डा. वेदप्रकाश
विद्यालय शिक्षा के मंदिर हैं और शिक्षा ही किसी भी राष्ट्र की नींव एवं उन्नति का आधार होती है। विगत दिनों राजस्थान के झालावाड़ जिले के पिपलोदी गांव स्थित सरकारी भवन की छत के गिरने से विद्यालय में पढ़ने वाले सात बच्चों की मौत हो गई और इस हादसे में 21 बच्चे घायल हुए। इस दुखद समाचार ने सरकारी विद्यालय भवनों व शिक्षा व्यवस्था की बदहाली बयां कर दी। प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति ने घटना पर दुख जताया तो मुख्यमंत्री ने जांच के निर्देश दे दिए। जिला शिक्षा अधिकारी, प्रधानाध्यापक और अन्य कुछ कर्मचारियों पर गाज गिरी। इस घटना के अगले ही दिन प्रदेश के नागौर व सिरोही जिले में भी दो सरकारी स्कूलों की छत गिर गई। इसी दौरान मध्यप्रदेश के शहडोल जिले के बोड़री ग्राम पंचायत के सेहराटोला स्थित शासकीय प्राथमिक स्कूल की छत का एक हिस्सा गिर गया। हापुड़ के भमैड़ा गांव स्थित प्राथमिक विद्यालय में छत का प्लास्टर अचानक गिर गया।
विडंबना यह है कि जब भी इस प्रकार की कोई दुर्घटना हो जाती है तो कुछ दिन के लिए शासन- प्रशासन सक्रिय रहता है, कुछ कागजी कार्रवाही करते हुए काम पूरा कर दिया जाता है। जिला संयुक्त शिक्षा प्रबंधन व्यवस्था के वर्ष 2022 के आंकड़ों के अनुसार देश में लगभग 12 लाख प्राथमिक, 1.5 लाख माध्यमिक और 1.42 लाख उच्चतर शिक्षा विद्यालय हैं। विगत कई दिन से समाचार पत्रों में देश के हरियाणा, छत्तीसगढ़,बिहार,उत्तर प्रदेश व पंजाब आदि प्रदेशों के विभिन्न जिलों में जर्जर विद्यालय भवनों के समाचार छप रहे हैं। कहीं छत का लेंटर टूटा हुआ है तो कहीं ब्लैक बोर्ड। कहीं डेस्क टूटे हैं तो कहीं टॉयलेट के नाम पर केवल दो दीवारें हैं। न नल है न पानी है और न ही दरवाजा। कहीं स्कूल परिसर में मवेशी हैं तो कहीं पानी भरा हुआ है। कहीं स्कूल की बाउंड्री वॉल नहीं है तो कहीं टूटी पड़ी है। चित्रों के साथ छप रहे ये समाचार उन विद्यालयों की बदहाली बयां कर रहे हैं। प्रश्न यह है कि इन विद्यालय भवनों की बदहाली और दुर्घटनाओं के लिए दोषी कौन है और उन पर क्या कार्रवाही की गई है? क्या इन विद्यालयों में जर्जर स्थिति को ठीक करने के लिए अथवा नव निर्माण के लिए प्रशासन पैसा आवंटित नहीं करता और यदि करता है तो फिर यह बदहाली क्यों है?
सामान्यतः इस बदहाली के मूल में ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार दिखाई देता है जहां कागजों पर ही रखरखाव के काम प्रतिवर्ष पूरे हो जाते हैं। संविधान का अनुच्छेद 21क शिक्षा का अधिकार कहता है कि राज्य 6 वर्ष से 14 वर्ष तक की आयु वाले सभी बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने का उपबंध करेगा। लेकिन यह भी विडंबना ही है कि आज भी सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित पृष्ठभूमि के करोड़ों बच्चों के लिए गुणवत्तापूर्ण आरंभिक देखभाल और शिक्षा उपलब्ध नहीं है। विगत दिनों छपे एक समाचार में यह भी सामने आया कि बंगाल के 23 जिलों में 348 ऐसे सरकारी व सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल हैं जहां एक भी विद्यार्थी नहीं है। आंकड़े यह भी बताते हैं कि वर्ष 2014-15 से 2023-24 के बीच देशभर में 89 हजार से अधिक सरकारी स्कूल बंद हुए। उच्च शिक्षा क्षेत्र में समुचित अवसर और व्यवस्थाएं न होने से प्रतिवर्ष लाखों बच्चे उच्च शिक्षा के लिए विदेश जा रहे हैं। दाखिला प्रक्रिया में लेट लतीफी के कारण सरकारी संस्थानों में सीटें खाली रह जाती हैं तो वहीं निजी संस्थान फल फूल रहे हैं। आर्थिक और सामाजिक रूप से वंचित वर्ग का बच्चा आज भी शिक्षा से उपेक्षित है।
विद्यालय भवनों की बदहाली के साथ-साथ शिक्षा की गुणवत्ता पर आए आंकड़े भी चिंताजनक हैं। विगत दिनों शिक्षा मंत्रालय की ओर से देशभर में कराए गए सर्वेक्षण परख में पाया गया है कि छठी कक्षा में पढ़ने वाले केवल 53 प्रतिशत विद्यार्थियों को ही 10 तक का पहाड़ा आता है वहीं कक्षा तीन में पढ़ने वाले सिर्फ 55 प्रतिशत विद्यार्थी ही 99 तक के अंकों को घटते- बढ़ते क्रम में पढ़ और लिख सकते हैं। सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों का गणित में प्रदर्शन कमजोर है तो वहीं शहरों के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्र में गुणवत्ता की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। सर्वविदित है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को लागू हुए 5 वर्ष का समय बीत चुका है लेकिन इसे क्रियान्वित करने की गति अभी भी बहुत धीमी है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कई स्थानों पर शिक्षा के लिए बुनियादी ढांचा, बुनियादी शिक्षा, बुनियादी साक्षरता, उच्चतर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, विकसित शिक्षा प्रणाली,सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित पृष्ठभूमि के बच्चों के लिए गुणवत्तापूर्ण और देखभालयुक्त शिक्षा आदि बातें कही गई हैं लेकिन आज वर्ष 2025 में भी देश के विभिन्न प्रदेशों में प्रारंभिक, माध्यमिक और उच्चतर शिक्षा बुनियादी ढांचे और गुणवत्ता का इंतजार कर रही है। विद्यालयों के साथ-साथ विभिन्न महाविद्यालयों में बुनियादी ढांचे एवं शिक्षकों की कमी है। क्या ऐसे में भारत को वैश्विक ज्ञान महाशक्ति बनाकर एक जीवंत और न्याय संगत ज्ञान समाज में बदलने का संकल्प पूरा हो सकता है?
मेरे सपनों का भारत में गांधी जी ने लिखा है- मैं भारत के लिए निःशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा के सिद्धांत को दृढ़तापूर्वक मानता हूँ। क्या गांधी जी का यह स्वप्न अभी अधूरा नहीं है? आंकड़ों की ही बात करें तो आज देश में सरकारी विद्यालयों और उनमें विद्यार्थियों की संख्या लगातार घट रही है और निजी विद्यालयों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है। सरकारी विद्यालयों के मुकाबले निजी विद्यालयों के विद्यार्थी बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं। निजी विद्यालयों के आकर्षक भवन और बेहतर मूलभूत सुविधाएं अभिभावकों के साथ-साथ विद्यार्थियों को भी आकर्षित कर रही हैं। सरकारी विद्यालयों में कहीं विद्यार्थी नहीं हैं तो कहीं अध्यापक नहीं हैं। ऐसा क्यों है और कब चलेगा? राष्ट्रीय राजधानी के भी विभिन्न प्राथमिक,माध्यमिक और उच्चतर विद्यालयों में वर्षों से बड़ी संख्या में अतिथि शिक्षकों के सहारे व्यवस्थाएं चल रही हैं।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति के बिंदु तीन के अंतर्गत यह भी कहा गया है कि बच्चों की ड्रॉपआउट संख्या कम करने और शिक्षा की सार्वभौमिक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए दो पहल की जाएंगी। पहली- प्रभावी और पर्याप्त बुनियादी ढांचा प्रदान करना ताकि सभी छात्रों को इसके माध्यम से प्री- प्राइमरी स्कूल से कक्षा 12 तक सभी स्तरों पर सुरक्षित और आकर्षक स्कूली शिक्षा प्राप्त हो सके। दूसरी- प्रत्येक स्तर पर नियमित प्रशिक्षित शिक्षक उपलब्ध कराने के अलावा विशेष देखभाल की जाए ताकि यह सुनिश्चित किया जाए कि किसी स्कूल में अवस्थापना की कमी न हो। क्या शासन- प्रशासन को शिक्षा नीति में वर्णित इन प्रविधानों को तत्काल लागू नहीं करना चाहिए? ध्यान रहे आज विकसित भारत के संकल्प में राष्ट्रीय शिक्षा नीति को समग्रता में क्रियान्वित करने और बुनियादी ढांचे में आमूलचूल परिवर्तनों की आवश्यकता है। विद्यालयों- महाविद्यालयों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को समुचित, स्वच्छ और सुरक्षित वातावरण मिले यह राज्य और केंद्र सभी का दायित्व है। समय रहते इस दिशा में विकल्पहीन प्रतिबद्धता से काम करने की भी आवश्यकता है।
डा. वेदप्रकाश, दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज में उपाचार्य हैं। लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।