संविधान निर्माण के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

संविधान निर्माण के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

स्वतंत्रता की लड़ाई में और उसके ठीक बार संविधान निर्माण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की कोई प्रत्यक्ष या आधिकारिक भूमिका नहीं थी। आरएसएस उस समय एक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन था और उसने संविधान सभा के गठन में भाग नहीं लिया था क्योंकि वह मुख्य रूप से राजनीतिक गतिविधियों में शामिल नहीं होता था। संविधान सभा का गठन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, मुस्लिम लीग और अन्य राजनीतिक दलों के प्रतिनिधित्व के आधार पर हुआ था। हालांकि, आरएसएस और उससे जुड़े नेताओं ने भारत के संविधान और उससे संबंधित कुछ मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त किए थे लेकिन समय के साथ, आरएसएस ने संविधान को स्वीकार किया और इसका पालन करने का संकल्प लिया। वर्तमान में, आरएसएस संविधान के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करता है, हालांकि वह इसकी कुछ व्याख्याओं को भारतीय सांस्कृतिक दृष्टिकोण से देखने की वकालत करता है।

संविधान के पश्चिमी मॉडल पर आधारित होने के कारण आरएसएस ने प्रारंभिक दिनों में भारतीय संविधान की आलोचना की थी। उस समय, संघ के कुछ नेताओं का मानना था कि भारतीय संविधान में भारत की पारंपरिक और सांस्कृतिक विरासत को पर्याप्त स्थान नहीं दिया गया है। उन्होंने इस बात पर भी सवाल उठाया कि भारत का संविधान विदेशी व्यवस्थाओं, जैसे ब्रिटिश और अमेरिकी संविधान, से प्रेरित क्यों है। गोलवलकर ने संविधान को इस आधार पर आलोचना की कि यह पूरी तरह से पश्चिमी संविधान की नकल है और भारतीय परंपराओं व सांस्कृतिक धरोहर का प्रतिनिधित्व नहीं करता।उन्होंने यह भी कहा कि संविधान में ष्धर्मष् को एक नैतिक और सामाजिक व्यवस्था के रूप में पर्याप्त स्थान नहीं दिया गया है। गोलवलकर ने तर्क दिया कि भारत के लिए ष्धर्मष् को आधार बनाकर एक संविधान बनाना चाहिए था, जो भारतीय संस्कृति और सभ्यता को प्रतिबिंबित करता। उन्होंने ष्विधिक अधिकारोंष् के बजाय ष्कर्तव्योंष् पर अधिक जोर देने की बात की थी।

हिंदू महासभा के कई नेताओं ने संविधान की आलोचना की। उनका दृष्टिकोण यह था कि संविधान भारतीय सभ्यता के मूल्यों के बजाय औपनिवेशिक मानसिकता और पश्चिमी मॉडल पर आधारित था। हिंदू महासभा के प्रमुख विचारक वी.डी. सावरकर ने यह तर्क दिया कि संविधान में ष्हिंदू राष्ट्रष् के विचार को पूरी तरह से नजरअंदाज किया गया।वे इस बात से असंतुष्ट थे कि संविधान में हिंदू सभ्यता और सांस्कृतिक पहचान को प्रमुखता नहीं दी गई है।उनका मानना था कि भारत को एक सांस्कृतिक राष्ट्र के रूप में परिभाषित किया जाना चाहिए था।सावरकर ने संविधान की ष्धर्मनिरपेक्षताष् की अवधारणा का विरोध किया और इसे भारत की सांस्कृतिक विरासत के विरुद्ध माना। 30 नवंबर 1949 को, ‘ऑर्गेनाइज़र’ (आरएसएस का मुखपत्र) में प्रकाशित संपादकीय में लिखा गया था -‘‘हमारे संविधान में प्राचीन भारत के किसी भी विशिष्ट और महान तत्व को जगह नहीं दी गई है। इसमें कोई संकेत नहीं है कि यह भारत का संविधान है।’’

आरएसएस के ष्धर्मष् और धर्मनिरपेक्षता के विचारों की अक्सर आलोचना की जाती है। कुछ आलोचक इसे एक हिंदू-प्रधान दृष्टिकोण मानते हैं और कहते हैं कि यह अन्य धर्मों को हाशिये पर रखने का प्रयास है हालांकि आरएसएस इस बात पर जोर देता है कि उसकी परिभाषा किसी विशेष धर्म पर आधारित नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति पर आधारित है। आरएसएस ष्धर्मनिरपेक्षताष् के भारतीय दृष्टिकोण को पश्चिमी परिभाषा से अलग मानता है।

पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है धर्म और राज्य का पूर्ण अलगाव, यानी सरकार और धर्म का कोई संबंध नहीं होगा जबकि भारतीय संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है सभी धर्मों का सम्मान और समान दृष्टिकोण। आरएसएस ष्पंथनिरपेक्षताष् पर जोर देता है, जिसका मतलब है कि सभी पंथ और पूजा-पद्धतियाँ समान हैं।यह राज्य से अपेक्षा करता है कि वह किसी विशेष धर्म का पक्ष न ले, लेकिन समाज में धार्मिक मूल्यों को प्रोत्साहित करे। आरएसएस के अनुसार, धर्मनिरपेक्षता का मतलब यह नहीं है कि राज्य धर्म से कट जाए, बल्कि यह सुनिश्चित करे कि सभी धर्मों का आदर हो और कोई भी धर्म-विरोधी नीतियाँ न बनाई जाएं। आरएसएस यह मानता है कि भारत में धर्मनिरपेक्षता को भारतीय संस्कृति और परंपराओं के साथ जोड़ा जाना चाहिए, न कि पश्चिमी मूल्यों के आधार पर परिभाषित किया जाना चाहिए। आरएसएस भारत को एक धार्मिक और सांस्कृतिक राष्ट्र मानता है, जिसमें धर्म और संस्कृति एक-दूसरे से अलग नहीं हैं। इसके अनुसार, भारत का सामाजिक और राजनीतिक ढाँचा धर्म (नैतिकता) पर आधारित होना चाहिए।ष्धर्मष् का उद्देश्य केवल व्यक्ति की मुक्ति नहीं है, बल्कि समाज और राष्ट्र की भलाई भी है। धर्म का पालन व्यक्ति और समाज के बीच सामूहिक हित और अनुशासन को बनाए रखने के लिए आवश्यक है।

आरएसएस की स्थापना 27 सितंबर 1925 को नागपुर में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा की गई थी। प्रारंभ में आरएसएस का उद्देश्य हिन्दू समाज में व्याप्त सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक पुनर्जागरण करना था। यह एक सांस्कृतिक संगठन के रूप में आरंभ हुआ, जिसका मुख्य ध्यान हिंदू समाज को संगठित करना और उसकी शक्ति को जागृत करना था। त्ैै ने अपनी राजनीतिक भूमिका का आरंभ प्रत्यक्ष रूप से नहीं, बल्कि भारतीय जनता के बीच अपनी विचारधारा के प्रचार और स्वयंसेवकों के माध्यम से किया। हालांकि, स्वतंत्रता संग्राम के दौरान संघ ने राजनीतिक रूप से तटस्थ रुख अपनाया, लेकिन स्वतंत्रता के बाद इसके स्वयंसेवक विभिन्न राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग लेने लगे।

आरएसएस के स्वयंसेवकों ने 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो बाद में भारतीय जनता पार्टी का आधार बनी। संघ के माध्यम से प्रशिक्षित स्वयंसेवकों ने राजनीति में राष्ट्रीयता, सांस्कृतिक पुनर्जागरण, और धर्म आधारित सामाजिक संरचना के मुद्दों को प्रमुखता से उठाया। आरएसएस का राजनीतिक योगदान अप्रत्यक्ष लेकिन प्रभावशाली रहा है। संघ ने शिक्षा, समाज सेवा, और वैचारिक प्रचार के माध्यम से अपनी विचारधारा को समाज के हर क्षेत्र में स्थापित करने का प्रयास किया। वर्तमान में, संघ की विचारधारा और उसके प्रशिक्षित कार्यकर्ता भारत की राजनीति, विशेष रूप से ठश्रच्, पर गहरा प्रभाव डालते हैं।

आरएसएस की भूमिका भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में एक जटिल और बहस का विषय रही है। संघ के आलोचक और समर्थक इस पर अलग-अलग दृष्टिकोण रखते हैं। आरएसएस ने स्वतंत्रता आंदोलन में प्रत्यक्ष रूप से कोई बड़ी भूमिका नहीं निभाई लेकिन स्वतंत्रता के बाद भारतीय राजनीति और समाज में इसका प्रभाव बढ़ा। संघ ने स्वतंत्रता संग्राम में न शामिल होने के अपने रुख को यह कहकर सही ठहराया कि उनका ध्यान दीर्घकालिक सामाजिक संगठन पर था। 1925 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने आरएसएस की स्थापना हिंदू समाज को संगठित और मजबूत बनाने के उद्देश्य से की थी।

संघ का मुख्य फोकस सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्निर्माण पर था, न कि प्रत्यक्ष राजनीतिक गतिविधियों पर। संघ ने औपचारिक रूप से स्वतंत्रता आंदोलन में भाग नहीं लिया और किसी आंदोलन, जैसे कि सविनय अवज्ञा आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन आदि में संघ के नेतृत्व ने भागीदारी का आह्वान नहीं किया। डॉ. हेडगेवार व्यक्तिगत रूप से कांग्रेस के कार्यों में शामिल रहे थे, लेकिन संघ के गठन के बाद उन्होंने इसे एक गैर-राजनीतिक संगठन के रूप में रखा। हालांकि, संघ के कुछ स्वयंसेवकों ने व्यक्तिगत तौर पर स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया। उदाहरण के लिए, डॉ. हेडगेवार ने 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लिया और जेल भी गए लेकिन ये गतिविधियां उनके व्यक्तिगत निर्णय थीं, संघ की ओर से नहीं। 1942 के श्भारत छोड़ो आंदोलनश् के दौरान, त्ैै ने आंदोलन में औपचारिक रूप से भाग नहीं लिया। संघ ने अपने स्वयंसेवकों को आंदोलन में भाग लेने से रोका भी नहीं लेकिन संगठन स्तर पर इसमें शामिल नहीं हुआ। संघ के समर्थक यह तर्क देते हैं कि संघ ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान समाज में संगठन और अनुशासन का माहौल बनाया, जो स्वतंत्र भारत में उपयोगी साबित हुआ।

आरएसएस और हिंदू महासभा ने भारतीय संविधान को पूरी तरह से अस्वीकार नहीं किया। उन्होंने संविधान की कुछ विशेषताओं (जैसे लोकतंत्र, संघवाद, और स्वतंत्रता) का समर्थन किया, लेकिन इसके सांस्कृतिक और धार्मिक पहलुओं की उपेक्षा को लेकर असंतोष व्यक्त किया। हालांकि प्रारंभ में आरएसएस ने संविधान के कुछ हिस्सों की आलोचना की, परंतु समय के साथ संगठन ने संविधान को स्वीकार कर लिया। 1950 के बाद, आरएसएस ने भारतीय संविधान का पालन किया और इसे देश की शासन व्यवस्था का आधार माना। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भारत के मौजूदा संविधान के प्रति दृष्टिकोण एक जटिल और समय के साथ विकसित हुई धारणा है। स्वतंत्रता के बाद से आरएसएस ने भारतीय संविधान की सराहना और आलोचना, दोनों की है। इसका दृष्टिकोण मुख्य रूप से संविधान की मूल संरचना और उसकी विचारधारा में हिंदुत्व को शामिल करने की आवश्यकता पर आधारित रहा है। संघ ने हमेशा से भारत को ष्हिंदू राष्ट्रष् के रूप में देखा है और संविधान में इस धारणा को प्रतिबिंबित करने की आवश्यकता पर बल दिया है।

संघ ने संविधान के प्रति अपना रुख समय के साथ नरम किया है। आज संघ भारतीय संविधान का सार्वजनिक रूप से समर्थन करता है और इसे भारत की कानूनी और प्रशासनिक व्यवस्था की आधारशिला मानता है। संविधान में निहित लोकतांत्रिक मूल्यों, समानता और न्याय के सिद्धांतों का संघ समर्थन करता है। संघ का मानना है कि संविधान में कुछ संशोधन किए जाने चाहिए ताकि यह भारत की सांस्कृतिक और सभ्यतामूलक परंपराओं को बेहतर तरीके से प्रतिबिंबित करे। विशेष रूप से, अनुच्छेद 370 (जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा) जैसे प्रावधानों पर संघ ने हमेशा आपत्ति जताई। यह 2019 में हटाया गया, जिसे संघ ने अपनी एक बड़ी वैचारिक जीत के रूप में देखा। संघ संविधान के अनुच्छेद 44 में निहित समान नागरिक संहिता को लागू करने का प्रबल समर्थक रहा है। संघ संविधान में राष्ट्रीय प्रतीकों जैसे कि तिरंगे झंडे, जन गण मन, और भारतीय गणराज्य की संरचना का सम्मान करता है। हालांकि, शुरुआती दिनों में संघ का रुख तिरंगे को लेकर विवादित रहा था, लेकिन अब वह इसे पूरी तरह स्वीकार करता है। भारतीय जनता पार्टी, जो संघ के वैचारिक मार्गदर्शन से प्रभावित है, संविधान के तहत नीतियां बनाती है। इसके जरिए संघ अप्रत्यक्ष रूप से संविधान की धाराओं और व्याख्याओं को प्रभावित करने का प्रयास करता है।

(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)

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