गौतम चौधरी
अभी हालिया दिल्ली स्थित लाल किले के पास हुए बम धमाके पर कई कोणों से विचार करना आवश्यक है। सच पूछिए तो इस तरह के आतंकी हमले सामूहिक-विमर्श को अपने वैध बिंदुओं से हटाकर फिर उसी क्षेत्र में ले जाते हैं, जो साम्प्रदायिक ताक़तों का प्रिय विषय है। यानी भारत के मुसलमानों के लिए दिल्ली का आतंकी हमला मायूसी भरा है। इसके लिए भारतीय मुसलमान के दिल से दहशतगर्दों के लिए बददुआ के सिवा और कुछ नहीं निकलेगा, क्योंकि ना केवल उन्होंने बेगुनाहों की जान ली-जिसकी इस्लाम में सख्त मनाही है (पवित्र ग्रंथ की आयत है, ‘जो एक जान लेता है वो पूरी इंसानियत का क़त्ल करता है, जो एक जान बचाता है, वो पूरी इंसानियत को बचा लेता है’) – बल्कि उन दहशतगर्दों ने, इस्लाम के खिलाफ प्रचार करने वाले एक खास समूह के राजनैतिक नैरेटिव को भी उस दिशा में मोड़ देने का प्रयास किया, जहां प्रबुद्धजन उसे नहीं ले जाना चाहते। यहां यह भी बता देना ठीक रहेगा कि इन दिनों भारत में कुछ ऐसे कट्टरपंथी समूह भी तैयार हो गए हैं, जो धर्म के चश्में से आतंकवाद का मूल्यांकन करते हैं। आप देखें, इस आतंकी हमले के बाद ग़रीबी, बेरोज़गारी, युवाओं की चिंताओं, बिहार की बदहाली पर एकाग्र हुआ लोक-विमर्श एक झटके में इस्लामिक आतंकवाद पर केन्द्रित हो गया। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। इस पर विचार किया जाना चाहिए।
उदास कर देने वाली बात है कि पढ़े-लिखे मुसलमान भी दहशतगर्दी में लिप्त पाए जा रहे हैं। यह सम्प्रदायवादियों को अपने दुष्प्रचार को मज़बूत बनाने की सुविधा दे रहा है। दहशतगर्दों को इतनी बुद्धि तो होनी चाहिए कि इस तरह के आतंकी हमलों से कुछ हासिल नहीं किया जा सकता-ना तो वे भारत-राष्ट्र को हरा सकते हैं, ना ही ‘काफिरों’ का ख़ात्मा कर सकते हैं-उलट अपनी ही क़ौम का बहुत बड़ा नुक़सान ज़रूर कर रहे हैं। यानी इस्लाम के सबसे बड़े दुश्मन आज की तारीख़ में मुर्तद, या मुनाफिक, या मुशरिक़, या काफिर नहीं, बल्कि ये दशहतगर्द हैं, जो क़ुरान व हदीसों की सीख के विपरीत उक्त शिक्षाओं की व्याख्या कर अपना ही नुकसान कर रहे हैं।
इस्लाम के पवित्र ग्रंथ की व्याख्या की जाए तो उसमें साफ तौर पर कहा गया है, ‘‘संसार की व्यवस्था, उसकी अनंतता, मानवीय स्वभाव की फुसफुसाहटें, घटनाओं और दुर्घटनाओं के नदविसक होने का तर्क, भविष्य के छिपे रहस्य, मनुष्य को प्रदत्त खिलाफ़त (प्रतिनिधित्व) का दर्जा, पुरस्कार और दंड के मापदंड, स्वर्ग और नरक की सच्चाई और यहां तक कि परलोक में मुक्ति, इन सबमें ऐसा कोई भी अंश नहीं है जहां अल्लाह का नूर (प्रकाश) कार्यरत न हो।’’ इसलिए कहा गया है, ‘‘अल्लाहु अकबर’’ यानी अल्लाह सबसे बड़ा है। जहां तक हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दर्जे का प्रश्न है, कोई भी कलम इसका पूरा हक़ अदा नहीं कर सकती। फिर भी यह एक विनम्र प्रयास है, उन्हें ‘इमामुल अंबिया’ (सभी पैग़म्बरों के नेता), ‘रहमतुल लिल आलमीन’ (संसार के लिए रहमत) और ‘शफ़ी-उल-उम्मह’ (कियामत के दिन सिफ़ारिश करने वाले) जैसे दिव्य उपाधियों से सम्मानित किया गया है। उन पर स्वयं अल्लाह और उसके फ़रिश्ते सलाम भेजते हैं। इतना ही नहीं, क़ुरान ने भी सीधे तौर पर मुस्लिम उम्मत को आदेश दिया है, ‘‘वे उन पर सलाम भेजें, बिना सच्चे प्रेम और पूर्ण आज्ञाकारिता के, अल्लाह की ख़ुशी और मुक्ति संभव नहीं’’ यही उनका दर्जा है।
यह दुनिया कर्मभूमि है और परीक्षा का स्थान है। मनुष्य को स्वायत्त बनाया गया है। उसे पृथ्वी पर प्रभुत्व, अधिकार और स्वतंत्रता दी गई है लेकिन यह स्पष्ट रूप से समझना चाहिए कि सृष्टिकर्ता, मालिक और सर्वोच्च सत्ता का स्रोत केवल पालनहार प्रभु ही है। इनाम या सज़ा, इज़्ज़त या रुसवाई, तरक्की या पतन, अस्तित्व या विनाश, स्वास्थ्य या बीमारी, ताक़त या कमज़ोरी, हर स्थिति उसी की मर्ज़ी पर निर्भर है। बात और कर्म, भाषण और लेखन, निर्माण और योजना, व्याख्या और प्रचार, यह सब परमपिता के कार्यक्षेत्र में आता है। लेकिन यह मान लेना कि “मैं दूसरों को अपने जैसा बना सकता हूं”, यह कैसे संभव है? यह अधिकार किसी मानव को कैसे दिया जा सकता है? दिल्ली जैसी आतंकी घटना के लिए जो लोग भी जिम्मेदार हैं, वे किसी कीमत पर इस्लाम के मानने वाले और मुहम्मद के उम्मत के नहीं हो सकते।
अल्लाह सारे जहानों का रब है, वह केवल मुसलमानों का नहीं। यह उद्घोषणा दिन में पांच बार की जाने वाली नमाज़ों में दोहराई जाती है। उसकी हिकमत और नीति अच्छाई और बुराई-दोनों के अस्तित्व को समेटे हुए है। फिर यह उग्रवाद, अंधभक्ति और कट्टरता एक वर्ग के स्वभाव में कहां से आ गई? अल्लाह ताला ख़ुद अपने रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से फ़रमाता है, “तुम्हारा काम केवल संदेश देना और दावत देना है।” जो इसे स्वीकार करे, वह उसका नसीब है और जो इंकार करे, वह उसका अमल है-इसके बाद मामला हमारे (अल्लाह के) हवाले है। यह भी स्पष्ट किया गया कि “मैंने हिदायत और नूर के साधन प्रदान किए हैं जो तुम्हारे दिल की सफ़ाई और रूह की शुद्धि का साधन हैं।” यही तुम्हें अल्लाह की पहचान तक ले जाएगा। मुसलमान तो उस उम्मत के सदस्य हैं, जिसके नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कारण यह सृष्टि अस्तित्व में आई। मुसलमानों के पास मार्गदर्शन के लिए बेहतरीन मिसाल (उस्वा-ए-हसना) मौजूद है। मुसलमानों के पास शिक्षा और अनुसंधान के लिए क़ुरान के रूप में ब्रह्मांड का ज्ञान मौजूद है। यह सर्वविदित है कि इस्लाम का अर्थ ही मध्यमता (संयम) है। इस्लाम में उग्रवाद, अति उत्साह, या ऐसा कोई आंदोलन या प्रचार जिसके नाम पर हिंसा और मानव हत्या को जायज़ ठहराया जाए, उसका कोई स्थान नहीं है। नबी ने फरमाया, “मुस्लिम उम्मत एक मध्यम समुदाय है।” मुसलमान सरात-ए-मुस्तक़ीम (सीधे रास्ते) के अनुयायी हैं। सब्र (धैर्य), अमल (संपूर्ण कर्म) और माफ़ी-ये मुसलमानों के अनमोल गुण हैं, जो एक मुसलमान को सच्चा मोमिन बनाता है।
इस्लाम के खिलाफ प्रचार करने वाले लगातार यह कहते हैं, “मुसलमान सब ग़लत हैं, नैतिक पतन केवल मुसलमानों में है और हिंसा, आक्रामकता एवं कट्टरता ही मुसलमानों की पहचान है, बाकी सब निर्दाेष हैं।” इसमें रत्ती भर भी सत्यता नहीं है। यह केवल दुष्प्रचार की राजनीति है। न्याय और नैतिकता का एक विनम्र विद्यार्थी कहेगा कि मुसलमान वह बंदा है जो अमन (शांति), इस्लाह (सुधार), अमान (सुरक्षा) और रहमत (दयालुता) का प्रतीक है। भटके हुए लोग किसी भी समाज में होते हैं। किसी भी समाज में असामाजिक तत्व पनप सकते हैं। इस्लाम के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। कुछ भटके हुए लोग इस्लाम की पहचान बनना चाहते हैं लेकिन अब प्रबुद्ध इस्लामिक चिंतकों ने मोर्चा संभाल लिया है। वह दिन दूर नहीं जब इस्लाम के बारे में दुनिया सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाएगी और दहशतगर्द पराभूत होंगे। दिल्ली की आतंकी घटना के बाद कुछ ऐसा ही देखने को मिला। अधिकतर मुसलमानों ने इस घटना की भ्रत्सना की। यह बेहतर और सकारात्मक संकेत है।
