मासस का विघटन और भाकपा (माले) में विलय वैचारिक नहीं चुनावी सौदेबाज़ी

मासस का विघटन और भाकपा (माले) में विलय वैचारिक नहीं चुनावी सौदेबाज़ी

पिछले एक वर्ष से मार्क्सवादी समन्वय समिति और भाकपा माले, लिबरेशन के बीच चल रही कवायद के बाद आखिरकार कामरेड ए. के. राय द्वारा स्थापित दल मार्क्सवादी समन्वय समिति का भाकपा (माले), लिबरेशन में विलय कर दिया गया। फैसला दोनों दलों की संयुक्त बैठक में लिया गया है और 9 सितंबर को धनबाद में एक ‘’एकता’’ रैली कर इस विलय की राजनीतिक महत्वाकांक्षा को सार्वजनिक भी कर दिया गया। हांलांकि मासस के एक समूह ने बैठक कर इस विलय प्रक्रिया से अपने को अलग रखने का एलान करते हुए मासस के आस्तित्व को बनाए रखने की
आपसी सहमति को भी सार्वजनिक किया है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि आज जब पुरी दुनिया में दक्षिणपंथी ताकतें चरम पर है, स्वयं हमारे देश भारत में दक्षिणपंथी राजनीति के प्रतिनिधि राजसत्ता के शीर्ष पर बैठ कर देश के संविधान, संसदीय लोकतंत्र और संघवाद को कमजोर कर एकाधिकारवादी शासन की ओर बढ़ने का षडयंत्र कर रहें हैं। ऐसे समय में वामपक्ष की एकता अन्य लोकतांत्रिक शक्तियों को इस षडयंत्र के खिलाफ गोलबंद करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी। आज देश का मेहनतकश तबका, प्रगतिशील-जनवादी सोच रखने वाले सभी लोग चाहते हैं कि वामपक्ष की एकता के आधार पर एक जनपक्षीय वैकल्पिक नीतियों के लिए संघर्ष को सशक्त किया जाए, ताकि देश में जनता की जनवादी क्रांति की दिशा में आगे बढ़ा जा
सके। देश में कुछ उत्साहित आदर्शवादी भावुकता से सोचने वाले लोग भी हैं, जो सभी कम्युनिस्ट पार्टियों के तुरंत विलय किए जाने के पक्षधर हैं। वे यह भी कहते हैं कि इन कम्युनिस्ट पार्टियों के बड़े नेताओं के अहम की वजह से ही इन पार्टियों का एकीकरण नहीं हो पा रहा है। जबकि सच्चाई यह नहीं हैं। कम्युनिस्ट पार्टी का गठन वैचारिक आधार पर होता है। पुरी दुनिया के कम्युनिस्ट आंदोलन का अनुभव इस तथ्य को रेखांकित करता है कि पुरी दुनिया में कम्युनिस्ट आंदोलन के अंदर संशोधनवाद और वाम दुस्साहसवाद ने इसे काफी नुकसान पहुंचाया है। भारत में भी कम्युनिस्ट आंदोलन इस प्रवृत्ति का शिकार रहा और भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में इसके चलते विभाजन भी हुआ।

अब जबतक यह सैद्धान्तिक मसला हल नहीं हो जाता है, तब तक कम्युनिस्ट पार्टियों का एकीकरण या विलय संभव नहीं है लेकिन जनमुद्दों पर या मेहनतकशों के वर्गीय सवालों पर वामदलों का संयुक्त और लगातार संघर्ष इस दिशा में आगे बढने की बाधाओं को दूर जरुर कर सकता है। जहां तक झारखंड में मासस का विघटन कर उसका भाकपा माले, लिबरेशन में विलय किए जाने का निर्णय है वह निःसंदेह रूप से सैद्धांतिक नहीं चुनावी है। इसे समझने के लिए हमें पांच दशक पीछे जाना होगा जब 60 के दशक में कामरेड ए. के. राय सीपीएम से दो बार सिंदरी सीट से बिहार विधानसभा के लिए चुने गए। कुछ सैद्धान्तिक मतभेदों के कारण उन्होंने सीपीएम छोड़कर मासस का गठन किया। उनके नेतृत्व में मासस ने कोयलांचल में अपने राजनीतिक आधार का विस्तार किया और एक महत्वपूर्ण राजनीतिक ताकत बन गयी। इस संगठन ने कोयलांचल के माफियाओं के आधिपत्य को चुनौती दी। कामरेड ए. के. राय इमरजेंसी खत्म होने के बाद 1977 में जेल से संसद के लिए चुने गए। बाद में भी दो बार वे लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए। उनका सीधा-सादा जीवन, कम्युनिस्ट नैतिकता और अद्भुत त्याग का पालन एवं अत्याधिक कष्ट सहने की प्रवृत्ति ने उन्हें राजनीतिक संत के रुप में विख्यात कर दिया और वे एक आदर्शवादी कम्युनिस्ट नेता के रुप में लोगों के प्रेरणा श्रोत हो गए। इसका झारखंड में दुसरा उदाहरण नहीं है लेकिन राजनीतिक रुप से मार्क्सवाद-लेनिनवाद की अंतर्राष्ट्रीय विचारधारा में एक सीमित क्षेत्रीय आधार पर देशज प्रयोग करने की उनकी अभिलाषा सफल नहीं हो सकी। इस प्रयोग का उल्लेख उन्होंने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘लेनिन से बिरसा तक’ में किया है। अपनी वृद्धावस्था में वे इस प्रयोग के विफल होने से विचलित भी थे।

कामरेड राय द्वारा स्थापित दल मासस में कुछ अवसरवादी, सिद्धान्तहीन और दल का इस्तेमाल कर व्यक्तिगत फायदा उठाने वाले लोगों का आधिपत्य बढते जाने के कारण कमजोर होता जा रहा था। जिस झारखंड मुक्ति मोर्चा का नामाकरण उन्होंने किया था, वह भी शासक वर्ग की पार्टी बन गयी। इस प्रकार वर्गीय शक्तियों के स्थान पर सामाजिक शक्तियों को ही परिवर्तन की धुरी समझने की उनकी समझ से आज उनके द्वारा स्थापित दल मार्क्सवादी समन्वय समिति का बिखराव हो गया। इस पृष्ठभूमि में मासस का भाकपा माले में विलय कोई सैद्धांतिक विलय नहीं बल्कि केवल चुनावी जरूरतों को ध्यान में रख कर किया गया निर्णय मात्र है। इस संकीर्ण चुनावी प्रक्रिया के लिए राज्य में अन्य संघर्षशील एकताबद्ध वाम आंदोलन को दर किनार भी किया गया। इसे चुनावी अवसरवाद भी कहा जा सकता है, जो यहां साफ तौर पर झलक रहा है।

वामदलों का एकीकरण एक गंभीर और महत्वपूर्ण प्रश्न है, जो एक क्रांतिकारी कार्यक्रम और वैचारिक एकता के आधार पर ही हासिल किया जा सकता है। अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के शिक्षक लेनिन ने भी कहा था किसी देश में केवल एक ही सही कम्युनिस्ट पार्टी हो सकती है, जिसका अपने देश की ठोस परिस्थितियों के आधार पर एक कार्यक्रम हो। देश की दो बड़ी कम्युनिस्ट पार्टियों सीपीएम और सीपीआई के अलावा सीपीआई (एम-एल) के नाम से दो दर्जन से ज्यादा अपने को ही सही कम्युनिस्ट पार्टी कहने वाले छोटे छोटे कई समुह हैं। जिन्हें नक्सलवादी-उग्रवादी भी कहा जाता है। ये सभी अपने को ही विशुद्ध क्रांतिकारी मानते हैं और दुसरे समेहों के सफाए का भी काम करते हैं। इन समुहों के बीच अपराधी और जबरन लेवी वसुलने वाले तत्वों की भी घुसपैठ हो गई है, जो वर्ग दुश्मनों की हत्या के नाम पर आतंक फैलाने का काम करते हैं। सभी पहले भूमिगत (अंडरग्राउंड) रहकर काम करते थे। भारत की राजनीतिक परिस्थिति के ठोस आकलन का अभाव और वाम दुस्साहसवाद की गलत राजनीतिक लाइन के पीट जाने के चलते इनमें से एक बड़े समुह ने, जो पहले अंडरग्राउंड हुआ करता था और आइपीएफ के नाम से एक जन मोर्चा बनाया, बाद में भाकपा (माले), लिबरेशन के नाम से अंडरग्राउंड से ओवरग्राउंड होकर संसदीय राजनीति की धारा में शामिल हो गया लेकिन भाकपा (माले) लिबरेशन द्वारा अपने पुराने कार्यक्रम से पल्ला झाड़ने के बाद उनका कोई राजनीतिक कार्यक्रम अब तक नहीं बन सका है। उनका कोई अखिल भारतीय आधार भी नहीं है। अभी वे एक क्षेत्रीय दल की भूमिका में हैं। महागठबंधन में सीट साझा के चलते उन्हें बिहार में 12 विधानसभा और 2 लोकसभा सीटें जीतने में कामयाबी मिली. लेकिन इस कामयाबी के लिए उन्होंने अपनी कई पुरानी राजनीतिक अवधारणाओं से भी पलटी मारी है।

सीपीएम ने नवंबर 1964 में अपनी पार्टी के सातवें महाधिवेशन (पार्टी कांग्रेस) में ही पार्टी का कार्यक्रम स्वीकृत किया जिसे अक्टूबर 2000 में अपडेट भी किया गया। इस कार्यक्रम में राज्य की संरचना और जनवाद के अध्याय में कहा गया है कि वर्तमान भारतीय राज्य, बड़े पूंजीपति वर्ग के नेतृत्व में, पूंजीपतियों और भूस्वामियों के वर्ग शासन का औजार है, जो पूंजीवादी विकास के पथ पर चलते हुए, विदेशी वित्तीय पूंजी के साथ उत्तरोत्तर सहयोग कर रहे हैं। देश के जीवन में, राज्य की भूमिका और काम को सत्तारूढ़ यही वर्ग चरित्र, निर्धारित करता है। सीपीएम ने जनता के जनवाद की स्थापना के लिए अपना क्रांतिकारी कार्यक्रम भारत की जनता के सामने रखा है, जिसमे कहा गया है कि जनता की जनवादी क्रांति, समाजवाद और एक शोषण विहीन समाज की तरफ आगे बढने का मार्ग प्रशस्त करेगी। भारतीय जनता की मुक्ति के लिए इस क्रांति की अगुआई, किसानों के साथ गठबंधन बनाते हुए मजदूर वर्ग करेगा। सीपीएम ने भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में संशोधनवाद और वामपंथी दुस्साहसवाद से वैचारिक संघर्ष कर मेहनतकशों के बीच एक सही और भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण किया है। सीपीएम एक राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी है। हालांकि संसदीय मोर्चे पर उसकी शक्ति घटी है, जिसके कई कारण है लेकिन किसी कम्युनिस्ट पार्टी की राजनीतिक लाइन का मुल्यांकन केवल उसकी संसदीय शक्ति के आधार पर नहीं किया जा सकता है। सीपीएम के नेतृत्व में पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल में वामपक्ष की सरकार ने मौलिक भूमि सुधार समेत जो काम किया है वह अभी भी एक उदाहरण है। वर्तमान में केरल की वाम-जनवादी मोर्चे की सरकार एक जनपक्षीय विकल्प के भविष्य का मॉडल है।

वर्तमान समय में कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच मार्क्सवाद-लेनिनवाद की अंतर्राष्ट्रीय विचारधारा के आधार पर हमारे देश की ठोस परिस्थितियों और यहां के शासक वर्ग का चरित्र के मुल्यांकन में मतभिन्नता है। हालांकि देश में दक्षिणपंथी सांप्रदायिक ताकतों की जहरीले विचारधारा से लड़ने के मामले में वामपक्ष के बीच पुरी एकता जरूरी है। फिलहाल यह दिख भी रहा है, साथ ही किसानों और मजदूर वर्ग पर शासक वर्ग के हमलों के खिलाफ भी संघर्ष के मैदान में वामपक्ष महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। इसलिए समय का तकाजा है कि वामदलों को मेहनतकशों के संघर्षों को और तीखा करने में एकजुटता प्रदर्शित करनी चाहिए। केवल संसदीय राजनीति में शासक वर्ग की पार्टियों से कुछ सीटें लेने के लिए विघटन और विलय की राजनीति से वामदल एक जनपक्षीय वैकल्पिक राजनीतिक शक्ति के रुप में नहीं उभर सकता है।

(लेखक झारखंड मार्स्कवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव हैं। आपके विचार स्वतंत्र हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है। यह आलेख लेखक के फेसबुक पेज से प्राप्त किया गया है।)

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