भारत की स्वतंत्र विदेश नीति से अमेरिकी कूटनीति में तिलमिलाहट, किया धार्मिक सहिष्णुता पर गलत रिपोर्ट जारी

भारत की स्वतंत्र विदेश नीति से अमेरिकी कूटनीति में तिलमिलाहट, किया धार्मिक सहिष्णुता पर गलत रिपोर्ट जारी

जब-से भारत अपनी स्वतंत्र विदेश नीति की घोषणा की है, तब-से भारत के प्रति पश्चिमी देशों का नजरिया बदल गया है। खास का संयुक्त राज्य अमेरिका को भारत की स्वतंत्र विदेश नीति हजम नहीं हो रही है। हाल का अमेरिकी नेतृत्व, नाहक भारत के प्रति कई प्रकार का पूर्वाग्रह पाल लिया है। इस प्रकार की नीति अमेरिकी राष्ट्रवाद की कमजोरी रही है। चीन के विकास पर भी अमेरिका का पूर्वाग्रहपूर्ण दृष्टिकोण समय-समय पर जाहिर होता रहता है। रूस के प्रति अमेरिकी पूर्वाग्रह का प्रतिफल आज यूक्रेन भुगत रहा है। पूर्व में भी कई देश भुगत चुके हैं। अमेरिकी पूर्वाग्रह का शिकार न केवल चीन व रूस हुआ, अपितु बांग्लादेश, तुर्किय, ईरान, फिलिस्तीन, मिस्र आदि देश भी समय-समय पर होता रहा है। आजकल अमेरिकी कूटनीतिकों के पूर्वाग्रह का आसान शिकार भारत हो रहा है।

यूनाइटेड स्टेट्स कमीशन ऑन इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम (यूएससीआईआरएफ) ने अभी हाल ही में एक रिपोर्ट जारी की है। उस रिपोर्ट में भारत में धार्मिक असहिष्णुता की बात कही गयी है। हालांकि भारत सरकार ने इस रिपोर्ट की खामियों पर अपनी प्रतिक्रिया भी जारी की है और उसे खारिज कर दिया लेकिन इस रिर्पोअ ने अमेरिका का भारत के प्रति पूर्वाग्रह एक बार फिर से जाहिर कर दिया है। भारत सरकार का आरोप है कि यह रिपोर्ट भारत के बारे में एक गलत अवधारणा प्रस्तुत करती है, जो देश में अशांति फैलाने और आंतरिक रूप से देश को कमजोर करने के लिए बनाई गई सा प्रतीत होती है।

यदि अमेरिका की मुस्लिम नीति की समीक्षा की जाए तो मामला कुछ और ही सामने आता है। वैसे भी भारतीय मुसलमान पश्चिम की चाल से अच्छी तरह वाकिफ हैं। अधिकतर भारतीय मुसलमान यह मान कर चल रहे हैं कि संयुक्त राज्य अमेरिका के सरकारी स्वामित्व वाली संस्था द्वारा तैयार की गयी रिपोर्ट, भारत की आंतरिक स्थिरता को कमजोर करने के लिए बनाया गया है। अमेरिका की दारंगी नीति यहां स्पष्ट हो जाती है। एक ओर, अमेरिका सहित पश्चिमी देश, गाजा के मुसलमानों के खिलाफ हथियारों की आपूर्ति कर रहे हैं, जिससे फिलिस्तीन में अबतक 50 हजार के करीब मुसलमान मारे गए हैं। दूसरी ओर, अमेरिका भारत में धार्मिक असहिष्णुता में वृद्धि का हवाला देकर भारतीय मुसलमानों को भड़काने का प्रयास कर रहा है। इस तरह की दोगली हरकतें पश्चिम की विश्वसनीयता और इरादों पर सवाल उठाती हैं। भारत, एक ऐसा देश जहां सांस्कृतिक विविधता स्वाभाविक है और कई धर्म के अनुयायी यहां सह-अस्तित्व के सिद्धांत पर चलते हैं। धार्मिक विविधता यहां की जनता के जीवन मूल्यों में से एक है। धार्मिक संबद्धता के बावजूद, भारतीय आपसी सम्मान और उत्सव की भावना को अपनाते हैं, यह स्वीकार करते हुए कि सभी धर्म देश के कानूनों और मार्गदर्शक सिद्धांतों द्वारा समान रूप से संरक्षित हैं। यह सांस्कृतिक विविधता, शांति, सद्भाव और विविध धार्मिक मान्यताओं के सह-अस्तित्व को बढ़ावा देता है, जो अल्पसंख्यकों के खिलाफ अत्याचार के यूएससीआईआरएफ के आरोपों का मुकाबला करता है।

भारत में अल्पसंख्यकों के धार्मिक उत्पीड़न की अलग-अलग घटनाओं और व्यापक आख्यानों के बीच अंतर करना आवश्यक है, साथ ही यह भी समझना होगा कि इसका व्यक्तियों और समुदायों पर समान रूप से सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। इस पर थोड़ा विचार करते हैं। भारत में ईसाई धर्म ने एक परिवर्तनकारी यात्रा शुरू की है, जिसने राष्ट्र के विकास पर एक स्थायी छाप छोड़ी है। अल्पसंख्यक धर्म होने के बावजूद, ईसाइयों ने विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ईसाई चिंतकों ने शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और सामाजिक सुधारों के परिदृश्य को आकार दिया है। ईसाई मिशनरी शैक्षिक उन्नति में सबसे आगे रहे हैं। उन्होंने कई स्कूल और कॉलेज स्थापित किए हैं, जो अकादमिक उत्कृष्टता और भाषाई विविधता को बढ़ावा देते हैं। कोलकाता में सेंट जेवियर्स कॉलेज और मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज जैसे संस्थानों ने शिक्षा के लिए उच्च मानक स्थापित किए हैं। ईसाई स्वास्थ्य सेवा संगठनों ने हाशिए पर पड़े और वंचित समुदायों की सेवा करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। मदर टेरेसा जैसी हस्तियाँ ईसाई करुणा की भावना का प्रतीक हैं, जिन्होंने निस्वार्थ सेवा की एक बड़ी विरासत छोड़ गयी। इसके अलावा, ईसाई धर्म भारत में सामाजिक सुधारों के पीछे एक प्रेरक शक्ति रहा है, जो सती (विधवा को जलाना), कन्या भ्रूण हत्या और जाति भेदभाव जैसी प्रथाओं के खिलाफ़ रचनात्मक आन्दोलन खड़ा किया।

यहां यह बताना जरूरी है कि भारत सरकार ने गौरक्षकों के खतरे को रोकने और अपराधियों पर मुकदमा चलाने के लिए कड़ी कार्रवाई की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा इस तरह की हिंसा की कड़ी निंदा महात्मा गांधी की शिक्षाओं की प्रतिध्वनि करते हुए अहिंसा और एकता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को रेखांकित करती है। भारतीय न्यायिक प्रणाली गौरक्षकों के मामलों को संभालने में महत्वपूर्ण रही है, जैसा कि रकबर खान लिंचिंग मामले में सजा से पता चलता है। इन न्यायिक निर्णयों से स्पष्ट रूप से संकेत मिलता है कि गौरक्षकों की आड़ में हिंसा बर्दाश्त नहीं की जाएगी। हाल ही में अपनाई गई भारतीय न्याय संहिता में भीड़ द्वारा हत्या के लिए सजा को शामिल करना ऐसे जघन्य अपराधों के पीड़ितों को न्याय सुनिश्चित करने में सरकार की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
अमेरिकी धार्मिक स्वतंत्रता रिपोर्ट में राज्यों ने धर्मांतरण विरोधी कानूनों में वृद्धि पर चिंता व्यक्त की है। हालाँकि, यूएससीआईआरएफ रिपोर्ट यह उजागर करने में विफल रही कि इन कानूनों का उद्देश्य व्यक्तियों को उनकी इच्छा के विरुद्ध उनके धर्म को बदलने के लिए मजबूर होने से बचाना है, यह सुनिश्चित करना है कि धर्मांतरण स्वैच्छिक और वास्तविक है। यह कानून बिना किसी अनुचित प्रभाव या दबाव के व्यक्तियों के अपने धर्म को स्वतंत्र रूप से चुनने के अधिकारों की रक्षा करता है, जिससे व्यक्तिगत धार्मिक पसंद की अखंडता बनी रहती है।

यूएससीआईआरएफ रिपोर्ट में उजागर किए गए हिजाब के इर्द-गिर्द बहस भी एक सूक्ष्म समझ की मांग करती है। कर्नाटक में, जहां मुस्लिम छात्रों को हिजाब पहनने के लिए वापस भेज दिया गया था, ने महत्वपूर्ण बहस को जन्म दिया। हालांकि, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि भारत में मुस्लिम महिलाओं ने इस विवाद के बावजूद विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है। उनकी उपलब्धियाँ, जैसे कि नाज़िया परवीन और शबरुन खातून को राष्ट्रीय फ्लोरेंस नाइटिंगेल पुरस्कार प्राप्त करना, नुसरत नूर का झारखंड लोक सेवा आयोग की परीक्षा में शीर्ष स्थान प्राप्त करना, और अरीबा खान और निखत ज़रीन का खेलों में उत्कृष्ट प्रदर्शन, यह दर्शाता है कि हिजाब शिक्षा और व्यक्तिगत विकास में बाधा नहीं है। ये सफलताएँ दर्शाती हैं कि भारतीय मुस्लिम महिलाएँ रूढ़ियों को धता बताते हुए कई क्षेत्रों में आगे बढ़ सकती हैं और यह साबित कर सकती हैं कि उनकी पहचान सिर्फ़ हिजाब से परिभाषित नहीं होती।

भारत के मुसलमान लोकतांत्रिक तरीके से और संवैधानिक प्रावधानों के ज़रिए अपने मामलों को संभालने में सक्षम हैं। यूएससीआईआरएफ रिपोर्ट द्वारा प्रचारित गलत धारणाओं के विपरीत, नागरिकता संशोधन अधिनियम (ब्।।) भारत के भीतर मुसलमानों या किसी अन्य समुदाय के साथ भेदभाव नहीं करता है। यह अधिनियम धार्मिक संबद्धता की परवाह किए बिना सभी भारतीय नागरिकों के अधिकारों की पुष्टि करता है, जबकि विदेशों में उत्पीड़न का सामना करने वालों की मदद करता है। यह समझना ज़रूरी है कि सीएए के प्रावधान किसी भी भारतीय की नागरिकता में बाधा नहीं डालते हैं, बल्कि दुनिया भर में उत्पीड़ित समुदायों के साथ मानवीय मूल्यों और एकजुटता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को बनाए रखते हैं। अमेरिकी रिपोर्ट भारत में धार्मिक स्वतंत्रता का एक विकृत दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है, जो संवैधानिक प्रावधानों को बनाए रखने और एक समावेशी समाज को बढ़ावा देने के देश के प्रयासों को पहचानने में विफल है। भारत का जीवंत लोकतंत्र, मानवीय मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता और इसके धार्मिक अल्पसंख्यकों की उपलब्धियाँ एक ऐसे राष्ट्र को दर्शाती हैं जो अपनी विविध सांस्कृतिक विरासत को महत्व देता है और उसकी रक्षा करता है। पश्चिम को अन्य देशों में अशांति भड़काने का प्रयास करने से पहले आत्मनिरीक्षण करना चाहिए तथा अपनी आंतरिक चुनौतियों का समाधान करना चाहिए।

(आलेख में व्यक्त विचार लेखिका के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।

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