गुरविंदर
प्रधानमंत्री मोदी देश को विश्वगुरु बनाने के जुमले फेंकता नहीं थकता, लेकिन समय-समय पर आने वाली रिपोर्टें उसके खोखलेपन का पर्दाफ़ाश करके रख देती हैं। हर साल विश्व स्तर पर अंतरराष्ट्रीय भुखमरी सूचकांक के नाम पर रिपोर्ट प्रकाशित होती है, जो अलग-अलग देशों के लोगों के जीवन हालात को दर्शाती है। साल 2024 की रिपोर्ट थोड़े दिन पहले प्रकाशित हुई है। दुनिया के 127 मुल्कों में आँकड़े इकट्ठा करके रिपोर्ट बनाई गई है। रिपोर्ट ने मोदी हुकूमत के विकास के दावों की पोल खोलकर रख दी है। रिपोर्ट के अनुसार, 127 देशों में भुखमरी के मामले में भारत नीचे से 105वें नंबर पर आता है। मोदी हुकूमत के 10 सालों के कार्यकाल में इस स्थिति में तेज़ी से गिरावट आई है। साल 2014 में मोदी की ताजपोशी के दौरान भारत भुखमरी सूचकांक में 55वें नंबर पर था। साल 2023 में तो भारत इस दर्जाबंदी में 111वें स्थान पर पहुँच गया था। इस समय भारत में भुखमरी की स्थिति गंभीर है। रिपोर्ट के अनुसार, आर्थिक और राजनीतिक अस्थिरता झेल रहे श्रीलंका और बांग्लादेश के साथ नेपाल की हालत भी भारत से काफ़ी बढ़िया है।
भुखमरी सूचकांक तीन नुक्तों को मिलाकर बनाया जाता है दृ कुल आबादी में कुपोषित/भुखमरी के शिकार लोगों का प्रतिशत, 5 साल से कम उम्र के बच्चों का भार और क़द और साल में पैदा होने वाले बच्चों की मृत्यु दर। इन तीनों नुक्तों में ही भारत की हालत बहुत गिरी हुई है। भारत की कुल आबादी का 14 प्रतिशत भुखमरी का शिकार है, जिसकी संख्या 20 करोड़ के करीब बनती है। ब्राज़ील की कुल आबादी लगभग 20 करोड़ है और इतने ही लोग भारत में भुखमरी का शिकार हैं। कुल आबादी में 35.5ः बच्चों (हर तीसरा बच्चे) का क़द अपनी उम्र से छोटा है और 18.7 प्रतिशत बच्चों (यानी हर पाँचवें बच्चे) का भार अपनी उम्र से कम है। इसका एक कारण, जहाँ इन बच्चों को अच्छी खुराक न मिलना है, वहीं इन बच्चों की माँओं में ख़ून की कमी, कमज़ोर स्वास्थ्य आदि भी है। साल में पैदा होने वाले हर 1000 बच्चों में से 26 की मौत हो जाती है, जिसका बड़ा कारण वेंटीलेटर पर पड़ी सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था भी है।
रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद यूनियन सरकार ने अपने घटिया प्रदर्शन को मानकर स्थिति सुधारने के बारे में बात करने की बजाय रिपोर्ट को ही ग़लत बताना शुरू कर दिया। पहले भी यूनियन सरकार ने बेरोज़गारी की हालत को बयान करती रिपोर्ट के बाद रोज़गार का प्रबंध करने की बजाय आँकड़ा विभाग को ही बंद करने का रास्ता चुना, ताकि बेरोज़गारी के आँकड़ों के बारे में पता ही न चल सके। 24 घंटे बक-बक करता गोदी मीडिया भी रिपोर्ट को ग़लत साबित करने के लिए घंटा-घंटा लंबे कार्यक्रम कर रहा है, लेकिन समाज का हर तर्कशील और इंसाफ़पसंद व्यक्ति हक़ीक़त जानता है कि पर्दा डालने से सच्चाई कभी नहीं छिपती। पंजाब का मैनचेस्टर कहे जाने वाले शहर लुधियाणा (जिसकी गंदी बस्तियाँ देख अमीरों का मूड खराब हो जाता है) में हज़ारों कुपोषित और अलग-अलग बीमारियों से ग्रस्त मज़दूरों को आम देखा जा सकता है, लेकिन हुकूमत और इनके तलवे चाटने वाले मीडिया को यह हक़ीक़त नहीं दिखती।
भुखमरी और कुपोषण जैसी अलामतों के लिए अक्सर यह कुतर्क दिया जाता है कि इतनी ज़्यादा आबादी का पेट कैसे भरा जाए? इस आम प्रचारित झूठ को कई समझदार लोग भी सच मानने लगते हैं। लेकिन क्या इसमें थोड़ी-सी भी सच्चाई है? आँकड़ों के मुताबिक़, साल 2023-24 में भारत में अनाज की रिकार्ड पैदावार 33.2 करोड़ टन हुई है, जो भारत की कुल आबादी का पेट भरने के लिए काफ़ी है। भारत विश्व में अनाज उत्पादन की सूची में आगे वाले स्थानों में आता है और विदेशों को अनाज का निर्यात भी करता है। इतना उत्पादन होने के बावजूद भी 20 करोड़ आबादी भुखमरी से जूझ रही है, तो इसका कारण अनाज का उत्पादन बिल्कुल नहीं है। पिछले दो सालों में खाद्य पदार्थों की क़ीमत में काफ़ी वृद्धि हुई है। साल 2022 में खाद्य पदार्थों की महँगाई दर 3.8 प्रतिशत थी, जो 2024 में बढ़कर 7.5ः तक चली गई है, जिसकी मार देश के 90-95 प्रतिशत आबादी पर पड़ी है, इसलिए मेहनतकश आबादी के बहुत बड़े हिस्से की पौष्टिक भोजन तक पहुँच मुश्किल हुई है। 100-150 रुपए प्रति किलो बिक रही दालें, 150 प्रति लीटर तेल आदि ख़रीदना मेहनतकश आबादी के बस से बाहर है।
इन हालात में सरकारों का काम ग़रीब मेहनतकश आबादी तक राशन पहुँचाने का होना चाहिए, लेकिन इसके बिल्कुल उलट हर साल खाद्य पदार्थ मुहैया करवाने के लिए रखे गए फं़डों में कटौती की जा रही है। पंजाब की हालत की बात करें, तो भगवंत मान सरकार ने ग़रीबों को मिलने वाले राशन में और कटौती की है। मशहूरी पाने के लिए प्रति व्यक्ति 5-5 किलो आटा घर-घर पहुँचाने की बात करने वाले मुख्यमंत्री के राज्य में कई-कई महीने ग़रीबों के घर आटा नहीं पहुँचता। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत अनाज के अलावा मिलने वाले खाद्य पदार्थ जैसे चीनी, तेल, चायपत्ती आदि का तो कहीं नामो-निशान नहीं है। यूनियन स्तर पर शुरू हुई अलग-अलग स्कीमें भी नेताओं और नौकरशाही के पेट भरने का स्रोत ही बनी हैं। मिड-डे मील, राष्ट्रीय पोषण मिशन जैसी स्कीमों में हुए घोटालों के बारे में ख़बरें आती ही रहती हैं। एक ख़बर के मुताबिक़, मिड-डे मील में मिलने वाले भोजन के साथ पिछले तीन सालों में 900 विद्यार्थी बीमार हुए हैं। कुल मिलाकर देश की हालत के लिए ज़िम्मेदार देश पर शासन करने वाली सरकारें और इनके शासक हैं। भारत की यूनियन सरकार और राज्य सरकार ने राशन की सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मज़बूत करने की जगह इसे बंद करने का रास्ता चुना हुआ है।
संतुलित पौष्टिक भोजन मानव अधिकार है, जिसे लोगों के टैक्स के साथ चलने वाली सरकारों ने मुहैया करवाना होता है, लेकिन आज़ादी के 8 दशकों के बाद भी सरकारें यह अधिकार मुहैया करवाने में नाकामयाब रही हैं। बल्कि सरकारें लोगों को बाक़ी सुविधाओं की तरह सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत राशन मुहैया करवाने से ही हाथ पीछे खींच रही है। इस सबसे मज़दूर-मेहनतकश आबादी को समझना चाहिए कि अपने बुनियादी मानव अधिकार हासिल करने के लिए भी एकजुट होना पड़ेगा। सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मज़बूत करने, इसके तहत मिलने वाले खाद्य पदार्थों का घेरा बढ़ाने, बजट में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए रखे जाने वाले पैसे में इज़ाफ़ा करवाने आदि के लिए संघर्ष करना होगा। देश में से भुखमरी और कुपोषण जैसी अलामातों को ख़त्म करने की ओर यही रास्ता जाता है।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)