गांधी को राष्ट्रपिता कहने पर आज भी क्यों खड़े होते हैं विवाद?

गांधी को राष्ट्रपिता कहने पर आज भी क्यों खड़े होते हैं विवाद?

क्षमा करेंगे! यह आलेख पहले ही तैयार हो चुका था लेकिन समयाभाव के कारण इसे अपलोड नहीं कर पाया।

एक बापू के तीन काव्यचित्र

दुख से दूर पहुंचकर गांधी
सुख से मौन खड़े हो
मरते-खपते इंसानों के
इस भारत में तुम्हीं बड़े हो

  • केदारनाथ अग्रवाल

दुनिया गो थी दुश्मन उसकी दुश्मन था जग सारा
आख़िर में जब देखा साधो वह जीता जग हारा
-साग़र निज़ामी

गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पढ़ते हैं
तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं
शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का
शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा(बकरी) का
-दिनकर

राष्ट्रपिता ही नहीं राष्ट्र पर भी विचारधारा के आधार पर खड़े किए जाते हैं सवाल
संविधान नहीं देता इजाजत, पर जनता कहती है तो क्या इसका कोई मतलब नहीं

महात्मा गांधी अगर जिंदा होते तो इस दो अक्टूबर को 175 साल के हो जाते. बापू तो जिंदा नहीं हैं, पर उनके कर्म जिंदा हैं। भारत को दिए उनके महान योगदान जिंदा है. वे शख्स से शख्सियत बन चुके हैं। कुछ तो ऐसा जादू है उस शख्सियत का कि भारत और भारतीयता के साथ ही सियासत के सवालों और वैचारिक बवालों के केंद्र में आज भी सबसे ज्यादा गांधी ही हैं।

महात्मा गांधी के विचार और दर्शन अथवा आजादी की लड़ाई में उनकी भूमिका को लेकर बहस तो चलती ही रहती है। परंतु सबसे अधिक विवाद महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहने या नहीं कहने को लेकर है। लगातार यह तर्क दिया जाता है कि भारत सरकार या संविधान किसी को राष्ट्रपिता कहने की मान्यता नहीं देता। संविधान की धारा 18(1) तो इस तरह की किसी भी उपाधि की इजाजत भी नहीं देता है। इसके बावजूद भारत की बड़ी आबादी महात्मा गांधी को श्रद्धा से राष्ट्रपिता ही कहती है।

महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहे जाने के खिलाफ सबसे अधिक यह सवाल तैरता है कि गांधी जी पूरे देश के बाप कैसे हो सकते हैं। यह बात भी उठाई जाती है कि गांधी राष्ट्र के पुत्र थे, पिता नहीं। ऐसे सवाल ज्यादातर वामपंथियों और हिंदुत्व के वैचारिक खेमे से आते हैं। इसके पीछे दोनों विचारधारा के राजनीतिक चिंतकों का अलग-अलग तर्क है। दक्षिणपंथियों का कहना है कि यह राष्ट्र सनातन है। यूरोप या अमेरिका की तरह इसे किसी व्यक्ति ने नहीं बनाया। इसलिए भारत राष्ट्र का कोई पिता नहीं हो सकता है। वामधारा के राजनीतिक चिंतकों का कहना है कि भारतीय प्रायद्वीप पर कई राष्ट्र हैं। तीन राजनीतिक सीमा वाले देश बन चुके हैं और आगे इसकी गुंजाइस भी है। भारतीय संघ का कोई सांस्कृतिक या राष्ट्रीय स्वरूप नहीं है। कई संस्कृतियों के देश के कारण इसका कोई पिता नहीं हो सकता। यह एक साम्राज्यवादी और पुरातनपंथी सोच है। इसका आधुनिक युग में कोई महत्व नहीं है।

हालांकि, राष्ट्रपिता कहने या नहीं कहने के बारे में गांधी पर श्रद्धा रखने वालों का जवाब थोड़ा संतुलित होता है। वे कहते हैं कि गांधी को राष्ट्रपिता कहना निजी श्रद्धा का विषय है। इस पर न तो आपत्ति होनी चाहिए और न ही इसकी वकालत की जानी चाहिए।

गांधीवादियों का मत है कि राष्ट्रपिता शब्द पर चर्चा-प्रतिचर्चा उस महान राष्ट्रभक्त के प्रति अन्याय है। इतना जरूर है कि गांधी ने आजादी की लड़ाई को आमजनों तक पहुंचा दिया और वे उस संघर्ष के केंद्रीय नायकों में थे। गांधीवादियों का मत है कि राष्ट्रनायक के तौर पर गांधी को यह सम्मान जरूर मिलना चाहिए।

गांधी को राष्ट्रपिता कहे जाने के पीछे एक तर्क यह भी है कि 15 अगस्त 1947 को भारत एक राष्ट्र बना, उस राष्ट्र के निर्माण में बापू का सबसे बड़ा योगदान था, इसलिए उन्हें राष्ट्रपिता कहकर सम्मान दिया जाना चाहिए। इस तर्क के विपक्ष में यह दलील दी जाती है कि भारत 15 अगस्त 1947 को एक राष्ट्र नहीं बना है, बल्कि एक सनातन राष्ट्र है, इसलिए इस राष्ट्र का कोई निर्माता कैसे हो सकता है? सनातन राष्ट्रवादियों के तर्क को यह कहकर भोथरा करने की कोशिश की जाती है कि जिस व्यक्ति ने गांधी को भारत का राष्ट्रपिता पहली बार कहा, वह व्यक्ति भारत को नव राष्ट्र नहीं बल्कि एक शाश्वत सनातन राष्ट्र मानता था। वह व्यक्ति और कोई नहीं बल्कि सुभाषचंद्र बोस थे।

पश्चिमी सभ्यता जब विकसित होने लगी तो वहां छोटे-छोटे राज्यों को जीतकर बड़े देश बनाए जाने लगे. उन्हें राष्ट्र-राज्य यानी नेशन-स्टेट कहा जाने लगा। नए बने नेशन स्टेट के सभी इलाकों की गौरव-गाथा बताने वाली ऐतिहासिकता के आधार पर राष्ट्रीयताएं परिभाषित की जाने लगी। आजादी की लड़ाई के बाद अस्तित्व में आए नए देश के लिए भी ऐसा होने लगा। इस कारण आजादी की लड़ाई के सबसे बड़े नायक को ‘फादर ऑफ द नेशन’ कहा जाने लगा। संयुक्त राज्य अमेरिका में जॉर्ज वाशिंगटन, जर्मनी में बिस्मार्क और इटली में काउंट कावूर के लिए ऐसा कहा गया। तुर्की में मुस्तफा कमाल पाशा के लिए ‘अतातुर्क’ भी इसी से मिलता-जुलता शब्द था। परंतु उन देशों में भी इन उपाधियों को संवैधानिक मान्यता नहीं मिली। इस कारण वहां भी अब शायद ही इस उपाधि का कोई नाम लेता है।

भारत में पहली बार गांधी को राष्ट्रपिता कह कर सुभाषचंद्र बोस ने संबोधित किया। चार जून, 1944 को सिंगापुर रेडियो से भारतवासियों के नाम संबोधन में सुभाष बाबू ने गांधी को इसकी उपाधि दी। उस संबोधन में उन्होंने कहा कि जिस राष्ट्र का राष्ट्रपिता उपवास पर बैठा हो, वह राष्ट्र चौन से कैसे रह सकता है. उन्होंने कहा कि वे देश के लिए आजादी लाकर बापू के चरणों में डाल देंगे। सुभाष बाबू ने कहा कि भारत की मुक्ति के इस पवित्र युद्ध में हमारे राष्ट्रपिता हम आपसे आशीर्वाद और शुभकामनाएं मांगते हैं।

यह पहला मौका था जब किसी ने गांधी को राष्ट्रपिता कहा. गांधी को राष्ट्रपिता कहने का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का है। उन्होंने बापू की हत्या के बाद देश के नाम संबोधन में कहा था राष्ट्रपिता नहीं रहे।

साल 2012 में लखनऊ की 10 साल की बच्ची ऐश्वर्य पाराशर ने अपनी मां के कहने पर सूचना के अधिकार के तहत प्रधानमंत्री कार्यालय में आवेदन भेजा। इस आवेदन में पूछा गया कि किसने पहली बार महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता की उपाधि दी. छठी कक्षा में पढ़ने वाली बच्ची के आवेदन ने प्रधानमंत्री कार्यालय को पुराने दस्तावेज खंगालने पर मजबूर कर दिया। प्रधानमंत्री कार्यालय ने कहा कि उसके पास ऐसा कोई रिकॉर्ड नहीं है, जिसके आधार पर वह जवाब दे सके। पीएमओ ने उस आवेदन को केंद्रीय गृह मंत्रालय को भेज दिया. केंद्रीय गृह मंत्रालय ने उसे नेशनल आर्काइव ऑफ इंडिया को बढ़ा दिया. नेशनल आर्काइव ऑफ इंडिया भी इस सवाल का जवाब नहीं तलाश सका और 10 साल की बच्ची के आगे हाथ खड़े कर दिए।

गांधी को राष्ट्रपिता कहने या नहीं कहने के बारे में हिंदुत्व के विचारक प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज की दृष्टि थोड़ी अलग है। पंकज कहते हैं कि गांधी को राष्ट्रपिता कहें या नहीं इससे अधिक महत्वपूर्ण यह है कि राष्ट्रपिता शब्द की भाषाई मीमांसा होनी चाहिए. क्या यह शब्द संस्कृति और भाषा की संवेदना अथवा व्याकरण की कसौटी पर खऱा उतरता है। पश्चिमी देशों में नेशन-स्टेट नये बने थे. इसलिए उनकी आजादी की लड़ाई के सबसे बड़े नेता या एकीकरण के सबसे बड़े नायक को ‘फादर ऑफ द नेशन’ कहा गया। उसका अगर हिंदी में शाब्दिक अनुवाद भी करें तो वह आधुनिक राष्ट्र के निर्माता, आधुनिक जर्मनी के निर्माता या आधुनिक अमेरिका के निर्माता जैसे शब्द ही आएंगे।

अब ‘फादर ऑफ द नेशन’ शब्द पर जरा भारत की परिस्थितियों में विचार करें तो इसका अर्थ यही हो सकता है आधुनिक भारत के निर्माता. लेकिन गांधी को आधुनिक भारत के निर्माता कहना भी उचित नहीं होगा। क्योंकि आजादी की लड़ाई में कई समानांतर और प्रबल धाराएं प्रवाहित हो रही थीं। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने तो अंग्रेजों को युद्ध में परास्त कर हिंदुस्तान के बड़े भू-भाग पर आजाद हिंद सरकार की स्थापना 15 अगस्त 1947 से बहुत पहले ही कर ली थी। क्या हम उन्हें आधुनिक भारत का निर्मता नहीं कहेंगे. इसलिए गांधी जी को आधुनिक भारत के निर्माताओं में से एक कहना ज्यादा उचित होगा।

रामेश्वर मिश्र पंकज कहते हैं कि यहां यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि गांधी जी को पहली बार राष्ट्रपिता नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने ही कहा था लेकिन इसे एक व्यक्ति की निजी श्रद्धा और प्रशंसा के रूप में लेना ज्यादा उचित होगा। क्योंकि, भारत 15 अगस्त 1947 को एक राष्ट्र नहीं बना है। यह सनातन राष्ट्र है। वेदों में इसे परिभाषित किया गया है. हजारों साल पहले इसकी चौहद्दी बता दी गई है।

विष्णु पुराण में कहा गया हैः
उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चौव दक्षिणं
वर्षं तद्भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः
(यानी समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण में जो देश है, उसे भारत तथा उनकी संतानों को भारती कहते हैं.)

आदि शंकराचार्य ने इसी भारत राष्ट्र का सांस्कृतिक दिग्विजय कर इसके चारों कोनों पर चार मठों की स्थापना की थी। यानी भारत एक राष्ट्र के रूप में उससे भी काफी प्राचीन है. इसलिए इस भारत राष्ट्र का पिता तो केवल भगवान विष्णु को कहा जा सकता है। अगर हमें आधुनिक भारत राष्ट्र का निर्माता जैसे शब्द गढ़ने की भी मजबूरी हो तो इसके लिए आदि शंकराचार्य सबसे श्रेष्ठ पात्र होंगे।

पश्चिम में धार्मिक विश्वास के कारण हर समूह में एक मार्गदर्शक और बाकी की उसके अनुयायी के रूप में तलाश रहती है। इस कारण वहां ‘फादर ऑफ द नेशन’ ही नहीं बल्कि फादर ऑफ बॉयोलॉजी और फादर ऑफ हिस्ट्री से लेकर जीवन के अनेकानेक क्षेत्रों में फादर हो गए. भारत में उसी का भौंड़ा नकल करने की कोशिश की गई। जबकि यहां मानव जीवन, समाज, राष्ट्र या ज्ञान की किसी भी धारा को सातत्य में देखा जाता रहा है। इस कारण राष्ट्रपिता जैसी किसी भी उपाधि की अनुमति भारतीय परंपरा, सभ्यता या संस्कृति नहीं देती है. असंवैधानिक तो वैसे भी है।

भारत राष्ट्र-राज्य नहीं बल्कि राष्ट्र है। वह भी हजारों साल पुराना इसका इतिहास है. इसलिए इस राष्ट्र का पिता तो कोई हो ही नहीं सकता है। भाषा के मानकों पर भी ‘फादर ऑफ द नेशन’ का हिंदी अनुवाद राष्ट्रपिता नहीं बल्कि आधुनिक भारत के निर्माता होगा. गांधी जी के संदर्भ में अगर कहा जाय तो उन्हें आधुनिक भारत के निर्माता की जगह आधुनिक भारत के निर्माताओं में से एक कहना ठीक रहेगा। भारत राष्ट्र और भारतीय संस्कृति की अवधारणा में राष्ट्रपिता शब्द फिट नहीं बैठता हैं. असंवैधानिक तो यह वैसे भी है।

गांधीवादी विचारक राजीव वोरा कहते हैं कि महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता होने का सवाल वही लोग उठाते हैं, जो राष्ट्र को उनके योगदान के प्रति कृतघ्न हैं और अंततः राष्ट्र के प्रति भी कृतज्ञ नहीं हैं. इस सवाल के पीछे भाव गांधी जी की निंदा का है। ऐसा करना राष्ट्रधर्म नहीं है. पिता वह होता है, जो अपनी सभी संतानों को समान भाव से देखता है। भारत राष्ट्र के सभी घटकों के प्रति इस तरह के भाव के लिए बापू राष्ट्रपिता की कसौटी पर बिल्कुल खरे हैं। जो लोग गांधी जी को राष्ट्रपिता कहने का अर्थ जैविक पिता पर खींचकर ले जाते हैं, वे बिल्कुल नादान हैं. अगर ऐसा ही है हमलोग जो खुद को राम और कृष्ण की संतान कहते हैं, ऋषियों की संतान कहते हैं, इसे क्या कहा जाए। यहां तक कि जो लोग खुद को भारत माता की संतान कहते हैं, क्या उनका भारत माता से जैविक मां का रिश्ता है? खुद गांधी जी ने भी कहा था कि जो लोग मशीनी सभ्यता को पूजते हैं, वे राम के नहीं रावण की संतान हैं। यहां जिनकी संतान से तात्पर्य है, उन्हें विशेषण में क्या कहा जाएगा?

पिता केवल जैविक हो, यह जरूरी नहीं है। पितृतुल्य को भी पिता कहने की परंपरा हमारे यहां रही है। पिता वह होता है, जो जगाता है, जो उठाता है, जो प्रेरणा का प्रतीक बनकर आगे ले जाता है। निःस्वार्थ भक्तिभाव वाले रिश्ते को भी पिता का नाम दिया जाता है।

राजीव वोरा कहते हैं गांधी से बड़ा सनातन और भारतीयता का समर्पित साधक नहीं हुआ है। वे भारतीय होने पर गर्व करते थे। गांधीजी एक आध्यात्मिक हिंदू और हिंदू धर्म के मूलतत्वों के आधार पर ही उन्होंने राष्ट्रजीवन के मूल तत्वों और वैश्विक मानवता से उसके रिश्ते की कल्पना की थी। ‘मैं हिंदू क्यों हूं’ नामक लेख में उन्होंने खुद के हिंदू होने के कारण भी गिनाए हैं. इसी के आधार पर वे सबके साथ समभाव रखते हैं। इसलिए ही नानक, बुद्ध, कबीर की तरह गांधी भी फादर फिगर हैं। महात्मा गांधी भारत के आध्यात्मिक, वैचारिक और नैतिक पिता हैं। इसलिए उन्हें राष्ट्रपिता कहने में दोष कैसा?

बापू राष्ट्र-जीवन को दिशा देने वाले महारथी थे. उन्हें राष्ट्र को अलग-अलग दिशा में ले जाने वाले घोड़ों को हांकना पड़ता था। वे जानते थे कि किस घोड़े की लगाम कसनी है, किसकी खींचनी है और किसकी ढीली छोड़नी है। हिंदुओं के बारे में वे स्पष्ट थे कि उन्होंने ही यह सभ्यता खड़ी की है। वे यहां सबसे पहले से रह रहे हैं। उनकी संख्या सबसे ज्यादा है. इसलिए हिंदुओं को समय-समय पर दायित्वबोध भी कराते रहते थे। इसी को आधार बनाकर गांधी की गरिमा को कम करना भारतीय संस्कृति के लक्षण नहीं हैं। यह तो पिता का काम ही है कि हर संतान की जरूरत और क्षमता के आधार पर उसे आगे की दिशा दे। भारत का सामर्थ्य जगाने के इस पितृकर्म के लिए गांधी को राष्ट्रपिता कहा ही जाना चाहिए।

लेखक फादर प्रकाश लुईस कहते हैं कि भारत को एक राष्ट्र के रूप में बनते देखना है तो आजादी की लड़ाई को गांधी के आने से पहले और गांधी के आने के बाद के हिस्सों में बांट दीजिए। आप देखेंगे की गांधी ने कुछ लोगों के स्वतंत्रता आंदोलन तो सबके आंदोलन में बदल दिया। अगर भारत के इतिहास में गांधी से बड़ा कोई जन-जन का चहेता हो तो उसका नाम बता दीजिए, मैं मान लूंगा कि गांधी राष्ट्रपिता नहीं थे लेकिन मेरा पूरा विश्वास है कि आप नहीं खोज पाएंगे. क्योंकि, एक मुट्ठी नमक से ब्रिटिश साम्राज्य को हिला देने की ताकत केवल गांधी में ही थी। गांधी के प्रेम का दायरा इतना बड़ा था तकि उसमें अमीर-गरीब, हिंदु-मुसलमान, सिख-ईसाई सभी समा जाते थे। एक ओर भारत छोड़ो आंदोलन और दूसरी ओर खिलाफत आंदोलन का नेतृत्व करने का करिश्मा गांधी ही दिखा सकते थे। ऐसे शख्स को राष्ट्रपिता कहने वाले व्यक्ति की बुद्धि पर हमें तरस आती है।

गांधी को राष्ट्रपिता कहने पर विवाद करने वाले खुद ही हाशिये पर चले जाएंगे. इसलिए ही इतिहास को बदलने की कोशिश की जा रही है। पंरतु चिंता की बात यह है कि नई पीढ़ी को गांधी की महानता के बारे में बहुत कम पता है.यह हम सब लोगों का दायित्व बनता है कि हम जनसामान्य को गांधी के योगदानों से परिचित कराएं।

लेखक एवं स्तंभकार डॉ. शंकर शऱण कहते हैं कि तुर्की के राष्ट्रपति मुस्तफा कमाल को तुर्की संसद द्वारा 1934 में ‘‘अता-तुर्क’’ (तुर्कों के पिता) की उपाधि दी गई थी. उसी नकल में भारत में गांधीजी को और बढ़ कर ‘‘राष्ट्र-पिता’’ कह दिया गया. यद्यपि यह भारतीय संसद द्वारा स्वीकृत कोई औपचारिक उपाधि नहीं थी।

पर अनौपचारिक भी सही, भारत जैसे प्राचीन राष्ट्र के लिए किसी आज के नेता को उस के श्पिताश् की उपाधि देना बचकाना तथा अशोभनीय भी है। क्योंकि तब भारत राष्ट्र का जन्म बस 1947 ई. से मानना होगा। अथवा, राजा भरत (जिन से भारतवर्ष नाम बना), मर्यादा पुरुषोत्तम राम, देवदत्त भीष्म, वासुदेव कृष्ण, वेद व्यास, आदि से लेकर तुलसी, कबीर, स्वामी विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ टैगोर, आदि महानतम भारतीय ज्ञानियों-मनीषियों की पूरी श्रृंखला के भी ऊपर गाँधीजी को रखना होगा। क्योंकि यदि भारत प्राचीन राष्ट्र है, तो उन सब महान भारतीयों के भी ‘पिता’ गाँधीजी को मानने जैसा होगा। कोई तीसरी स्थिति तो नहीं दिखती।

पर चूँकि राम और कृष्ण से भी ऊपर गांधीजी को रखना शायद ही किसी भारतीय को स्वीकार्य होगा, अतः यह ‘राष्ट्रपिता’ उपाधि तुर्कों की एक मतिहीन नकल ही है। किसी अन्य सभ्य यूरोपीय अमेरिकी या एशियाई देशों में ऐसा उदाहरण नहीं है। सो, इस विचित्र उपाधि से यहां कुछ नेताओं और दलों को लाभ होता रहा है, जो इस आडंबर की आड़ में अनेक गलत विचारों और कामों को अनुकरणीय बताते रहे हैं। क्योंकि वे गाँधीजी के विचार और काम थे! विशेषकर धर्म, दर्शन, और राजनीति क्षेत्र में।

अत: न केवल यह उपाधि एक क्षुद्र नकल थी, अपितु उस से देश की वैचारिक, शैक्षिक तथा राजनीतिक हानि भी होती रही है।

One thought on “गांधी को राष्ट्रपिता कहने पर आज भी क्यों खड़े होते हैं विवाद?

  1. विवाद केवल कुछ लोगों के दिमाग़ की उपज है । गांधी के बिना हिंदुस्तान की कल्पना अधूरी है ।

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