अनिल धर्मदेश
पश्चिम ने ही पूरी दुनिया को सत्ता संचालन का वर्तमान लोकतांत्रिक मॉडल दिया है। उपनिवेशवाद की समाप्ति के दौर में ब्रिटेन ने जितने भी देश छोड़े, लगभग सभी गुलाम देशों में 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट जैसा लोकतंत्र की स्थापना का कानून लाया गया और इसके कुछ वर्षों बाद उन देशों की सत्ताएं तत्कालीन निर्वाचित प्रतिनिधियों को सौंप दी गयीं। स्वाधीनता के उपरांत इन देशों ने अपना संविधान तो बनाया मगर उसकी पूरी रूपरेखा लोकतंत्र की पश्चिमी परिधि के भीतर ही सिमटी रही। कुछ ही देश थे, जिन्होंने इस मॉडल को खारिज किया। उपनिवेशवादी देशों का यह प्रयोग सबसे पहले अमेरिका में सफल हुआ क्योंकि वहाँ दशकों के संघर्ष और महामारी के कारण रेड इंडियंस की स्थानीय आबादी विलुप्ति के कगार पर पहुंच गयी थी और अमेरिका के अलग-अलग इलाकों में काबिज अनेकों उपनिवेशों ने अपने द्वारा वहां बसाए गए यूरोपीय नागरिकों की सुरक्षा के लिए निरंतर आपसी संघर्ष को रोककर सहजीविता को स्वीकृति देना ही सही समझा।
पश्चिमी देशों में लोकतांत्रिक मूल्यों को उच्चतम स्थान दिए जाने का दावा किया जाता है। मानव अधिकार और लोकतंत्र को यदि पश्चिम की आधुनिक संस्कृति कहा जाए तो गलत नहीं होगा क्योंकि कई बार इन देशों की नीति में इसके लिए राष्ट्रीय उद्देश्यों की बलि दिए जाने के भी अनेक उदाहरण मिलते हैं। मानव अधिकार और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा अथवा समीक्षा का दावा करने वाली अधिकांश संस्थाएं और मंच भी यूरोप एवं अमेरिका से ही पोषित व संचालित होते हैं। इतने उच्च प्रतिमानों और आदर्शों की स्थापना के प्रचंड उद्घोष के बावजूद यदि वैश्विक घटनाओं पर नजर डालें तो दिखावे से उलट पश्चिमी सिद्धांतों का दोहरा चरित्र स्पष्ट रूप से उजागर होता है। पिछले दो-तीन वर्षों के घटनाक्रम ही पश्चिम द्वारा प्रचारित किए गए समस्त आदर्शों और मूल्यों को आडंबर साबित करते हैं।
17 करोड़ की आबादी वाले बांग्लादेश में विदेशी ताकतों के उकसावे पर दो-चार लाख उपद्रवियों ने एक निर्वाचित सरकार का बलात तख्तापलट कर दिया। विडंबना देखिए कि इस पूरे घटनाक्रम पर यूरोप और अमेरिका की पहली प्रतिक्रिया यह रही कि वे विरोध-प्रदर्शन करने वाले कथित छात्रों के लोकतांत्रिक अधिकारों का पूरा सम्मान करते हैं। खुली अराजकता को लोकतांत्रिक अधिकार बताकर पश्चिम ने शेख हसीना की सत्तारूढ़ पार्टी को विश्वपटल पर ऐसे निस्तेज कर दिया मानो बांग्लादेश में अफगानिस्तान की तरह तालिबान की कोई गैर निर्वाचित या तानाशाह सरकार सत्तासीन हो। एक निर्वाचित प्रधानमंत्री को 45 मिनट के अल्टीमेटम पर त्यागपत्र देकर देश छोड़ने के लिए विवश होना पड़ता है।
उन्मादी भीड़ प्रधानमंत्री निवास से लेकर संसद और सभी राष्ट्रीय संस्थानों पर कब्जा करके उसे लूट लेती है और पश्चिमी बुद्धिजीवी इसे आरक्षण के विरुद्ध अक्रोश बताने में कोई कसर नहीं छोड़ते जबकि इसी वर्ष जनवरी में पांच करोड़ से अधिक लोगों ने अपने मताधिकार से अवामी लीग की सरकार को चुना था। बीएनपी सहित कुछ कट्टरपंथी समूहों ने चुनाव का बहिष्कार किया जिसके कारण इस बार वहां मतदान का प्रतिशत महज 40 के आसपास ही रहा।
बांग्लादेश के आम चुनावों में अमेरिका की दखल और दिलचस्पी ने तब भी कई सवाल खड़े किए थे। जैसे कि अब स्वयं निष्कासित प्रधानमंत्री शेख हसीना, बीएनपी के नेता और कुछ वरिष्ठ संपादक बांग्लादेश में हुई अराजकता और तख्तापलट के लिए अमेरिका पर ही आरोप मढ़ रहे हैं। छोटे-छोटे देशों से मनमाने स्वार्थ सिद्ध कराने के लिए वहां की सत्ता को अस्थिर करने की यह अनीति विश्व में लोकतंत्र के भविष्य पर गंभीर सवाल खड़े कर चुकी है। बीते दशक में एशिया साक्षी है कि यहां हो रहे घटनाक्रम 1950 के दशक की अमेरिकी नीति को ही दोहरा रहे हैं।
यह हिंसा चे ग्वेरा के दौर की भी याद दिलाती है, जब इसी प्रकार बोलिविया और मैक्सिको में अमेरिका के सहयोग से सैन्य तख्तपलट को अंजाम दिया था। 2021 में बांग्लादेश की तरह ही अफगानिस्तान में भी हिंसा के आधार पर तालिबान ने लोकतांत्रिक रूप से चुनी गयी सरकार को बेदखल कर दिया, जबकी उस वक्त वहां अमेरिकी फौजें भी मौजूद थीं। एक-डेढ़ सप्ताह में ही विद्रोहियों ने 19 वर्षों से अफगानिस्तान में डेट अमेरिका जैसी शक्ति को जिस प्रकार पीछे धकेला, वह षड्यंत्र के कई गहरे सवाल खड़े करता है।
एक दौर में कट्टरपंथी वामपंथी चे ग्वेरा का इस्तेमाल कर चुके अमेरिका की नीयत पर भरोसा करना कठिन है। अफगानिस्तान और बांग्लादेश, दोनों ही जगह कट्टरपंथी चे ग्वेरा के हिंसात्मक विद्रोह की तरह ही इस बार कट्टरपंथी इस्लाम को मोहरा बनाया गया है। मतलब चेहरे की जगह संगठन। इस बात की अनदेखी नहीं कि जा सकती कि तालिबान और जमात-ए-इस्लामी दोनों का ही इतिहास अमेरिका से गहरे संबंध का रहा है। 2021 में अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा होने के बाद भी पश्चिम पोषित मीडिया ने इसी प्रकार श्बदला हुआ तालिबानश् की प्रवंचना चलाकर आतंकियों के महिमामंडन का कुत्सित प्रयास किया था।
ऐसे में दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि अमेरिका और यूरोप के साथ-साथ शेष विश्व की मीडिया में मौजूद लिबरल बुद्धिजीवी अराजकता से सत्ता हथियाने की इस अनीति पर मौन साधे हुए हैं। इस युक्ति का एक अर्थ यह भी है कि किसी देश की लोकप्रिय सरकार का राष्ट्रवाद यदि पश्चिमी हितों से समझौता न करे तो उस देश की स्वार्थी और कट्टरपंथी ताकतों को आर्थिक और रणनीतिक सहायता देकर वहां की सत्ता को ही उखाड़ फेंका जाएगा।
इसके समानांतर पश्चिम समर्थित विश्व का समूचा प्रसार तंत्र इस अराजकता व षड्यंत्र को कभी आंदोलन तो कभी प्रतिरोध कहकर सामान्य विश्व को दिग्भ्रमित करने से नहीं चूकेगा। अफगानिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव, यूक्रेन, ताइवान और गाजा आज शेष विश्व के लिए इस बात का उदाहरण हैं कि अमरीका और चीन जैसे समृद्ध राष्ट्र अपनी सुविधा और महत्वाकांक्षा के लिए किसी भी देश में मानवता और लोकतंत्र को तार-तार करने से नहीं चूकते। साथ ही इस प्रकार की घटनाएं देशों के नीति नियंताओं को लोकतंत्र के वर्तमान प्रारूप की समीक्षा के लिए भी बाध्य करती हैं।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)