डॉ. गोपाल नारसन
देवभूमि उत्तराखंड में यूं तो होली का रंग खूब जमता है।यहां की प्रसिद्ध बैठी होली बसंत पंचमी के बाद से ही मनानी शुरू हो जाती है।जिसमे होली लोकगीतों के गायन की भी परंपरा है।साथ ही उत्तराखंड में अनेक ऐसे स्थान भी है जहां अपशकुन की आशंका के चलते लोग होली का त्यौहार नही मनाते।उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले के तीन गांवों में तो पिछले 374 वर्षों से देवी के प्रकोप के डर से होली नही मनाई जा रही है और न ही अबीर गुलाल नहीं उड़ाया जाता और न ही किसी पर रंग डाला जाता है।
रुद्रप्रयाग के अगस्त्यमुनि ब्लॉक की तल्ला नागपुर पट्टी के क्वीली, कुरझण और जौंदला गांव में होली का त्योहार मनाया जाना प्रतिबंधित है। तीन शताब्दी पहले जब ये गांव यहां बसे होंगे, तब से आज तक यहां के लोग होली नहीं खेलते है। गांव वालों का मानना है कि मां त्रिपुरा सुंदरी के श्राप की वजह से ग्रामीण होली नहीं मना पाते हैं।गांव वाले मां त्रिपुरा सुंदरी को वैष्णो देवी की बहन मानते हैं। चूंकि देवी मां त्रिपुरा सुंदरी को रंग पसंद नहीं है। इसी कारण होली नही मनाई जाती।बताया जाता है कि कश्मीर से कुछ पुरोहित परिवार क्वीली, कुरझण और जौंदला गांवों में आकर बसे गये थे,जिन्होंने 15 पीढ़ियों से यहां के लोगों के साथ अपनी होली न मनाने की परंपरा को कायम रखा हुआ है।स्थानीय लोगो का कहना है कि डेढ़ सौ वर्ष पहले कुछ लोगों ने यहां होली खेली तो गांव में हैजा फैल गया था और कई लोगों की जान चली गयी थी। उसके बाद से दोबारा इन गांवों में होली का त्योहार नहीं मनाया गया।
वही उत्तराखंड के कुमाऊं में होली का अलग ही रंग जमता है। कुमाऊं में होली का त्योहार बसंत पंचमी के दिन से ही शुरू हो जाता है। यहां बैठकी होली, खड़ी होली और महिला होली देश-दुनिया में जानी जाती हैं। घर-घर में बैठकी होली का रंग जमता है लेकिन सीमांत जनपद पिथौरागढ़ के कई गांवों में होली मनाना आज भी अपशकुन माना जाता है। पिथौरागढ़ जिले की तीन तहसीलों धारचूला, मुनस्यारी और डीडीहाट के करीब सौ गांवों में होली नहीं मनाई जाती । यहां के लोग अनहोनी की आशंका से होली खेलने और मनाने से परहेज करते हैं। जिस कारण पिथौरागढ़ जिले में चीन और नेपाल सीमा से लगी तीन तहसीलों में होली का उल्लास गायब रहता है।
इन तहसीलों में होली न मनाने के कारण भी अलग-अलग हैं। मुनस्यारी में होली नहीं मनाने का कारण इस दिन किसी अनहोनी की आशंका रहती है। डीडीहाट के दूनाकोट क्षेत्र में अपशकुन तो धारचूला के गांवों में छिपलाकेदार की पूजा करने वाले होली नहीं मनाते हैं।धारचूला के रांथी गांव के बुजुर्गों के अनुसार रांथी, जुम्मा, खेला, खेत, स्यांकुरी, गर्गुवा, जम्कू, गलाती सहित अन्य गांव शिव के पावन स्थल छिपलाकेदार में स्थित हैं। स्थानीय लोगो के अनुसार शिव की भूमि पर रंगों का प्रचलन नहीं होने से भी होली न मनाने की परंपरा चली आ रही है। मुनस्यारी के चौना, पापड़ी, मालूपाती, हरकोट, मल्ला घोरपट्टा, तल्ला घोरपट्टा, माणीटुंडी, पैकुटी, फाफा, वादनी सहित कई गांवों में होली नहीं मनाई जाती है।
चौना के एक बुजुर्ग बताते हैं कि होल्यार देवी के प्रसिद्ध भराड़ी मंदिर में वे होली खेलने जा रहे थे। तब सांपों ने उनका रास्ता रोक दिया। इसके बाद जो भी होली का महंत बनता था या फिर होली गाता था तो उसके परिवार में कुछ न कुछ अनहोनी हो जाती थी। डीडीहाट के दूनकोट क्षेत्र के ग्रामीण बताते हैं कि अतीत में गांवों में होली मनाने पर कई प्रकार के अपशकुन हुए। पूर्वजों ने उन अपशकुनों को होली से जोड़कर देखा। तब से होली न मनाना परंपरा की तरह हो गया। यहां के ग्रामीण आसपास के गांवों में भी होली के त्योहार में शामिल तक नहीं होते हैं।यानि होली से दूर रहकर सामान्य जीवन व्यतीत करते है।
लेखक आध्यात्मिक चिंतक व वरिष्ठ साहित्यकार हैं। आलेख में व्यक्त लेखक के विचार निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।