मनोरंजन उद्योग/ एक सन्यासिनी के प्रेम और त्याग की व्यथा-कथा ‘जोगन’

मनोरंजन उद्योग/ एक सन्यासिनी के प्रेम और त्याग की व्यथा-कथा ‘जोगन’

दिलीप कुमार और नरगिस की फ़िल्म ‘जोगन’ पचहत्तर साल पहले आई थी (24 फ़रवरी 1950)। फ़िल्म की शैली उस समय बनाए जाने वाले नाटकीय सिनेमा के अनुरूप ही थी, किंतु उसकी कथावस्तु अनूठी थी- एक युवा स्त्री का संन्यास लेना और उस संन्यासिनी से एक अनीश्वरवादी युवक (दिलीप कुमार) को आसक्ति हो जाना। इसमें पहला प्रश्न तो यही है कि क्या एक युवा स्त्री में वैसा वैराग्य जग सकता है? या और बेहतर शब्दों में पूछें तो क्या वह स्वभाव-संन्यासिनी हो सकती है, अभाव-संन्यासिनी नहीं? क्योंकि जिस तृष्णा से वैरागी का मन काँप जाता है, उसे स्त्री अडोल चित्त से अंगीकार करती है, संसार में ही उसे मुक्ति मालूम होती है। क्योंकि स्त्री की चेतना की निर्मिति आकाशीय या वायवी के बजाय धरातल वाली अधिक मालूम होती है। उसका चित्त धरणी का है, धारण करने और जीवन को जन्म देने का। फिर संसार, समाज और परिवार की वह धुरी भी है, तो प्रकृति ने ही यह व्यवस्था दी है कि स्त्री के चित्त में विराट वैराग्य नहीं उत्पन्न होता- छोटी-बड़ी विरक्तियाँ, विक्षोभ और विषाद फिर भले लाख उत्पन्न होते रहें।

इससे उलट दृश्य अधिक सम्भव लगता है कि संन्यासी कोई युवा पुरुष हो और कोई युवती उस पर रीझ जाए। जैसे कि कुमारयोगी और चित्रलेखा का द्वैत है, जिसमें यह उलाहना कि श्संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पाओगे?श् (प्रसंगवश, श्जोगनश् बनाने वाले किदार शर्मा ने ही कालान्तर में श्चित्रलेखाश् बनाई थी, मानो कहानी के एक आयाम को छू लेने के बाद दूसरा पहलू टोह लेना चाहते हों)। किंतु यहाँ तो यह युवा और सुंदर स्त्री जोगन के वेश में है। वह मीरा के भजन गाती है, इसलिए सब उसे मीराबाई ही कहने लगे हैं। उसका वास्तविक नाम तो अब बिसरा गया। गाँव का एक युवक उससे आकृष्ट होकर चला आया है। वह नास्तिक है और मंदिर में प्रवेश नहीं करता, किंतु देहरी पर खड़ा ताकता रहता है। जोगन भी उसे देखते ही भाँप लेती है कि उसके मन में अनुराग जागा है। स्त्री की नज़र से यह बात कभी छुपती नहीं।

किंतु वह संन्यासिनी है तो प्रेम का प्रत्युत्तर कैसे देगी? दूसरी तरफ़ जो नौजवान है, वह भी संन्यासिनी से मन जोड़कर सुख की कल्पना क्यों कर करेगा? किंतु हिंदुस्तानी चित्रपट पर दिलीप कुमार ने जाने-अजाने जिस नायक को उस ज़माने में रचा था, वह सुख का टोही यों भी नहीं था, वह तो सदैव त्रासदी की त्वरा से आत्मनाश की ओर खिंचता चला जाता था। संन्यासिनी के प्रति उसके प्रेम में बड़ी गरिमा है, लगभग प्रार्थनामयी आवेग है। वह रोज़ जोगन के दर्शन करने जाता है, किंतु पुरुष होने के नाते उसके धुले हुए वस्त्र भी वह छू नहीं सकता। एक दिन जोगन उसे टोक देती है कि वह यहाँ ना आया करे, तो बाहर खड़ा भजन सुनता रहता है। जब सब लौट जाते हैं तो संन्यासिनी की देहरी पर एक फूल रख जाता है। संन्यासिनी के चित्त में इससे ज्वार उत्पन्न होता है। वह मन को बाँधती है।

बाद में यह कहानी खुल ही जाती है कि जोगन स्वभाव-संन्यासिनी नहीं थी। वह तो अतीत में चित्रों, गीतों और कविताओं में रमने वाली युवती हुआ करती थी। उसका नाम सुरभि था। उसने मन में एक साथी की कल्पना संजोई थी और उसी की बाट जोहती थी। फिर कोई वैसी विपदा होती है कि उसके स्वप्न पूरे नहीं होते और वो निराश होकर संन्यास ले लेती है। इच्छाओं को मार देती है। प्रश्न यह है कि क्या संकल्प और तपश्चर्या से मन को वैसे बाँधा जा सकता है? अवचेतन की थाह लेने वाला मनोविज्ञान तो यही कहेगा कि ऐसा सम्भव नहीं, चित्त की वृत्तियाँ बड़ी भरमाने वाली होती हैं। फ़िल्म में भी सम्वाद है कि आँच पर राख जम जाने से उसकी तपिश मर नहीं जाती। किंतु दूसरा पहलू यह है कि तृष्णा से सींचने पर मन अमरबेल बन जाता है। उस पर अंकुश रखो तो सम्भव है वह रथ में जुते अश्व की तरह सध जाए, आत्मा के रथी का उस पर नियंत्रण हो जाए। किंतु पहली शर्त वही है कि वैरागी स्वभाव से संन्यासी हो, अभाव-संन्यासी ना हो।

ऐसा नहीं कि भारत में स्त्री संन्यासिनी नहीं हुईं। बुद्ध ने यशोधरा और आम्रपाली को दीक्षा दी ही थी। वैदिक काल में मैत्रेयी थीं जो ब्रह्मवादिनी थीं, याज्ञवल्क्य से संवाद करने वाली गार्गी थीं, लोपामुद्रा थीं, जो विदुषियाँ थीं। संत परम्परा में सहजो बाई, दयाबाई, ललदद्य, मुक्ताबाई हुईं। मीरा तो हैं ही। वो ज्ञानमार्गी नहीं प्रेममार्गी हैं। कह लीजिये कि उनके यहाँ दिव्योन्माद है, यानी दिव्य ही सही किंतु उन्माद है। संसार से विरक्ति है, किंतु श्रीकृष्ण पर आलम्बन है। मीराबाई ही कहलाने वाली श्जोगनश् फ़िल्म की नरगिस भी गिरधर का ही नामजप करती हैं, किंतु जिस प्रेयस की कल्पना में वह कविताएँ लिखा करती थी, उसे अब इतने विलम्ब से सामने पाकर विचलित है। वो गाँव त्यागने का निर्णय लेती है। ग्रामसीमा पर वह युवक उसकी प्रतीक्षा करता मिलता है। उसके पाँव में फूल रख देता है। क्या ही सुंदर दृश्य है वह!

मालूम होता है ईश्वर ने दिलीप कुमार को इसीलिए सिरजा था कि वह विषादयोग के नानारूपों को अपनी देहभाषा से रजतपट पर साकार कर दे। परदे पर वह चिर भग्नहृदय प्रेमी है। सुख उसके गले का हार नहीं, वह दुरूखों को ही दिल से लगाए फिरता है। जब जोगन गाँव त्यागकर लौट जाती है तो वह उस स्थान पर जाता है, जहाँ वो विराजी थीं। काठ के किवाड़ को बड़े अनुराग से बाँहों में भर लेता है। जिस फ़र्श पर संन्यासिनी सोती थी, वहीं भावना से बैठ रहता है। यह वैसा प्रेम है, जो अब उपासना बन गया है। मानो, संन्यासिनी ने ही संसार नहीं त्यागा था, उससे प्रेम करने वाले ने भी संसार त्याग दिया है (एकबारगी वह संन्यासिनी से कह भी चुका था कि मुझे भी दीक्षा दो, अगर इसी विधि से साथ रहना सम्भव हो तो)। जैसे मन में राग का होना पर्याप्त नहीं था तो उसका साथ देने विराग चला आया है। बात वही है कि संसार से विरक्ति है, किंतु कोई एक है, जिसमें मन लगा हुआ है। आखि़र में वह भी छूटे तो बेड़ा पार लगे।

फ़िल्म का अंतिम दृश्य यह है कि जोगन ने उपवास-तपस्या करके देह त्याग दी है। विदा से पूर्व अपनी कविताओं की पोथी उस युवक तक पहुँचा दी है। ये कविताएँ उसने तब लिखी थीं, जब वो चिड़ियाओं की तरह चहकने वाली युवती थी और अपने प्रेम की बाट जोहती थी, किंतु साथी तब जाकर मिला था जब उसके होने के तमाम संदर्भ चुक गए थे। जोगन की आखि़री भेंट लेकर युवक उसकी समाधि पर जाता है और गीली आँखों से उसे निहारता रहता है।

यह फ़िल्म 1940 के दशक के आखि़री सालों में बनाई गई। वह एक दूसरा ही भारत था। उसमें ऐसे विषय पर इतनी परिनिष्ठित भावना के साथ फ़िल्म बनाई जा सकती थी। यह फ़िल्म दर्शकों के द्वारा सराही गई थी। अचरज है कि उस समय के लोकप्रिय सितारों ने इसमें अभिनय करना स्वीकार किया, जिसमें उनके कोई प्रेम-दृश्य नहीं हो सकते थे। नरगिस और दिलीप की श्मेलाश् और श्अंदाज़श् जैसी फ़िल्में आकर सफल हो चुकी थीं और श्बाबुलश् और श्दीदारश् इसके बाद एक-एक कर आने को थीं। एक और बात ग़ौर करने जैसी है कि नरगिस के व्यक्तित्व में ही कुछ वैसी निस्संगता थी, जो दिलीप कुमार के साथ और निखर जाती थी। राज कपूर उनके भीतर की प्रेयसी को जगाते थे, दिलीप कुमार उनके भीतर की जोगन को। इससे दिलीप और न​रगिस की फिल्मों में एक विचित्र-सा भाव उत्पन्न हो गया है- त्रासद-कथाओं के अनुरूप, दो विरक्त-वैरागी आत्माओं का, अभिशप्त प्रेम। ये तमाम बातें अब किंवदंतियों का विषय हैं, किंतु फ़िल्म श्जोगनश् में नरगिस और दिलीप के संवाद सुनने जैसे हैं। उनकी मर्यादाएँ, उनकी सीमाएँ, उनके मन का अकथ आवेग, आसन्न त्रासदी के भावरूप रू यह सब उनके अभिनय में व्यंजित होता है। परदे पर उनके मौन में गूँजते संकेतों को सुनना भी एक ही सुख है।

साल 1950 के दिलीप और नरगिस में कुछ तो ऐसा अपरिभाषेय था, जिसे उसके बाद फिर कभी छुआ भी नहीं जा सकता था। रूखे मन और उचटे दिल वाली इस जोड़ी से मेरा जी कभी नहीं भरता।

दरअसल, यह आलेख सुशोभित के फेसबुक पेज से लिया गया है। मुझे अच्छा लगा, तो मैने सोचा हमारे पाठकों को भी अच्छा ही लगेगा।

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