गौतम चौधरी
विगत दिनों देश के बड़े सामाजिक कार्यकर्ता जेवियर डायॉस से मुलाकता हुई। सहज और सरल डायॉस ने सामान्य व सरल भाषा में देश, समाज एवं दुनिया की बात की। डैस झारखंड के कई बड़े गैर सरकारी संगठनों के सलाहकार है। दुनिया के कई प्रभावशाली देशों में भ्रमण करने के कारण डैस का अनुभव भी गंभीर है। झारखंड में चल रहे तमाम पर्यावरण संबंधी आंदोलन को गति प्रदान करने में डैस की अहम भूमिका है। बातचीत के दौरान डायॉस ने वो बातें कही जो सामान्य रूप से लोग किसी न किसी दबाव के कारण सार्वजनिक करने में हिचकते हैं। हम डायॉस के साथ हुई चर्चा के संपादित अंशों को ‘जनलेख.कॉम’ के पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं।
प्रश्न : डायॉस, झारखंड में बड़े-बड़े पर्यावरण कार्यकर्ता सक्रिय हैं। कमोबेस पूरे देश में यही हाल है। पर्यावरण की क्षति को लेकर लगातार अखबारों और समाचाार माध्यमों आन्दोलन की सुर्खियां देखने को मिल जाती है। बावजूद इसके धीरे-धीरे वन रिक्त हो रहे हैं, आखिर कारण क्या है?
उत्तर : यह धंधा है। जो आन्दोलन आप देख रहे हैं वह कुछ नहीं है, बस लोग धंधा कर रहे हैं। वन, पर्यावरण, प्रकृति से किसी को कोई मतलब नहीं है। कॉरपोरेट और साम्राज्यवादी लूट में आन्दोलनकारी भी शामिल हैं। इसलिए यह कहना कि पर्यावरण की रक्षा के लिए कुछ एक्टिविस्ट काम कर रहे हैं, कहना गलत है। यदि वे सचमुच का काम किए होते तो पर्यावरण को क्षति नहीं पहुंचती। यहां दो तरह के लोग हैं। एक वर्ग को समय नहीं है दूसरे तरह के लोग इस दिशा में सोच ही नहीं रहे हैं। पैसे वालों को और पैसा चाहिए, साथ ही जो पैसा उन्होंने कमाया है, उसकी सुरक्षा भी चाहिए। पैसे की लालच, भूख और हवस ने दुनिया को बेढंगा बना दिया है। इन दिनों तो फासिस्ट ताकतें भी इनके साथ हो गयी है। पेड़ काटना भी एक प्रकार का फासिज्म ही है। इससे केवल गरीब लोग ही नहीं मरेंगे अमीरों को भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा।
प्रश्न : कैसे सुधार होगा?
उत्तर : फिलहाल तो कोई संभावना नहीं दिखती है। हां, दो-तीन हल्की आशा की किरण इन दिनों दिखने लगी है। पूरे देश भर में किसान और मजदूर संगठित हो रहे हैं। वे आन्दोलन भी कर रहे हैं। चाह कर भी सरकार उनके खिलाफ दमनकारी अभियान नहीं चला पा रही है। आपने देखा अन्य आंदोलनों को सरकार ने कुचल दिया लेकिन किसानों को वे नहीं कुचल पाए। ये हमारे लिए आशा की किरण जगा रहे हैं। इसे और तेज करने की जरूरत है। आज लड़ाई फासिस्ट और कमनिस्टों के बीच हो रही है। इस दायरे को और बढ़ाना होगा।
प्रश्न : इस दिशा में और क्या किया जाना चाहिए?
उत्तर : जन-जागरण, आम लोगों के मानस को बदलने के लिए बड़े स्तर पर जन-जागरण चलाना होगा। एक छोटा-सा उदाहरण आपको देता हूं। जब किसानों के हाथ में जमीन है तो वह खेत है, जैसे ही कॉरपोरेट के हाथ में जाता है वह रियल स्टेट हो जाता है। आप फर्क समझ रहे होंगे। कुछ लोगों के पास इतना पैसा है कि पूरे रांची के सभी मकानों में भर दिया जाए तो भी खत्म नहीं होगा। इन पैसों को बचाने के लिए बहुत तिकरम करना पड़ रहा है। सरकार तो उन तिकरमों की कठपुतली मात्र है।
प्रश्न : जेवियर दा, आज देश के जो हालात बने हैं, उसके लिए दोषी कौन है?
उत्तर : आप धर्म, राजनीति, जाति, भाषागत विद्वेष, क्षेत्रीयता ये तमाम विसंगतियां काॅरपोरेट के द्वारा उत्पन्न किया जाता है। हिन्दू-मुसलमान, ईसाई-हिन्दू संघर्ष जो आपको दिखता है, उसकी जड़ में काॅरपोरेट है। दुनिया के देशों में जो संघर्ष दिखता है उसकी जड़ों में भी काॅरपोरेट है। हथियारों के सौदागर दुनिया के देशों के बीच संघर्ष करवाते हैं और अपना हथियार बेचते हैं। हमें यह समझना होगा कि हमारे सैनिकों को बंदूक क्यों चाहिए? हमें अपने दुश्मन को पहचानने होंगे। आज तो आम लोगों का जो दुश्मन है, वह उसे दोस्त लगता है और जो दोस्त है, वह दुश्मन लग रहा है। धर्म का चश्मा इस तरह हावी है कि लोग अपना अहित समझ ही नहीं पा रहे हैं। इसे समझाने की जिम्मेदारी बुद्धिजीवियों, वैज्ञानिक सोच वालों को लेनी होगी। इस चुनौती को बुद्धिजीवियों को अपने हाथ में लेना होगा।
प्रश्न : संयुक्त राज्य अमेरिका में जो परिवर्तन हुआ है, उससे दुनिया के देशों में कोई परिवर्तन आएगा?
उत्तर : मुझे तो नहीं लगता है। अमेरिकी राजसत्ता को अपनी जनता से जब कुछ लेना-देना नहीं है, तो वह दुनिया की चिंता कैसे करेगा? अमेरिका के डेमोक्रेट और रिपब्लिकन दोनों एक जैसे हैं। सत्ता परिवर्तन के बाद शोषण के हथियार बदल जाते हैं। न तो शोषण की गति बदलती है और न ही दिशा। बस औजार बदल लेते हैं। हां, साम्यवादी शक्तियों का जब दुनिया में वर्चस्व बढेगा तो परिवर्तन दिखेगा। आप क्यूबा को देखिए। छोटा-सा देश है और मानवता के लिए उसकी सोच किस प्रकार की है। वह पर्यावरण, प्रकृति, मानवता आदि पर सकारात्मक सोचता है। इसलिए वामधर्मी शक्तियों का बढ़ना जरूरी है। एक ऐसा समय आया जब दुनिया में लिब्रेशन थियोलाॅजी का प्रभाव बढ़ गया। इससे वाॅसिंगटन और बेटिकन दोनों डर गया था। हिन्दू, मुसलमान या फिर ईसाई ये तीनों ताकतें पूंजीपरस्थों के द्वारा खड़े किए गए हैं। हमें लिब्रेशन थियोलाॅजी को बढ़ाने की जरूरत है। जब दुनिया में लिब्रेशन थियोलाॅजी का प्रभाव बढ़ा तो ह्वाइट हाउस में रोनांट रिंगन ने एक प्रभावशाली पादरी को बुलाया और उससे एक किताब लिखवाई। उस पारदी ने यह साबित करने की कोशिश की कि पूंजीवाद ईसाइयत का दुश्मन नहीं है। तो हमें शोषकों को पहचानना होगा। इसी से मुक्ति और समाधान संभव है। आपको मुख्य समस्या से भटकाने के लिए धर्म को प्रस्तुत किया जाता है। ये धार्मिक लड़ाइयां तो डायवर्सिटी है। आज दुनिया में युद्ध बंद हो जाए तो 40 प्रतिशत धातुओं की खपत कम हो जाएगी।
प्रश्न : युद्ध बंदी की बात करना आसान है लेकिन इस आदर्श को प्राप्त करना उतना ही कठिन है। यह कैसे संभव है?
उत्तर : यदि वार्ता से ही संघर्ष समाप्त हो जाता है तो फिर गोली चलाने की क्या जरूरत है। दुनिया के इतिहास को उठा कर देखें। कहीं भी संघर्ष का अंत वार्ता से ही हुआ है। यदि वार्ता से ही संघर्ष समाप्त होता है तो युद्ध की क्या जरूरत है। इस तर्क को लोगों तक पहुंचाना होगा। जब जनता खड़ी होगी तो दुनिया की राजनीतिक इकाइयां भी सोचने के लिए मजबूर हो जाएगी। इन दिनों दुनिया भर में औद्योगिक आतंकवाद का दौर चल रहा है। आपको पता है, अमेरिका में कट्टर ईसाइयों का एक रायफल संगठन भी है। इनके पास इतने हथियार हैं कि मत पूछिए। इनकी कट्टरता के सामने हमारे यहां के हिन्दू और मुसलमान दोनों कमजोर पड़ जाएंगे। इसलिए धर्मों की कट्टरता को आप अलग-अलग मत देखिए। ये तमाम एक जैसे हैं और इन सभी के दुश्मन समाजवादी हैं। वारवरा राव, सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, स्टेन स्वामी आदि को क्यों गिरफ्तार किया गया। क्योंकि ये लोग समाजवादी हैं और समाज में पूंजी परस्तों को बेनकाब कर रहे हैं। समुद्री किनारे बेचे जा रहे हैं। अडानी पोर्ट के लिए 25 हजार हेक्टेयर जमीन चाहिए। वह समुद्री किनारों पर पाए जाने वाले मैन ग्रो को समाप्त कर देंगे, जो आंधी, तूफान और अन्य समुद्री आपदाओं से हमें बचाता है।
प्रश्न : अमेरिका, रूस और चीन को और आप किस तरह देखते हैं।
उत्तर : चीन अमेरिका की फोटोकॉपी है। हां इतना है कि जिस प्रकार अमेरिका समाजवाद का विरोध करता है उस प्रकार चीन और रूस नहीं करता है। इसलिए हमें चीन और रूस के रवैये की सराहना करनी होगी। दूसरी बात यह है कि चीन इन दिनों अमेरिका को घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया है। वह डॉलर में व्यापार नहीं करता है। खुद की करेंसी में व्यापार कर रहा है। रूस उसके साथ है। रूस को चीन में अपना हित दिख रहा है। भारत को इस दिशा में सोचने की जरूरत है। अमेरिका के साथ जाने से बहुत अहित होगा। दुनिया में भारत की ताकत कम होगी और अमेरिका भारत का उपयोग कर लेगा। वैसे मेरी दृष्टि से चीन भी उतना ही पूंजीवादी है जितना अमेरिका लेकिन चीन समाजवाद का विरोध नहीं करता है। दुनिया में समाजवादी आंदोलन को कुचलने का कुचक्र नहीं करता है।
प्रश्न : अंत में हमारे पाठकों के लिए कुछ कहना चाहेंगे?
उत्तर : जरूर कहेंगे। हमें समाजवादी सोच को बढ़ाना चाहिए। वैज्ञानिक चिंतन के साथ खड़ा होना चाहिए। पर्यावरण की रक्षा का संकल्प लेना चाहिए। फासिस्ट ताकतों के खिलाफ संगठित होना चाहिए और उन ताकतों को हतोत्साहित करना चाहिए।