शिवानी
टेलीविज़न, इण्टरनेट, अख़बार आदि में विज्ञापन तो आप ज़रूर देखते होंगे चाहे आपको यह कितना ही नापसन्द क्यों न हों। रेडियो पर सुनते भी होंगे। आज के इन विज्ञापनों को देखकर और सुनकर बरबस ही एक विचार दिमाग में आता है। यदि शेली, बायरन, कीट्स आदि जैसे उन्नीसवीं शताब्दी के छायावादी (रोमाण्टिक) कवि समकालीन पूँजीवाद के समवर्ती होते तो खुद को शायद एक गीति-रचना (वकम) लिखने से नहीं रोक पाते, जिसका शीर्षक कुछ इस तरह का हो सकता था ‘विज्ञापन : पूँजीवाद के लिए एक क़सीदा’ (Advertise & ment : An ode to capitalism)
अगर आलोचनात्मक दृष्टि से इन विज्ञापनों पर ग़ौर किया जाय तो बरबस ही यह सवाल ज़ेहन में उठता है। आज टेलीविज़न पर आनेवाले हर विज्ञापन को देखकर क्या ऐसा ही नहीं लगता कि हर तीस सेकण्ड में ये विज्ञापन चाहे वे किसी भी सामान, उत्पाद या सेवा का हो। उस सामान, उत्पाद या सेवा से ज़्यादा स्वयं पूँजीवाद का ही अतिरंजित और उत्साहपूर्ण स्वर में प्रस्तुत किया गया महिमामण्डन हैं? ये सभी विज्ञापन ‘आग्रहपूर्ण’ स्वर में हमसे कोई न कोई सामान या सेवा खरीदने की बात तो करते ही हैं, लेकिन साथ ही अपने द्वारा इस्तेमाल की गयी छवियों, बिम्बों, दृश्यों, बातचीत, ध्वनियों आदि के ज़रिये ये विज्ञापन एक ही बात हमारे गले से नीचे उतारने की कोशिश में लगे रहते हैं ‘पूँजीवाद की जय हो’, ‘माल अन्धभक्ति की जय हो’, ‘पूँजीवादी प्रतिस्पर्द्धा की जय हो’, ‘उदार बुर्जुआ जनतंत्र की जय हो’। इस मायने में, विज्ञापन महज़ सामानों, मालों, उत्पादों और सेवाओं की ‘मार्केटिंग’ का उपक्रम नहीं है बल्कि पूरा का पूरा विज्ञापन उद्योग ही स्वयं पूँजीवाद का विज्ञापन है। बल्कि कहना चाहिए कि यह उसका सबसे बड़ा, सबसे कुशल और आज के समय में तो सबसे व्यापक प्रचार केन्द्र है। विज्ञापन पूँजीवादी जीवन शैली, पूँजीवादी संस्कृति, पूँजीवादी बाज़ार अर्थव्यवस्था, पूँजीवादी परिवार, पूँजीवादी राजनीति, पूँजीवादी प्रेम, पूँजीवादी अन्तरवैयक्तिक सम्बन्धों, पूँजीवादी मूल्य-मान्यताओं, पूँजीवादी दृष्टिकोण के जश्न के लिए स्वयं पूँजीवाद द्वारा उठाया गया वह जाम (toast) है, जो पूँजीवाद की ही दीर्घायु की कामना करता है और हर तीस सेकण्ड पर इसका जश्न मनाता प्रतीत होता है। इस रूप में, ‘एडवर्टाइिज़ंग’ पूँजीवाद का स्वयं पूँजीवाद द्वारा चलाया जानेवाला ‘प्रमोशनल कैम्पेन’ है। एक ऐसा प्रचार अभियान जिसकी कोई मियाद नहीं है; जिसमें उत्पाद बदल सकते हैं, उनकी प्रस्तुति बदल सकती है, लेकिन सारतत्व वही रहता है- पूँजीवाद का यशोगान। इस सन्दर्भ में विज्ञापन उद्योग का स्लोगन वाक्य बस यही प्रतीत होता है-‘थैंक गॉड इट्स कैपिटलिज़्म’ (भगवान का शुक्र है कि पूँजीवाद है)।
वैसे तो आज के दौर में विज्ञापन उद्योग के बग़ैर पूँजीवाद की कल्पना करना असम्भव-सा लगता है, लेकिन फिर यह कहना ज़्यादा सही होगा कि स्वयं पूँजीवाद ही विज्ञापन उद्योग की मौजूदगी के बिना अकल्पनीय प्रतीत होने लगता है। एक प्रतिस्पर्द्धी बाज़ार अर्थव्यवस्था में निजी माल उत्पादकों/पूँजीपतियों के लिए अपने सामानों-सेवाओं के लिए ख़रीदारों के वर्ग तक पहुँच बनाना और उससे भी ज़्यादा उन सामानों-सेवाओं के लिए उपभोक्ताओं के इस वर्ग में चाहत (Desire) पैदा करना विज्ञापनों के ज़रिये ही सम्भव हो सकता है। इसलिए विज्ञापन यत्र-तत्र-सर्वत्र हैं। टेलीविज़न, रेडियो, अख़बार, पत्र-पत्रिकाएँ, इण्टरनेट, सड़कों के किनारे लगे बिलबोर्ड, बस-स्टापों और रेलवे स्टेशनों पर लगी प्रचार पट्टियाँ; जहाँ भी नज़र दौड़ाइये, विज्ञापन ही विज्ञापन, प्रचार ही प्रचार। विज्ञापनों की पहुँच इतनी व्यापक है कि विश्व का शायद ही ऐसा कोई कोना हो जो इनके प्रभाव से अछूता रहा हो। विज्ञापन इस मायने में पूँजीवादी प्रचारतंत्र की एक विशिष्ट परिघटना है, जो बेहद विचारधारात्मक है, जो महज़ वस्तुओं और सेवाओं की मार्केटिंग का औज़ार मात्र नहीं हैं, बल्कि एक ख़ास तरीके से चीज़ों को देखने और सोचने का नज़रिया देता है; जो मासूमियत से भरकर और परमार्थ से प्रेरित होकर लोगों को बेहतर उपभोक्ता चयन (consumer choice) प्राप्त करने में मदद नहीं करता (जैसा कि तमाम ‘एड गुरू’ और एडवरटाइजिंग एजेन्सियाँ दावा करती हैं) बल्कि एक ख़ास तरीके से पूँजीवाद और पूँजीवादी जीवनशैली के समर्थन में ‘ओपीनियन बिल्डिंग’ करता है। इस लिहाज़ से, सिर्फ पूँजीवादी अर्थतंत्र में अपनी भूमिका की दृष्टि से ही नहीं बल्कि पूँजीवादी समाज में शासक वर्गों द्वारा इस्तेमाल में लाये जानेवाले विचारधारात्मक-सांस्कृतिक औजार के रूप में भी विज्ञापनों के पीछे की राजनीति को समझना आवश्यक हो जाता है। विज्ञापनों की सर्वव्याप्ति इस तथ्य का ही प्रमाण है कि विज्ञापन उद्योग पूँजीवाद का एक सशक्त विचारधारात्मक उपकरण तो है ही, साथ ही इसका एक वर्चस्वकारी सांस्कृतिक उत्पाद भी है।
पूँजीवादी अर्थतंत्र के अर्थों में बात करें तो पूरे विज्ञापन उद्योग का आकार ही कई खरब डॉलर का है। अगर भारत की बात करें तो वर्तमान में विज्ञापन उद्योग तकरीबन 100,000 करोड़ रुपये का कारोबार है जिसके 2017 तक 1,66,000 करोड़ रुपये तक पहुँच जाने की सम्भावना है। जहाँ तक अमेरिका का सवाल है तो 2010 में विज्ञापनों पर होनेवाला खर्च 143 खरब डॉलर था और पूरे विश्व में यह आँकड़ा 467 खरब डॉलर था। 2015 में पूरे विश्व में विज्ञापनों पर होनेवाला कुल खर्च 592.43 खरब डॉलर तक पहुँच गया। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर बात करें तो इण्टरपब्लिक, ऑमनिकॉन, पब्लिसिस और डब्लू-पी-पी- चार सबसे बड़े विज्ञापन समूह (conglomerate) हैं। इनके अलावा, ‘ओगिलवाई एण्ड मैथर’, ‘जे वॉल्टर थॉमसन’, ‘मैककेन एरिकसन’ जैसी कई राष्ट्रपारीय एजेंसियाँ आज विज्ञापन उद्योग में लगी हुई हैं। स्पष्टतः आज के पूँजीवादी विश्व में, विज्ञापन उद्योग पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का एक बेहद ज़रूरी हिस्सा बन चुका है। इस हद तक ज़रूरी कि अधिकांशतः विज्ञापनों और प्रचार में होनेवाले पूँजी निवेश का प्रतिशत स्वयं माल उत्पादन में लगी पूँजी से कई गुना अधिक होता है। यह तथ्य अपने आप में पूँजीवाद में विज्ञापनों के महत्व के बारे में काफी कुछ बता देता है और साथ ही आज पूँजीवाद के अभूतपूर्व रूप से अनुत्पादक हो चुके चरित्र को भी दिखलाता है। फिर भी पूँजीवाद के वर्तमान दौर में विज्ञापन उद्योग की भूमिका को समझने के लिए इसे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में अवस्थित करना आवश्यक है।
मोटे तौर पर बात करें तो विज्ञापन तब से ही मौजूद रहे हैं जबसे व्यापार है। इसलिए ऐसा कहना कि प्राक्-पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में विज्ञापनों का कोई स्थान नहीं था या फिर विज्ञापन पूँजीवाद की देन हैं, गलत होगा। हाँ, इतना ज़रूर है कि आज जिस रूप में हम विज्ञापनों को जानते हैं, उस रूप में और इस पैमाने पर वे कभी अस्तित्वमान नहीं थे। पूँजीवाद-पूर्व समाजों में तमाम व्यापारी अपने सामानों की खूबियों और ख़ासियत को इश्तेहारों के ज़रिये ही बताते थे। अखबारों या यूँ कहें कि प्रिण्ट संस्कृति के जन्म से पहले, दुकानों, पेड़ों, चौराहों पर लगे साइनबोर्ड ही आम तौर पर विज्ञापनों के माध्यम थे। लेकिन प्रिण्ट संस्कृति के आने के बाद यह पूरा परिदृश्य ही बदल गया। अब विज्ञापन अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, जर्नलों में छपने लगे।
जहाँ तक आधुनिक विज्ञापन उद्योग का प्रश्न है तो वह उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में औद्योगिक पूँजीवाद के सहवर्ती के तौर पर अस्तित्व में आया। औद्योगिक पूँजीवाद और बाज़ार द्वारा संचालित अर्थव्यवस्था के अस्तित्व में आने के साथ ही बड़े पैमाने पर माल उत्पादन की शुरुआत हुई। पूँजीवाद ने सामाजिक-आर्थिक जीवन का पूरा ताना-बाना ही बदल दिया। हर जगह माल, उत्पाद और वस्तुएँ थीं। लेकिन मालों के असीमित भण्डार का उत्पादन ही पर्याप्त नहीं था, बल्कि सामानों के इन अपरिमित भण्डारों का बिकना भी एक अहम सवाल था। पूँजीवाद के अन्तर्गत मालों के उत्पादन के साथ ही उनका वितरण, विनिमय और उपभोग के सर्किट से गुजरना भी ज़रूरी होता है ताकि पूँजीपति मुनाफ़ा कमा पायें, पूँजी संचय कर पायें और उत्पादन में पुनःनिवेश कर सकें। इसलिए एक प्रतिस्पर्द्धी बाज़ार में अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए पूँजीपतियों को किसी भी कीमत पर मालों की बिक्री को सुनिश्चित करना पड़ता है। हालाँकि यह हर समय सम्भव नहीं हो पाता है या यूँ कहें कि पूँजीवाद के अन्तर्गत यह हमेशा सम्भव हो ही नहीं सकता है (चूँकि पूँजीवाद अपनी नैसर्गिक आन्तरिक गतिकी और तर्क से उत्पादन को असीमित रूप से बढ़ाता है और उत्पादन के साधनों पर निजी नियन्त्रण व अधिशेष के निजी विनियोजन तथा उत्पादन के सामाजिक चरित्र का अन्तरविरोध असमाधेय हो जाता है; साथ ही पूँजीवादी व्यवस्था बहुसंख्यक आबादी का दरिद्रीकरण करके ऐसी दयनीय स्थिति में पहुँचा देती है कि उसके पास माल का ख़रीदार बनने की क्षमता ही नहीं रह जाती है)। इसलिए मन्दी, अर्थव्यवस्था में ठहराव और परिणामस्वरूप दुकानों पर ‘सेल’ की घोषणा करते बोर्ड पूँजीवाद की एक आम सच्चाई है, पूँजीपतियों और पूँजीवाद के लिए उपभोग का प्रश्न इसलिए केन्द्रीय प्रश्न बन जाता है।
बहरहाल, 19वीं शताब्दी में औद्योगिक पूँजीवाद के अस्तित्व में आने के साथ ही संस्थाबद्ध विज्ञापन उद्योग का जन्म हुआ जिसका मकसद न केवल मालों और उत्पादों की बिक्री सुनिश्चित कराने के लिए ख़रीदारों को उनके बारे में बताना था, बल्कि उससे भी ज़्यादा मालों या उत्पादों के लिए उपभोक्ताओं में चाहत या इच्छा या एक आभासी ज़रूरत को पैदा करना था। यही कारण है कि 20वीं शताब्दी के शुरू होते-होते विज्ञापन एक सम्पूर्ण उद्योग के रूप में अस्तित्व में आया और इसकी सबसे उर्वर ज़मीन अमेरिका बना। विज्ञापन एजेंसियाँ अस्तित्व में आयीं, विज्ञापनों को किस तरह से प्रभावशाली बनाया जाये इसके गुर पाठ्यक्रमों में सिखाये जाने लगे। बड़े-बड़े पूँजीपतियों और विशालकाय कॉरपोरेट घरानों ने अपनी पूँजी का एक अच्छा-खासा हिस्सा इन प्रचार कार्रवाइयों में निवेश किया। आज के दौर में तो न सिर्फ विज्ञापनों में लगने वाली पूँजी बल्कि उनको बनाने में लगने वाला बौद्धिक, शोधात्मक और रचनात्मक प्रयास भी अप्रत्याशित है।
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि तब से लेकर अब तक विज्ञापनों की अन्तर्वस्तु और कार्यप्रणाली में कोई परिवर्तन न आया हो। शुरुआती दौर में किसी भी उत्पाद के विज्ञापन में पहले स्वयं उत्पाद ही केन्द्र में हुआ करता था। विज्ञापन में उत्पादों के गुणों पर, उनकी बनावट, उनके उपयोग, कीमत, फायदों पर खासा ज़ोर हुआ करता था, जिसे उत्पाद-सूचना (product imagery) मॉडल की संज्ञा दी गयी है। लेकिन 1930 के दशक के आते-आते विज्ञापनों की कार्यप्रणाली में एक महत्वपूर्ण ‘शिफ्ट’ आता है। उत्पाद-सूचना मॉडल की जगह बड़े पैमाने के प्रतिस्पर्द्धी विज्ञापनों ने ले ली जिनका ज़ोर उत्पाद कल्पना/बिम्ब-सृष्टि (product personality) और उत्पाद के व्यक्तित्व (चतवकनबज चमतेवदंसपजल) पर था। इस तरह के विज्ञापनों में मालों/सामानों/उत्पादों को प्राकृतिक या सामाजिक सेटिंग के बीच दिखाया जाने लगा। उदाहरण के लिए, किसी बागीचे में, किसी घर के अन्दर या उच्चवर्गीय लोगों की पार्टी में, आदि। ऐसा इसलिए किया गया ताकि इन सन्दर्भों से जुड़े अर्थ और मूल्य इन मालों/उत्पादों पर आरोपित किये जा सकें। इसी प्रकार उत्पाद व्यक्तित्व वाले विज्ञापनों में व्यक्तियों से जुड़ी व्यक्तिगत विशेषताओं को माल के गुणों के समतुल्य माना जाने लगा। आज हम इसे ही ‘ब्राण्डिंग’ के नाम से जानते हैं, जिसमें उपभोक्ताओं के मस्तिष्क में किसी उत्पाद के नाम या छवि से स्वतः ही कुछ विशिष्टताएँ जुड़ जाती हैं। हालाँकि यह कितना स्वतः होता है, यह हम भली-भाँति जानते हैं। बार-बार, दिन में न जाने कितनी बार एक ही विज्ञापन की पुनरावृत्ति हमारे ज़ेहन में इन बातों को लगातार रेखांकित करती चलती है। संक्षेप में कहें तो जहाँ 19वीं शताब्दी के अन्त और 20वीं शताब्दी के शुरुआती वर्षों में विज्ञापन मालों के गुणों के बारे में बात करते थे, जैसे कि वे क्या-क्या कर सकते हैं या फिर कितने अच्छे तरीके से कोई काम कर सकते हैं आदि; वहीं 1920 के बाद से विज्ञापन सामानों और मालों को लोगों के सामाजिक जीवन और उससे सम्बद्ध आकांक्षाओं और इच्छाओं से जोड़ रहे थे। लोग जिस किस्म के सामाजिक जीवन की इच्छा रखते थे; बिना किसी असुरक्षा और अनिश्चितता के, सुकून, आज़ादी और सुख से भरी ज़िन्दगी; वस्तुओं को उसी जीवन की प्रभावशाली छवियों से जोड़कर पेश किया जाने लगा जो जीवन पूँजीवाद लोगों को वास्तविक जीवन में मुहैया नहीं करा सकता था, उसे विज्ञापनों में मालों के उपभोग द्वारा सम्भव दिखाया जाने लगा। यह एक फन्तासी की दुनिया रचने जैसा है। एक ‘एस्केप रूट’ जिसमें हमें एक ऐसी दुनिया का सपना दिखाया जाता है, जिसमें हम वस्तुओं के उपभोग से हर खुशी पा सकते हैं। विज्ञापन इसी सपने को हमारी चाहत में बदलने का काम करते हैं। और फिर इन्हीं विज्ञापनों के माध्यम से हमें बताया जाता है कि यह चाहत अधिक से अधिक सामानों के उपभोग से पूरी हो सकती है।
इस मायने मे विज्ञापन उद्योग पूँजीवाद का एक बेहद खतरनाक, सूक्ष्म और निपुण विचारधारात्मक हथियार है, जो लोगों को पूँजीवादी उपभोक्ता संस्कृति का अभ्यस्त बनाता है और बेहद वर्चस्वकारी तरीके से अपने हिसाब से चीज़ों को देखने का आदी बनाता है। लोग अनालोचनात्मक तरीके से इस तर्क से सहमत होने लगते हैं कि सामानों और मालों के अधिकाधिक संचय में ही खुशहाल जीवन का मंत्र है, हालाँकि यहाँ एक बात जोड़ देनी विशेष तौर पर आवश्यक है। विज्ञापनों के लिए और स्वयं पूँजीवाद के लिए ‘उपभोक्ता’ की अवधारणा वर्ग-आधारित और वर्गीकृत है और इसकी परिभाषा में मेहनत-मशक्कत करने वाली वह बहुसंख्यक आबादी आती ही नहीं है जो कि उन सामानों/मालों के इस अम्बार की सर्जक है जिनका कि प्रचार ये सभी विज्ञापन करते हुए नज़र आते हैं। यही कारण है कि जहाँ पहले के विज्ञापन बड़े पैमाने पर उत्पादित मालों के बाज़ार के तौर पर एक अविभाजित उपभोग करने वाली जनता को देखते थे; वहीं आज के दौर में विज्ञापनों के द्वारा विशिष्ट उत्पादों के ‘ब्राण्ड्स’ के लिए उपभोक्ताओं के विशेष वर्गों/खण्डों को लक्षित किया जा रहा है और इसके लिए कई सूक्ष्म और चालाक तिकड़में भिड़ायी जा रही हैं। इसलिए आज टेलीविज़न पर आने वाले तमाम विज्ञापनों में हमें खाँटी मज़दूर आबादी या तो नज़र ही नहीं आती या फिर आती भी है तो उच्चवर्गीय या मध्यमवर्गीय सन्दर्भों के परिशिष्ट या पिछलगुए के तौर पर। मज़दूर वर्ग, एक वर्ग के तौर पर तो पूँजीवादी विचारधारा का भरण-पोषण करने वाले इन विज्ञापनों से नदारद ही है या फिर वह इन विज्ञापनों में उन खुशहाल उपभोक्ताओं की चौरिटी का दयनीय लाभ-प्राप्तकर्ता बनता नज़र आता है जो कि अमुक उत्पाद के उपभोग से समृद्ध और प्रसन्न हुए हैं। इसके कारण के तौर पर इसके सचेतन, अचेतन या अवचेतन तौर पर होने पर बहस अनुत्पादक होगी। बात है कि जिस दृष्टिकोण और अवस्थिति से ये विज्ञापन बनाये जा रहे हैं वह इस बात की अनुमति देता ही नहीं है। विज्ञापन भी किसी भी सांस्कृतिक उत्पाद के समान इसी पूँजीवादी संस्कृति उद्योग के एकलसंस्कृतिकरण के उपकरण हैं और वे भी प्रभुत्वशाली विचारधारात्मक राज्य उपकरण में जड़ित हैं। ये एक बुर्जुआ सब्जेक्ट का निर्माण करते हैं; यही इनका प्रकार्य है।
अगर आज विज्ञापनों पर हम निगाह डालें तो क्या पाते हैं? हम देखते हैं कि तमाम पूँजीपतियों द्वारा अपने उत्पादों या सेवाओं को उपभोक्ता (जो कि आम तौर पर उच्चवर्गीय या मध्यमवर्गीय पृष्ठभूमि से आता/आती है) को बेचने के लिए विज्ञापनों द्वारा प्रचार किया जाता है। ये विज्ञापन उपभोक्ता को बताते हैं कि जीवन का असली आनन्द लेने के लिए वस्तुओं का उपभोग न केवल सम्माननीय है बल्कि वांछित भी है। 1929 में अमेरिकी पूँजीवाद की एक प्रवर्तक क्रिस्टीन फ़्रेडरिक ने उपभोक्तावाद को अमेरिका द्वारा दुनिया को निर्यात किया गया महानतम विचार बताया जिसके तहत मेहनतकश जनता को महज़ मज़दूरों और उत्पादकों के तौर पर नहीं बल्कि उपभोक्ताओं के रूप में देखा जाने लगा। हालाँकि फिर स्वयं पूँजीवाद ही मज़दूरों से उपभोक्ता बनने की यह ‘काबिलियत’ छीन भी लेता है, और उन्हें दरिद्रीकरण और बदहाली के गर्त में धकेलता जाता है। इस रूप में मज़दूरों को उपभोक्ता बनने की चाहत से महरूम करने का काम खुद पूँजीवाद ही कर देता है। बहरहाल, एक ओर पूँजीवाद जहाँ मनुष्य को उपभोक्ता (भले ही बहुसंख्यक आबादी को इस ‘योग्यता’ से वंचित करने की शर्त पर) में तब्दील कर देता है, वहीं विज्ञापन उद्योग उस उपभोक्ता को बताता है कि कैसे अधिक से अधिक सामानों के उपभोग द्वारा वह एक अच्छा, स्मार्ट और आधुनिक उपभोक्ता बन सकता है। उदाहरण के लिए, फलाँ ब्राण्ड का डियोडरेण्ट इस्तेमाल करने से आप कैसे लड़कियों में लोकप्रिय हो सकते हैं, या फिर अमुक ब्राण्ड की वॉशिंग मशीन इस्तेमाल करने से आप कैसे एक आधुनिक गृहिणी बन सकती हैं, आदि। विज्ञापन उपभोक्ता को बताने की कोशिश करते हैं कि उसकी हर सामाजिक चिन्ता और निजी असफलता का इलाज वस्तुओं के उपभोग में छिपा है। इस रूप में विज्ञापन उपभोक्ताओं की अभिरुचियों को गढ़ने में प्रभावशाली भूमिका अदा करते हैं। कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि विज्ञापन उपभोक्ताओं को एक भोण्डी भोगवादी जीवन शैली सिखाते हैं और उसका महिमामण्डन करते हैं।
पूँजीवाद विज्ञापनों द्वारा माल अन्धभक्ति (commodity fetishism) को एक नये मुकाम पर पहुँचा देता है। बार-बार लगातार विज्ञापनों के ज़रिये उपभोक्ताओं को यह बताने का प्रयास किया जाता है कि यदि उनके पास अमुक सामान नहीं है तो वे ज़िन्दगी में कितना कुछ ‘मिस’ कर रहे हैं। बार-बार लगातार यह बताया जाता है कि सुखी-सन्तुष्ट जीवन का एकमात्र रास्ता बाज़ार के ज़रिये वस्तुओं का उपभोग है; केवल माल और सामान ही लोगों को खुशी और सामाजिक रुतबा प्रदान कर सकते हैं। बिना किसी अपवाद के हर विज्ञापन का यही स्पष्ट सन्देश होता है चाहे वह विज्ञापन किसी कार कम्पनी का हो या किसी बीमा कम्पनी का, किसी सौन्दर्य प्रसाधन का ब्राण्ड हो या फिर किसी शराब या मोबाइल फोन की कम्पनी का; यही सन्देश बार-बार रेखांकित किया जाता है। सामानों, वस्तुओं, मालों को प्रसन्नता, आज़ादी, सुरक्षा, समृद्धि और रुतबे का समतुल्य बना दिया जाता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विक्टर लिबोव नामक एक खुदरा व्यापार विश्लेषक ने इस सोच को कुछ इन शब्दों में व्यक्त किया, “हमारी बेहद उत्पादक अर्थव्यवस्था यह माँग करती है कि हम उपभोग को तौरे-ज़िन्दगी बना दें, कि हम सामानों के बेचने और ख़रीदने के काम को रस्मो-रिवाज़ में तब्दील कर दें, कि हम आत्मिक सन्तुष्टि और अपने अहं की तुष्टि को मालों में ढूँढें; सामानों का लगातार बढ़ती दर से उपभोग किया जाना, जला दिया जाना, जर्जर हो जाना, प्रतिस्थापित किया जाना, और फेंक दिया जाना हमारी ज़रूरत है।” पूँजीवादी अर्थतंत्र के तर्क को इन महाशय ने जितनी सुष्पटता, बेलाग-लपेट और नंगे तरीके से रखा है, वही तर्क आज विज्ञापन उद्योग हर 30 सेकण्ड में चीख-चीखकर कर बोल रहा है।
फिर सवाल उठता है कि आखिरकार विज्ञापन इतने प्रभावशाली क्यों होते हैं? पहला कारण जो दिमाग में आता है वह है दुहराव। एक 30 सेकण्ड का विज्ञापन लगातार दुहराव के ज़रिये लोगों के मस्तिष्क पर निरन्तरता के साथ प्रभाव छोड़ता रहता है। दिन में सैकड़ों बार आनेवाले ये विज्ञापन इतनी सूक्ष्मता और गहराई से काम करते हैं कि हमें पता भी नहीं चलता कि हम कहीं न कहीं अवचेतन तौर पर उन मूल्यों से ‘रिलेट’ करने लगते हैं जिनका प्रचार इन विज्ञापनों में हो रहा होता है। विज्ञापनों में दर्शायी गयी मूल्य-व्यवस्था (value system) को सहज बोध (common sense) में तब्दील कर दिया जाता है और हम उनमें यकीन करने लगते हैं। हम जाने-अनजाने उनके अनुरूप बर्ताव भी करने लगते हैं, एक बार भी उस पर सवाल खड़ा किये बिना। हम कब विज्ञापनों में इस्तेमाल किये जानेवाले जिंगल गुनगुनाने लगते हैं या फिर उनके स्लोगन और टैगलाइन दोहराने लगते हैं; हमें पता भी नहीं चलता।
दूसरा, विज्ञापन इस रूप में भी प्रभावी हैं कि वे हमसे किसी किस्म की सक्रिय भागीदारी (involvement) की माँग नहीं करते हैं। विज्ञापनों को देखते वक्त न तो आपको अपने समय का ही और न ही भावनाओं का ही निवेश करना पड़ता है। टी-वी- पर विज्ञापन चलते रहते हैं, आप अपना काम भी करते रहते हैं, और विज्ञापन भी इसी बीच अपना काम करते रहते हैं। एक-दो घण्टे लम्बी फिल्म या एक-डेढ़ साल तक चलने वाला सोप ऑपेरा आप से लगातार सक्रिय भागीदारी और निवेश की माँग करता रहता है। इस रूप में विज्ञापन अन्य पूँजीवादी प्रचार माध्यमों से ज़्यादा प्रभावशाली और वर्चस्वकारी हैं। जो काम दो घण्टे की फिल्म नहीं कर सकती वह एक 30 सेकण्ड का विज्ञापन कर देता है।
तीसरा, विज्ञापन महज़ सामानों/उत्पादों की मार्केटिंग का माध्यम मात्र नहीं है बल्कि पूँजीवाद का एक सांस्कृतिक उत्पाद भी है और इस रूप में भी विज्ञापनों का असर लम्बे समय तक बना रहता है। इस मायने में विज्ञापनों का महत्व और उनकी ताक़त इस बात में निहित है कि उनका प्रभाव आर्थिक तो होता ही है लेकिन उससे कहीं अधिक सांस्कृतिक और विचारधारात्मक होता है। यह उपभोक्ताओं के ख़रीदारी से जुड़े लघुकालिक फैसलों को जितना प्रभावित करता है, उससे कहीं ज़्यादा उनके विचारों और दीर्घकालिक व्यवहार पर असर छोड़ता है।
विज्ञापन प्रभुत्वशाली पूँजीवादी विचारधारा को बनाये रखने में भी अहम सामाजिक और सांस्कृतिक भूमिका निभाते हैं। इसके अलावा, विज्ञापन पूँजीवादी संस्कृति, मूल्य-मान्यताओं और तौर-तरीकों को उत्पादित और पुनरुत्पादित करने का ‘लोकेशन’ भी है। लेकिन इसके साथ ही यह पलटकर तमाम सांस्कृतिक मूल्यों को खुद भी प्रभावित करता है और सामाजिक भूमिकाओं को नये तरीके से परिभाषित करता है। उदाहरण के लिए, जहाँ एक ओर विज्ञापनों में स्त्रियों को परम्परागत, जेण्डरगत भूमिकाओं के तहत घर के भीतर की ज़िम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए पेश किया जाता है और पुरुषों को बाहर की ज़िम्मेदारियाँ उठाते हुए दिखाया जाता है, वहीं दूसरी ओर विज्ञापनों में ये सामाजिक भूमिकाएँ एक नये अन्दाज़ में भी पेश की जाती हैं। अब एक औरत घर की ज़िम्मेदारी उठाने के साथ-साथ बाहर भी काम करती हुई दिखायी जाती है, लेकिन वह यह ‘मल्टी टास्किंग’ तमाम तरह के उत्पादों और सामानों की मदद से कर पाती है, इसलिए वह एक “सुपर मॉम” है, एक नये किस्म की आधुनिक स्त्री है, क्योंकि वह चतुराई से सामानों का उपभोग करना जानती है।
इसके अलावा, तमाम तरह के विज्ञापन हमें पूँजीवाद के मूलमंत्र यानी कि पूँजी संचय, बचत और निवेश की हिदायत देते रहते हैं। इन विज्ञापनों में बेशर्मी के साथ बच्चों का इस्तेमाल किया जाता है जो अपने माँ-बाप, दादा-दादी आदि को बचत करने की सलाह देते हुए दिखाये जाते हैं। विज्ञापन हमारे भय और चिन्ताओं का इस्तेमाल जमकर करते हैं। वास्तविक जीवन में व्याप्त भय और असुरक्षा की भावनाओं को (जो कि स्वयं पूँजीवाद की ‘नेमत’ है) विज्ञापनों द्वारा खुलकर भुनाने की कोशिश की जाती है।
विज्ञापन उद्योग अपना सारा ध्यान और समस्त ऊर्जा मध्यवर्ग पर केन्द्रित करता है, क्योंकि एक मॉडल और आदर्श उपभोक्ता वही हो सकता है। इसके साथ ही विज्ञापन फन्तासी और एक आभासी यथार्थ की निर्मिति भी करते हैं। जिस सुख और सुरक्षा का अभाव वास्तविक जीवन में है, उसकी भ्रामक छवियाँ विज्ञापनों में सर्वविद्यमान हैं। यह अन्तरविरोध हर क्षण सक्रिय रहता है। साथ ही विज्ञापनों में यथार्थ का चयनात्मक चित्रण किया जाता है। और कहीं-कहीं तो यथार्थ को सर के बल ही खड़ा कर दिया जाता है। विज्ञापनों का संसार आम तौर पर वास्तविक संसार से मेल नहीं खाता है।
जहाँ तक विज्ञापनों में स्त्रियों के चित्रण का प्रश्न है तो उन्हें माल या उत्पाद से जुड़े हुए सम्बद्ध माल (associated commodity) के रूप में ही चित्रित किया जाता है। स्त्रियों का मालकरण/वस्तुकरण पूँजीवाद जिस तरीके से करता है, उसकी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति एक धरातल पर विज्ञापनों में प्रतिबिम्बित होती है। जिन उत्पादों के विज्ञापन में औरतों की आम तौर पर कोई ज़रूरत नहीं होती, उन विज्ञापनों में भी ज़बर्दस्ती स्त्रियों को रखा जाता है; मिसाल के तौर पर पुरुषों के अण्डरवियर या शेविंग क्रीम के विज्ञापन में स्त्रियों का क्या काम है? मुख्यतः विज्ञापनों में स्त्रियों का चित्रण दो रूपों तक ही सीमित है या तो घरेलू जीवन/संसार के भीतर या फिर यौन इच्छा की वस्तु के रूप में।
विज्ञापनों में मालों के सौन्दर्यीकरण और कला एवं सौन्दर्यशास्त्र के मालकरण का अभूतपूर्व मेल देखा जा सकता है। विज्ञापनों में सौन्दर्यशास्त्र की सबसे उन्नत तकनीकों का इस्तेमाल न सिर्फ मालों को सुन्दर और वांछनीय बनाकर उन्हें बेचने के लिए किया जाता है, बल्कि उपभोक्तावाद को एक तौरे-ज़िन्दगी के रूप में अपनाने के प्रचार के लिए भी किया जाता है।
विज्ञापन पूँजीवादी व्यक्तिवाद से जुड़ी छवियों को एक आदर्श के रूप में पेश करते हैं। इन छवियों में व्यक्तिगत गतिशीलता (individual mobility), ‘सेल्फ़ मेड’ व्यक्तित्व, आत्मकेन्द्रित-आत्ममुग्ध अस्तित्व पर अत्यधिक ज़ोर होता है और इन छवियों को बड़े पैमाने पर विज्ञापनों के ज़रिये बेचा जाता है और लोगों पर आरोपित किया जाता है।
इसके अलावा आजकल के विज्ञापनों में अन्धाधुन्ध उपभोक्तावाद से जन्मे अपराधबोध को खत्म न सही तो उसे कुन्द करने पर भी ख़ासा ज़ोर है। यह एक तरह की ‘पेड’ (चंपक) समाज-सेवा है जिसमें आप वस्तुओं का उपभोग करने के साथ-साथ परमार्थ के कृत्य भी करते हैं, मिसाल के तौर पर टाटा चाय द्वारा चलायी जा रही एक योजना का विज्ञापन, जिसमें कि खरीदारी करने वाली मध्यवर्गीय औरत संतुष्ट है कि उसकी खरीदारी के कारण अमुक ग़रीब लड़की पढ़ सकेगी। इस प्रकार उपभोग से पैदा होने वाले अपराध-बोध को दूर करने की कीमत भी माल की कीमत में जोड़ दी जाती है। आप किसी माल के लिए बाज़ार दर से ऊँची कीमत देने को भी तैयार हो जाते हैं क्योंकि उससे पैदा होने वाला मुनाफ़ा वह कम्पनी किसी धर्मार्थ के कार्य में लगाती है!
‘आइडिया’ (जो कि मोबाइल-इण्टरनेट सेवा प्रदाता है और टेलिकॉम सेक्टर में बिड़ला समूह का प्रतिनिधित्व करता है) के एक विज्ञापन को ही लीजिए, ‘आइडिया इण्टरनेट नेटवर्क (आई.आई.एन.) के नाम से आने वाले ये विज्ञापन कुछ इस तरह से सामने आते हैं कि मानो ये कोई बहुत ही क्रान्तिकारी या आमूलगामी बात कह रहे हों। विज्ञापनों की इस श्रृंखला में एक विज्ञापन की सेटिंग हरियाणा का एक गाँव है। गाँव तो हमें नहीं दिखाया जाता है लेकिन गाँव में ही घर का एक बरामदा है जिसमें कुछ हरियाणवी लड़कियाँ सलवार-कमीज पहने और सिर पर दुपट्टा लिये हुए हैं। इन्हीं में से एक लड़की नैरेटर है जो कहती है कि गाँव में छोरियों को घर से बाहर जाकर कॉलेज में पढ़ने की इज़ाजत नहीं है। फिर वह कहती है कि इसमें कौन सी बड़ी बात हो गयी? अगर हम लड़कियाँ बाहर कॉलेज नहीं जा सकती हैं तो क्या हुआ, कॉलेज तो घर चलकर आ सकता है! और इसके बाद सभी लड़कियों को घर की चाहरदीवारी के बीच स्मार्ट फोनों पर आइडिया इण्टरनेट नेटवर्क की मेहरबानी से घर पर ही कॉलेज की पढ़ाई करते हुए दिखाया जाता है। अब ज़रा इस विज्ञापन के ‘टेक्स्ट’ और ‘सबटेक्स्ट’ पर ग़ौर कीजिए। बहुत मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी और न ही ‘बिटवीन द लाइन्स’ (छिपे हुए अर्थ) पढ़ने की ज़रूरत ही पड़ेगी। पहली बात तो यह कि यह विज्ञापन मानकर चलता है कि आपके पास एक स्मार्ट फोन होगा ही। और अगर नहीं है तो आप किसी काम के नहीं हैं और आपका कुछ नहीं हो सकता है। दूसरे, यह विज्ञापन कथित तौर पर लड़कियों को पढ़ने की आज़ादी दिये जाने के समर्थन में है। लेकिन क्या आज़ादी है यह? ऐसी आज़ादी जो यथास्थिति को बदस्तूर बरक़रार रखती है; किसी किस्म के विद्रोह का स्पेस नहीं देती; और सामन्ती पितृसत्तात्मक रूढ़िवादी घर-गृहस्थी की चाहरदीवारी में नये पूँजीवादी तौर-तरीकों के ज़रिये (क्योंकि याद रखिये यह “आज़ादी” जो स्मार्ट फोन की तकनोलॉजी के ज़रिये इन लड़कियों को मिली है वह इस ‘भले’ पूँजीवाद की ही तो देन है) आयी है। और यह भी ध्यान रखने की ज़रूरत है कि इस विज्ञापन की सेटिंग वही हरियाणा है जो हाल ही में खाप पंचायतों द्वारा अंजाम दी गयी कारगुजारियों के लिए सुर्खियों में था और पूरे देश में औरतों पर थोपे जाने वाली पाबन्दियों, कट्टरपंथी पितृसत्ता के लिए कुख्यात रहा है। यह विज्ञापन तो पूँजीवादी आधुनिकता द्वारा सहयोजित इन सामन्ती संस्थाओं को भी खूब रास आया होगा। क्योंकि यह विज्ञापन इन पंचायतों द्वारा थोपी गयी मूल्य-मान्यताओं और संस्कारों के साथ कोई छेड़छाड़ किये बिना, उनके सामने कोई चुनौती उपस्थित किये बगैर लड़कियों के पढ़ने-लिखने की आज़ादी का समर्थन कर रहा है। लड़कियाँ घर के भीतर रहेंगी तो बाहर जाकर लड़कों से घुलेंगी-मिलेंगी नहीं, प्यार नहीं करेंगीं, स्वतंत्र सम्बन्ध नहीं बनायेंगीं और जो पार्थक्य ये खाप पंचायतें बनाये रखना चाहती हैं, वह वैसे ही बरकरार रहेगा। इस रूप में ‘आइडिया’ के सभी विज्ञापन न सिर्फ यथास्थितिवादी हैं बल्कि घोर प्रतिक्रियावादी भी हैं। मिसाल के तौर पर, एक प्रचार में दो मित्र हैं जो कि होटल मैनेजमेण्ट के उद्योग में जाना चाहते हैं। उनमें से एक होटल मैनेजमेण्ट की भारी-भरकम फीस देने की क्षमता रखता है और दूसरा नहीं। ऐसे में, दूसरा दोस्त भी होटल मैनेजमेण्ट के कोर्स में एडमिशन लेने की बजाय आइडिया इण्टरनेट नेटवर्क से होटल मैनेजमेण्ट सीखता है। इस तरह दोनों दोस्त एक बहुत ही अच्छी लोकेशन पर एक रेस्तराँ खोल देते हैं! दर्शक हैरान रहता है कि जिनके पास होटल मैनेजमेण्ट के कोर्स की फीस देने के लिए भी पैसे नहीं थे, उन्होंने ओपेन एयर दमकता रेस्तराँ बनाने के लिए इतनी बड़ी जगह ख़रीद ली, या किराये पर ले ली! लेकिन विज्ञापन आपसे तर्क के प्रयोग की अपेक्षा नहीं रखते! बस विज्ञापन देखिये और समझ लीजिये कि आइडिया इण्टरनेट नेटवर्क का इस्तेमाल आपको भी कर लेना चाहिए।
जीवन बीमा से जुड़े तमाम विज्ञापनों को ले लीजिए। ये विज्ञापन समूचे विज्ञापन जगत के एक ख़ास रुझान को दर्शाते हैं। जैसा कि ब्रेष्ट ने कहा था, “एक बैंक स्थापित करने की तुलना में एक बैंक लूटना क्या है?” ब्रेष्ट ने अपने उपन्यास ‘थ्री पेनी नॉवेल’ में दिखाया है कि किस तरह पूँजीवादी व्यवस्था समाज में असुरक्षा और अनिश्चितता का माहौल पैदा करती है और फिर इस असुरक्षा और अनिश्चितता पर भी वह धन्धा करती है! बीमा और बैंक उद्योग इन्हीं चारित्रिक अभिलाक्षणिकताओं की पैदावार है। और इनके विज्ञापन इस सच्चाई को एकदम ठण्डी वस्तुपरकता के साथ आपके बीच पेश करते हैं। इनमें एक ख़ास प्रकार का पूँजीवादी यथार्थवाद है! इन विज्ञापनों में मार्क्स की वह प्रसिद्ध उक्ति चरितार्थ होती नज़र आती है कि “पूँजीवाद ने सभी पवित्र माने जाने वाले रिश्ते-नातों को आना-पाई के स्वार्थी हिसाब-किताब के ठण्डे पानी में डुबो दिया है।” एक ऐसे ही विज्ञापन में (शायद आई-सी-आई-सी-आई- प्रुडेन्शियल के) एक मध्यवर्गीय आदमी को पता चलता है कि उसे कैंसर है और यह सोचकर वह घबरा जाता है कि उसके परिवार के सदस्यों की इस पर क्या प्रतिक्रिया होगी। वह कल्पना जगत में चला जाता है। वह देखता है कि इलाज पर होने वाले खर्च का पता चलने पर उसकी पत्नी यह सोचकर दुःखी है कि जो कीमती हार वह खरीदना चाहती थी अब नहीं खरीद पायेगी! उसका बेटा एक मोटरसाइकिल पर टेक लगाये हीरो की तरह खड़ा था कि अचानक वह मोटरसाइकिल ग़ायब हो जाती है और वह धड़ाम से ज़मीन पर गिरता है। और तब वह कैंसरग्रस्त आदमी इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि ये सब न हो इसके लिए चिकित्सा बीमा पॉलिसी ही ले लेना बेहतर है। यह विज्ञापन स्पष्ट तौर पर दिखा रहा है कि उस व्यक्ति की जान की कोई कीमत नहीं है! जिस चीज़ की कीमत है वह है कि सुरक्षा, माल और पैसा! पूँजीवादी समाज और व्यवस्था स्वयं अपना जिस प्रकार प्रचार कर रहे हैं वह पतनशीलता के इस अभूतपूर्व दौर में ऐसी गलाज़त और ऐसी अश्लीलता के साथ हो रहा है जो उबकाई पैदा करती है।
विज्ञापन जगत पूँजीवादी उन्मादी करियरवाद को बढ़ावा देने और इस प्रक्रिया में अपना माल बेचने के लिए भी अमानवीय हदों तक जाता है। मिसाल के तौर पर अब बोर्नवीटा का एक विज्ञापन ही लीजिए। इसमें एक मध्यवर्गीय माँ अपने बेटे को एक दौड़ की प्रतियोगिता के लिए तैयारी करवाते हुए दिखायी जाती है। यह माँ हर कीमत पर अपने बेटे पर प्रतियोगिता जीतने के लिए दबाव बनाती हुई नज़र आती है। वह बच्चे को दौड़ा-दौड़ाकर बेहाल कर देती है। दिखाया जाता है कि वह खुद बेटे से रेस लगाती है और उसे खुश करने के लिए उसे जीतने नहीं देती। बल्कि उसे हराती है और पहले से तेज़ दौड़ने के लिए प्रेरित करती है। इसी की तैयारी के लिए वह उसे बोर्नवीटा पिलाती है। पूँजीवादी गलाकाटू प्रतिस्पर्द्धा और होड़ में यह बच्चा पिछड़ न जाये इसके लिए यह मध्यवर्गीय महत्वाकांक्षी माँ अपनी सारी उम्मीदों का भार उसके नन्हें कंधों पर डालने से भी नहीं हिचकिचाती है; “तैयारी जीत की” नामक टैगलाइन से आनेवाला यह विज्ञापन इस बात पर चुप है कि अगर बच्चा रेस हार गया तो क्या होगा? शायद इसलिए क्योंकि रेस हारने वालों की जगह पूँजीवाद में है ही नहीं। बोर्नवीटा के ही एक विज्ञापन में एक अन्य प्रतिस्पर्द्धी मध्यवर्गीय माँ अपने बेटे को तैराकी प्रतियोगिता में हिस्सेदारी के लिए तैयार करती है। बच्चे की एक टाँग में फ्रैक्चर होता है इसलिए माँ भी अपनी एक टाँग बाँध लेती है और जब तक बच्चा तैराकी की तैयारी करता है तब तक वह भी एक टाँग पर खड़ी रहती है। यह एक बीमार किस्म के पूँजीवादी व्यक्तिवाद और ‘तकलीफ़ के कल्ट’ का निर्माण करने का प्रयास है जिससे कि महामानव तैयार होते हैं। यह एक अन्धे, अमानवीय, असंवेदनशील किस्म के करियरवाद को बढ़ावा देता है।
इसके अलावा अमेज़ॉन डॉट कॉम, फ्लिपकार्ट, जबाँग, स्नैपडील जैसे ऑनलाइन रिटेल स्टोर अपने विज्ञापनों के ज़रिये उपभोक्तावाद की एक नयी लहर पैदा कर रहे हैं। “और दिखाओ-और दिखाओ-अपना नारा और दिखाओ”, “यह पहनूँ-क्या पहनूँ”। इन सभी स्लोगनों के साथ आनेवाले ये विज्ञापन उपभोक्ताओं के एक खास हिस्से को, यानी खाते-पीते मध्यवर्ग को टारगेट करते हैं और उन्हीं को आकर्षित करते हैं। ये विज्ञापन नग्न बेशर्म किस्म के उपभोक्तावाद के परिचायक हैं। ये डंके की चोट पर कहते हैं कि जो भी पुराना हो जाये उसे बेच दो। कई बार यह स्पष्ट भी नहीं किया जाता कि माल या आदमी और कई बार माल के रूपक के तौर पर इंसान को इस्तेमाल किया जाता है।
इसके अलावा तमाम सौन्दर्य प्रसाधनों से जुड़े विज्ञापन एक खास किस्म की खूबसूरती के मानकों को सब पर थोपने का प्रयास करते हैं। ये विज्ञापन न सिर्फ सुन्दरता के मौजूदा मूल्यों को आरोपित करते हैं बल्कि नये मूल्यों-मानकों को गढ़ते भी हैं। चाहे फेयरनेस क्रीम के विज्ञापन हों या एण्टी-एजिंग क्रीम के, सभी में सुन्दरता से जुड़े मानकों का सार्वभौमिकीकरण (universalisation) और एकरूपीकरण (ीवउवहमदपेंजपवद) ही दिखायी देता है। इसलिए पूँजीवादी सौन्दर्य बाज़ार में अगर आप गोरे नहीं हैं, जवान नहीं हैं, एक खास किस्म के शारीरिक बनावट के नहीं हैं, तो आपको शायद ही कोई ख़रीदार मिले। सौन्दर्य प्रसाधनों का हरेक विज्ञापन यही सन्देश लिए हुए होता है। गोरेपन को लेकर जो कुण्ठा हमारे देश में अंग्रेज़ी गुलामी के दौर में पैदा की गयी थी उसे आज तक कायम रखा गया है। यह एक ख़ास प्रकार का एकलसंस्कृतिकरण और एकरूपीकरण करता है जो कि हमारे देश के लोगों की मानसिक गुलामी को कायम रखने में ही योगदान करता है चूँकि यह बिकता है।
विज्ञापन किस तरह वर्गों का प्रारूपीकरण (typicalisation) भी करते हैं, इसका उदाहरण “सी.पी. प्लस” नामक सी.सी.टी.वी. कैमरा कम्पनी के एक विज्ञापन में आप देख सकते हैं। इस विज्ञापन में एक उच्चमध्यवर्गीय शिशु और उसकी देखभाल करनेवाली आया या फिर घर की नौकरानी को दिखाया जाता है। यह नौकरानी बच्चे के खाने को बच्चे के मुँह के पास ले जाती है और फिर उसे खुद ही खा जाती है। फिर वह विकृत किस्म से हँसते हुए दिखायी जाती है। इतने में अचानक गुस्से से भरी एक आवाज़ सुनायी देती है “शान्ति, ऊपर वाला सब देख रहा है।” चूँकि सी.सी.टी.वी. कैमरा लगा हुआ था इसलिए घर की मालकिन नौकरानी पर निगाह रखने में कामयाब रही और ऐसा “भयानक कृत्य” करते हुए उसे रंगे हाथों पकड़ लिया। ज़रा सोचिए, क्या यह विज्ञापन एक खास वर्ग के प्रति पूर्वाग्रह पैदा करने का काम नहीं कर रहा है? अगर ऊपर वाला सब देख रहा है तो किसी कारखाने या फैक्ट्री में एक कारखानेदार द्वारा अपने मज़दूरों को न्यूनतम मज़दूरी न दिये जाने पर चुप क्यों है? और विज्ञापन अपनी प्रस्तुति के केन्द्र में ऐसी कोई सेटिंग क्यों नहीं रखता। या फिर इसी नौकरानी को ही लीजिए, उसकी मालकिन ही उसे कितनी कम मज़दूरी देती है, या उससे तय काम से कितना अधिक काम करवाती है; अपने वर्ग चरित्र के चलते न तो कोई सी.सी.टी.वी. कैमरा ही कभी यह कैद करेगा और न ही कोई विज्ञापन ही ऐसा कोई चित्रण करेगा। यह विज्ञापन यह मानकर चलता है कि मज़दूर वर्ग के लोग और ग़रीब फितरत से ही धोखेबाज़ होते हैं और उन पर लगातार नज़र रखना अनिवार्य है। यह समूची ग़रीब आबादी का अपमान करता है और उसके प्रति मध्यवर्गीय आबादी में पूर्वाग्रह पैदा करने का काम करता है। किसलिए? ताकि सीसीटीवी कैमरा बेचने वाली कम्पनी का माल बिके!
इस संक्षिप्त चर्चा के बाद हम देख सकते हैं कि विज्ञापन न सिर्फ पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में अहम भूमिका अदा करते हैं बल्कि वे पूँजीवादी विचारधारात्मक उपकरण के रूप में पूँजीवादी दृष्टिकोण, मनोविज्ञान और संस्कृति का बेहद चालाकी और बारीकी के साथ प्रचार-प्रसार भी करते हैं। विज्ञापन अत्यन्त वर्चस्वकारी तरीके से एक ख़ास नज़रिये से सोचने के लिए लोगों (जिसे कि वे महज़ उपभोक्ता के रूप में देखते हैं) की सहमति लेने का काम करते हैं। लेकिन, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि न तो प्रकृति में और न ही समाज में कोई भी प्रक्रिया या परिघटना एकाश्मी तरीके से चलती रहती है। और चूँकि लोग सोचते हैं और लोग अपने हालात के बारे में भी सोचते हैं, इसलिए पूँजीवाद का कोई भी प्रोपगैण्डा कितना भी वर्चस्वकारी क्यों न हो लोगों को चिरन्तन काल तक चीज़ों के प्रति अनालोचनात्मक नहीं बनाये रख सकता। विज्ञापनों के दर्शक महज़ निष्क्रिय ग्रहणकर्त्ता (passive receiver) नहीं होते बल्कि सचेतन/सक्रिय अभिकर्त्ता (conscious@active agent) भी होते हैं। विज्ञापनों के बाहर विद्यमान वास्तविक दुनिया लोगों को विज्ञापनों में निर्मित की गयी कृत्रिम/फ़न्तासी की दुनिया की असलियत दिखा ही देती है। लोग किसी भी सांस्कृतिक उत्पाद जैसे कि फिल्म, गीत, विज्ञापन आदि का एक ग़ैर-आलोचनात्मक पाठ कर सकते हैं, तो वे इसका आलोचनात्मक पाठ भी कर सकते हैं, जैसा कि स्टुअर्ट हॉल ने दिखलाया था। जब लोग अपने जीवन की भौतिक और वास्तविक सामाजिक स्थितियों से प्रस्थान करते हुए विज्ञापन द्वारा प्रक्षेपित चित्रों और बिम्बों को देखते-समझते हैं तो बजाय उसके प्रभाव में आने के वह उनके प्रति घृणा से भी भर सकते हैं और उसके प्रति उपेक्षा का दृष्टिकोण भी अपना सकता है। लेकिन फिर भी इतना तय है कि आज विशेष तौर पर मध्यवर्ग के विभिन्न संस्तरों में पूँजीवादी संस्कृति उद्योग विज्ञापन के ज़रिये सबसे सूक्ष्म और कुशल तरीके से अपने विचारों, मूल्य-मान्यताओं, अर्थ प्रणालियों (system of meaning) का प्रचार-प्रसार करते हैं और इस रूप में पूँजीवादी व्यवस्था के विचारधारात्मक प्रभुत्व को स्थापित करने का प्रयास करते हैं। चूँकि यह घर-घर में घुसे टेलीविज़न के माध्यम से लोगों के दिमाग़ में प्रवेश करता है और अन्तहीन दुहराव के ज़रिये अपने द्वारा प्रसारित सन्देश को रेखांकित करता रहता है, इसलिए इसका प्रभाव दूरगामी और गहरा होता है। इसका प्रभाव इसलिए भी दूरगामी और गहरा होता है क्योंकि आज पूँजीवादी प्रचार उद्योग बेहद कुशल और सूक्ष्म तरीकों से और बेहद उन्नत तकनोलॉजिकल और सांस्कृतिक माध्यमों के ज़रिये अपने प्रचारों का निर्माण कर रहा है।
(वैसे यह आलेख मजदूर बिगुल नामक साम्यवादी पत्रिका के दैनिक वाड्सएप द्वारा प्रेषित मंच से प्राप्त किया गया है लेकिन इस आलेख को नान्दीपाठ डॉट इन नामक वेबसाइट ने वर्ष 2016 में प्रकाशित किया था। आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)