गौतम चौधरी
अभी पूरी दुनिया के मुसलमान हज करने मक्का जा रहे हैं। यह यात्रा पूरी दुनिया से लगातार जारी है। इस बीच सऊदी अरब के एक मंत्री ने 2024 के हज को लेकर एक बयान जारी किया, जिसमें उन्होंने हज पर आने वाले मुसलमानों को साफ तौर पर कहा, ‘‘वे हज पर आने के बाद सऊदी अरब में राजनीतिक नारा नहीं लगाएं और न ही किसी राजनीतिक गतिविधि में शामिल हों। उन्होंने कहा कि हज धार्मिक और ताल्लुकात्मक उपक्रम होता है और इसे राजनीतिक द्वेष या विरोध का विषय नहीं बनाया जा सकता।’’ इस बयान ने सऊदी अरब सरकार और पुरातनपंथी चरमवादियों के बीच विवाद पैदा कर दिया है। कई मुस्लिम देशों ने इसे धार्मिक स्वतंत्रता पर प्रहार बताया है। इस बयान की लगातार आलोचना हो रही है। हालांकि उक्त सऊदी मंत्री ने बयान पर सफाई भी दी, बावजूद इसके इस्लामिक दुनिया में सऊदी सरकार की आलोचना जारी है।
बता दें कि फिलहाल इजरायल और हमास के बीच आमने-सामने का युद्ध जारी है। इस युद्ध को लेकर पूरे इस्लामिक जगत की संवेदना हमास के साथ है। हालांकि इस्लामिक देशों की सरकारें अपने राष्ट्रीय हित और अहित को ध्यान में रख कर, आंशिक और गंभीर रूप से मामले में हस्तक्षेप कर रहे हैं लेकिन दुनिया का आम मुसलमान यही मान कर चल रहा है कि हमास, फिलिस्तीन की जनता के लिए लड़ रहा, जो मस्जिदे अक्सा की लड़ाई विगत कई दशकों से जारी रखे हुए है। सऊदी सरकार को इस बात का डर है कि जब दुनिया के मुसलमान एक स्थान पर जुटेंगे तो कहीं ऐसी राजनीतिक गतिविधि न कर बैठें, जिससे सऊदी सरकार के राष्ट्रीय हितों पर चोट पहुंचे। दरअसल, सऊदी मंत्री का बयान इसी संदर्भ को लेकर होगा।
जब मुसलमान हज पर जाते हैं तो हजरत की पवित्र धरती मक्का में इस्लामिक एकरूपता का मानवीय चित्र देखने को मिलता है। यह विश्व मानवता के लिए आदर्श है। इस्लाम में वैश्विक उम्माह की अवधारणा है। उम्मत या उम्माह अरबी भाषा का एक शब्द है जिसका अर्थ है, ‘समुदाय या राष्ट्र’। विकिपीडिया के अनुसार इस्लाम के पवित्र ग्रंथों में उम्माह शब्द का उपयोग संयुक्त इस्लामी जगत के लिए किया गया है। यह एक प्रकार से इस्लामिक राष्ट्र की अवधारणा है। यानी दुनिया भर के मुसलमानों का एक ही राष्ट्र हो और उस राष्ट्र में निवास करने वाले तमाम मुसलमान एक जैसी हो। उनकी पहचान एक जैसी हो। उनका व्यवहार एक जैसा हो। यह धार्मिक अनुष्ठान तक तो संभव है लेकिन राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक व्यवहार में फिट नहीं बैठ सकता।
इधर आधुनिक राष्ट्र-राज्य प्रणाली 17वीं शताब्दी की वेस्टफेलिया संधि के बाद दुनिया के सामने आयी। यह संधि 1648 में हुई थी और इसके माध्यम से यूरोप में राष्ट्र-राज्य प्रणाली की स्थापना हुई, जिसने बाद में दुनिया के अन्य क्षेत्रों को भी प्रभावित किया और वहां भी इसी प्रकार के राष्ट्र-राज्य अस्तित्व में आए। वेस्टफेलिया की संधि ने राष्ट्र-राज्य की संप्रभुता को मजबूत किया। संप्रभुता का अर्थ, बिना किसी बाह्य या अन्य सत्ता के हस्तक्षेप के प्रत्येक राष्ट्र अपने क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो और निर्णायक अधिकार प्राप्त करे। इस संधि ने यह भी स्थापित किया कि प्रत्येक राष्ट्र का अपना निर्दिष्ट क्षेत्र होना चाहिए और किसी भी बाह्य बल के दबाव में इसमें कोई बदलाव नहीं होना चाहिए। यह अखंडता का सिद्धांत बाद में राष्ट्रीय सीमाओं की प्रमुखता के रूप में स्थापित हुआ। वेस्टफेलिया की संधि ने प्रत्येक राष्ट्र की अपनी विशेष राष्ट्रीय पहचान को प्रोत्साहित किया। यह इसलिए महत्वपूर्ण हुआ क्योंकि यह राष्ट्र की संज्ञा, भाषा, संस्कृति और इतिहास को मान्यता देने और उसकी आत्म-पहचान को बढ़ाने में मदद करता है। इससे एक समर्थ और स्थिर राष्ट्रीय समुदाय का निर्माण हुआ, जिसने अंततः आधुनिक विश्व की राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रणाली को प्रभावित किया।
यदि इस्लामिक जगत उम्माह के सिद्धात को मानता है तो उसमें स्थानीय संस्कृति, क्षेत्र, भाषा, पहचान, राजनीतिक सीमा सब खत्म करना पड़ेगा, जबकि वेस्टफेलिया की संधि वाले राष्ट्र-राज्य के सिद्धांत में अपनी पहचान, संस्कृति और भाषा के साथ इस्लामिक जीवन में कोइ्र बाधा नहीं होगी। वेस्टफेलिया की संधि वाला राष्ट्र-राज्य सिद्धांत अक्सर एक अंतरराष्ट्रीय धार्मिक समुदाय के विचार से टकराता-सा प्रतीत होता है। प्रत्येक राष्ट्र-राज्य के अपने कानून होते हैं। रीति-रिवाज और हित होते हैं। राष्ट्रवाद और देशभक्ति वैश्विक धार्मिक समुदाय के बजाय राज्य के प्रति अपनेपन और वफादारी की भावना को बढ़ावा देते हैं। कई लोगों के लिए उनकी राष्ट्रीय पहचना और संस्कृति धार्मिक पहचान से ज्यादा महत्व रखती है। यहां पर इस्लाम का यह सिद्धांत कमजोर होता दिखता है।
मुस्लिम-बहुल क्षेत्र भी कभी अखंड नहीं रहा। इनमें राजनीतिक प्रणालियों, सांस्कृतिक परंपराओं और इस्लाम की व्याख्याओं की अलग-अलग विस्तृत श्रृंखला शामिल है। सुन्नी और शिया शाखाओं के साथ-साथ अन्य संप्रदायों के बीच व्यापक मतभेद का कारण भी सांस्कृतिक और स्थानीय राष्ट्रीय पहचान ही है। इसके अतिरिक्त, इन देशों में राजनीतिक प्रणालियां लोकशाही से लेकर राजशाही और धर्मतन्त्र से लेकर संवैधानिक राजतंत्र तक भिन्न-भिन्न हैं। ये मतभेद अक्सर परस्पर विरोधी हितों और नीतियों को जन्म देते हैं, जो एकजुट वैश्विक उम्माह की अवधारणा के विपरीत है। उदाहरण के लिए, सऊदी अरब और ईरान जैसे देशों के बीच भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता दर्शाती है कि कैसे सांप्रदायिक और राजनीतिक विभाजन धार्मिक एकता पर भारी पड़ता है। राष्ट्र-राज्य रणनीतिक हितों, आर्थिक विचारों और राजनीतिक गठबंधनों के आधार पर अंतरराष्ट्रीय संबंधों में संलग्न होते हैं, जो जरूरी नहीं कि धार्मिक संबद्धता के साथ संरेखित हों। मुस्लिम-बहुल देश आर्थिक या सुरक्षा कारणों से गैर-मुस्लिम देशों के साथ गठबंधन बना सकते हैं, यह दर्शाता है कि राष्ट्रीय हित अक्सर धार्मिक एकजुटता पर भारी पड़ता है। उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका और कई खाड़ी राज्यों के बीच घनिष्ठ आर्थिक और सैन्य संबंध हैं, जबकि अमेरिका इजरायल को अपना समर्थन देता है।
आधुनिक युग में मुस्लिम-बहुल देशों के बीच राजनीतिक प्रणालियों, सांस्कृतिक प्रथाओं, आर्थिक हितों और कानूनी ढांचे की विविधता अक्सर धार्मिक पहचान पर राष्ट्रीय को प्राथमिकता देती है। यह व्यवहार में एकजुट वैश्विक उम्माह के खिलाफ है। आधुनिक विश्व में उम्माह को धार्मिक अनुष्ठान तक ही सीमित किया जाए तो इस्लामी जगत के लिए बेहतर होगा। यदि यह राजनीतिक परिप्रेक्ष्य ग्रहण करता है तो इसके कई नकारात्मक परिणाम सामने आ सकते हैं। इसके कई उदाहरण हैं। अभी हाल ही में आईएसआईएस ने वैश्विक उम्माह के सिद्धांत को स्थापित करने की कोशिश की, जिसके कारण कई देश तबाह हो गए और अंततोगत्वा मुसलमानों को ही इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। एकता जरूरी है लेकिन एकरूपता कभी संभव नहीं हो सकता है। इसलिए फिलिस्तीन के प्रति संवेदना मानवीय मूल्य के अनुसार सकारात्मक है। फिलिस्तीन के लिए दुआ भी मांगा जाना चाहिए। फिलिस्तीन के लेागों को सहयोग भी दिया जाना चाहिए लेकिन फिलिस्तीन को लेकर हमास के साथ युद्ध के लिए मुसलमानों का आह्वान और उसके लिए वैश्विक उम्माह की अवधारणा बेहद खतरनाक होगा। शायद सऊदी मंत्री ने इसी डर से उक्त बयान जारी किया होगा।