालों को, देशवासियों को भयमुक्त करें। यह अधिनियम एक तरह से देश के अल्पसंख्यक नागरिकों के अधिकारों पर सवाल नहीं उठाता है। वास्तव में, यह उन उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों को नागरिकता का अधिकार देता है जो शरण के लिए भारत आए हैं। भारत हमेशा अपने समावेशी समाज और संस्कृति के लिए जाना जाता है और सदियों से इसे स्वीकार किया गया है। हमारे पूर्वजों ने सभी को आत्मसात किया है। सच पूछिए तो सीएए भारतीय संस्कृति और समावेशी उदारता की अभिव्यक्ति है।