बलदेश शर्मा/शिमल
क्या सरकार कोरोना के प्रबन्धन मेें असफल हो चुकी है? क्या लोगों ने कोरोना को गंभीरता से नहीं लिया है? इस समय इन सवालों ने हर आदमी का ध्यान अपनी ओर केन्द्रित कर रखा है। देश के लगभग सभी उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में कोरोना को लेकर याचिकाएं विचाराधीन चल रही हैं। सभी ने सरकारों को कड़ी फटकारें लगाई हैं क्योेंकि हालात यहां तक पहुंच गये कि पीड़ित आक्सीजन के अभाव में दम तोड़ने लग गये। सर्वोच्च न्यायालय को आक्सीजन के लिये टास्क फोर्स का गठन करना पड़ गया। जबकि आक्सीजन की कमी है यह संसदीय कमेटी की अक्तूबर 2020 में हुई बैठक में सामने आ गया था। लेकिन सरकार ने आक्सीजन की उपलबधता सुनिश्चित करने की बजाये पंचायत से लेकर विधानसभा चुनावों को प्राथमिकता दी।
आज जब संघ प्रमुख डाॅ. मोहन भागवत यह कह रहे हैं कि लोगों ने कोरोना को गंभीरता से नहीं लिया, तब इस पर उनसे सहमत नहीं हुआ जा सकता क्योंकि लोगों के ‘‘यथा राजा तथा प्रजा’’ को चरितार्थ किया है। पिछले वर्ष जब 24 मार्च को कोरोना के लिये पूरे देश में लाॅकडाऊन घोषित किया गया था यदि तब से लेकर अब तक सरकार द्वारा किये गये सारे प्रबन्धों का निष्पक्षता से अवलोकन किया जाये तो ‘‘आत्मनिर्भर भारत’’ और ‘‘बोकल फार लोकल’’ के नारों की बजाये लोगों ने ‘‘आपदा में अवसर’’ पर ज्यादा अमल किया है। कोरोना से जुड़ी हर चीज में लोगों ने खुलकर कालाबाजारी की है। इस कालाबाजारी में कई बड़े लोग ‘‘संलिप्त पाये गये हैं और यहां पर प्रधानमन्त्री के उस दावे की खुलेआम हवा निकल गयी है कि ‘‘न खाऊंगा और न खाने दूंगा’’।
कोरोना ने देश को एक ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां आम आदमी के सामने डर के अलावा कुछ भी नहीं बचा है। ईलाज को लेकर कोई भी सुनिश्चितता नही है। इसी कोरोना काल में जब प्रवासी मजदूर अपना रोजगार खो रहा था तभी सरकार ने श्रम कानूनों में संशोधन करके श्रमिकों का उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाने का अधिकार छीन लिया। श्रम कानूनों के बाद कृषि कानून ला दिये। इन कानूनो के खिलाफ पिछले छः माह से देश का किसान आन्दोलन पर है। इन कानूनों को वापिस लेने की मांग की जा रही है लेकिन सरकार इसके लिये तैयार नही है।
कोरोना को लेकर लगाई गयी बंदिशों के नाम पर नागरिकता अधिनियम के आन्दोलनकारियों को तो आन्दोलन स्थल से खदेड़ने में सफलता मिल गयी थी परन्तु किसान आन्दोलन में यह हथियार कारगर सिद्ध नहीं हुआ है। बल्कि किसानांे ने भाजपा को अपनी राजनीतिक ताकत का भी पूरा-पूरा अहसास करवा दिया है। हरियाणा, पंजाब और दिल्ली के निकाय चुनावों से लेकर अब हुए विधानसभा चुनावों में हुई भाजपा की हार इस सबका प्रत्यक्ष प्रमाण है। यही नहीं उत्तर प्रदेश के पंचायती राज संस्थाओं के चुनावों में मिली हार अंहकार की राजनीति के अन्त की शुरूआत है।
इस चुनाव परिणामों ने स्पष्ट कर दिया है कि हिन्दु को मुस्लिम के खिलाफ खड़ा करने और मन्दिर को मस्जिद से लड़ाने की रणनीति को देश अब समझ चुका है। राम मन्दिर निर्माण, तीन तलाक और धारा 370 को हटाने के नाम पर देश के आर्थिक संसाधनों को कुछ गिने चुने लोगों को लुटाने की नीतियों का समर्थन देश अब नहीं कर पायेगा। जिस प्रचण्ड जनादेश के नाम पर यह आर्थिक फैसले ‘‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास के नाम पर लिये जा रहे थे उसकी असलियत जनता के सामने आ चुकी है।
कोरोना ने हर नारे और आत्मनिर्भरता के हर दावे का सच सामने लाकर रख दिया है। जिस देश ने 2014 और फिर 2019 में इतना बड़ा विश्वास मोदी पर व्यक्त किया आज मोदी जनता के उस विश्वास पर खरे नहीं उत्तरे हैं। विरोध के जिन स्वरों को देश द्रोह का डर दिखाकर दबाया जा रहा था आज वही स्वर मोदी के त्यागपत्र की मांग करने पर आ गये हैं। आज भाजपा के हर छोटे बड़े नेता को मोदी के बचाव में उतरना पड़ गया है और जनता साथ छोड़ती जा रही है क्योंकि सरकार की नीतियों ने उसके लिये प्राणों का संकट खड़ा कर दिया है। आज मृतक को सम्मानपूर्वक अन्तिम संस्कार मिलने की बजाये उसे अपना परिजन मानने तक को तैयार नही हो रहे हैं।
(लेखक हिमाचल प्रदेश के वरिष्ट पत्रकार हैं और ‘‘शैल समाचार’’ नामक चर्चित हिन्दी साप्ताहिक के संपादक हैं। यह विचार लेखक के निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेना-देना नहीं है।)