गौतम चौधरी एवं जनलेख टीम की खास रपट
विधानसभा चुनाव की आहट से पहले संताल समुदाय झारखंड की राजनीति के केंद्र में है। यूपीए गठबंधन का नेतृत्व संताल मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के हाथों में है। हेमंत सोरेन के पिता और झारखंड मुक्ति मोर्चा सुप्रीमो शिबू सोरेन आज भी संतालों के करिश्माई नेता माने जाते हैं।
राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन का नेतृत्व भी संताल समुदाय से आने वाले पूर्व मुख्यमंत्री और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी के पास है। संताल वोटों की रही-सही कसर पूरी करने के लिए भाजपा ने झामुमो के दो कद्दावर संताल नेताओं पूर्व मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन और लोबिन हेम्ब्रम को तोड़ा है।
यह माना जा रहा है कि सरकार किसी की भी बने, मुख्यमंत्री पद के लिए सबसे प्रबल दावेदारी दोनों ओर से किसी संताल की ही रहेगी।
हिंदी के शिखर कवि गजानन माधव मुक्तिबोध का सवाल ‘पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’ इन दिनों झारखंड के सियासी पंडितों को संताल समुदाय के बारे में मथ रहा है। प्रभात खबर संवाददाता ने यही सवाल संताल समुदाय से आने वाले समाजशास्त्री डॉ. सुजीत कुमार सोरेन से पूछा. आखिर संतालों की पॉलिटिक्स क्या है? डॉ. सोरेन तीन शब्दों में उत्तर दिया- जल, जंगल, जमीन।
तीनों शब्दों का राजनीतिक ताकत से आशय पूछे जाने पर सोरेन कहते हैं कि जल, जंगल और जमीन ये तीनों संताल समुदाय की जीवन पद्धति का आधार है। इस पर किसी व्यक्ति विशेष का अधिकार नहीं होता है, संताल अपनी जरूरत इससे पूरी करते हैं और मिल-जुलकर इसका संरक्षण करते हैं।
सदियों से चली आ रही इस परंपरा ने संतालों के बीच मजबूत सामूहिकता का निर्माण किया है। इस कारण गांव के स्तर पर होनेवाले एकजुट फैसलों का दायरा विस्तृत होकर राज्य तक पहुंच जाता है। ऐसे में बड़े आंदोलनों को निर्णायक रूप देने और बड़े सवालों पर जनमत को एकमत करने में संतालों की बड़ी भूमिका होती है। इससे संताल समुदाय राज्य में बड़ी राजनीतिक ताकत के रूप में उभरता है। इसके परिणाम सत्ता केंद्र में भी देखे जाते हैं।
क्या परंपरा, जीवन मूल्य और सियासत के स्तर पर संतालों के एजेंडे समान हैं? उनमें कोई भिन्नता नहीं हैं? इतिहासकार डॉ. सुरेंद्र झा इससे इत्तफाक नहीं रखते हैं। सुरेंद्र झा कहते हैं कि हो सकता है कि कुछ मुद्दों पर संताल समुदाय एकजुटता दिखाता हो, लेकिन दूसरे समुदायों की तरह संताल समुदाय में भी विविधता देखने को मिलती है।
सुरेंद्र झा के मुताबिक, सबसे पहले तो पूजा-पद्धति के स्तर पर ही संताल समुदाय तीन भागों में बंटा है। एक हिस्से को विदिन होड़ कहते हैं। ये लोग अपने धर्म को विदिन भी बताते हैं। यह संताल समुदाय का प्रकृति पूजक हिस्सा है। जो अपनी पारंपरिक मान्यताओं और आस्था पर आज भी टिका है। ये लोग मरांगबुरू के नाम से भगवान शंकर की भी पूजा करते हैं।
दूसरे हिस्से को सफाहोड़ कहते हैं। यह विदिन होड़ का परिष्कृत स्वरूप है। ये लोग मांस-मछली नहीं खाते हैं। सादगी और भक्ति में जीवन जीते हैं। ये लोग कई हिंदू धार्मिक परंपराओं का भी पालन करते हैं। तीसरे हिस्से को उम होड़ कहते हैं। उम का अर्थ स्नान से हैं। ईसाई बनने पर बपतिस्मा की प्रक्रिया में किसी नदी, तालाब या हौज में स्नान कराया जाता है। वहीं से यह शब्द निकला है।
संताल समुदाय के ईसाई बन चुके लोगों को उम होड़ कहा जाता है। सुरेंद्र झा कहते हैं कि सामूहिक रूप से सभी को भले ही संताल कहा जाता है, परंतु, पूजा-पद्धति के आधार पर एक महीन विभाजन रेखा जरूर देखने को मिलती है।
जो चीज इन्हें जोड़ती है, वह है पूर्वजों की समान विरासत, जैसे तीर से गर्भनाल का काटना। इस कारण तीर-धनुष संताल समुदाय की धार्मिक आस्था का प्रतीक है।
सामान्य परिस्थितियों में झामुमो के चुनाव चिन्ह तीर-धनुष के प्रति संतालों के थोड़े झुकाव का यह भी एक बड़ा कारण है। हालांकि, संताल लोग झामुमो के खिलाफ भी बढ़-चढ़कर मतदान करते रहे हैं।
प्रो. सुजीत सोरेन कहते हैं- संताल समुदाय के पारंपरिक स्वशासन की संस्थाएं थोड़े बदलाव के साथ उसी तरह से काम कर रही हैं। हमारे अशिक्षित पूर्वजों की दूरदर्शिता देखिए कि उन लोगों ने सदियों पहले लोकतंत्र की आहट पहचान कर लोकतंत्र में काम आने वाली संस्थाओं का लघु मॉडल कायम कर लिया था। चार स्तरों की हमारी पारंपरिक न्याय प्रणाली आज भी काम कर रही है। गांव स्तर पर माझी बैसी में फैसला होता है। इसके फैसले के खिलाफ इलाका स्तर पर मोर माझी नामक पारंपरिक अदालत में अपील की जा सकती है।
उससे ऊपर देस माझी और सबसे ऊपर लोबिर माझी नामक न्याय प्रणाली काम करती है। इसके तहत सबसे कठोर दंड बिठलाहा है। यानी गांव निकाला और समाज से निकाला दे देना। बिठलाहा की सजा प्राप्त लोगों से संताल समाज से किसी तरह का संबंध नहीं रखता है। इन्हें पश्चाताप होने पर पंचों की राय के बाद फिर से समाज में शामिल किया जाता है।
इन पारंपरिक संस्थाओं के माध्यम से संताल समुदाय के लोगों का सियासी प्रशिक्षण भी होता रहता है। अलग-अलग स्तर पर संस्थाओं के संचालन के अनुभव होते रहने के कारण जो सियासी जागरूकता आती है, उनमें नेतृत्व का गुण विकसित होता है। इससे संताल लोगों की बाकी आदिवासी समुदाय की तुलना में राजनीति सफलता का अनुपात अधिक होता है।
संताली संस्कृति और हिन्दू संस्कृति की तुलना पर शोध करने वाले डॉ. राजकिशोर हांसदा कहते हैं कि लोकुर कमेटी ने आदिवासी की कानून सम्मत परिभाषा दे रखी है। इसके मुताबिक आदिवासी संकोची स्वभाव का होता है। जंगलों और पहाड़ों में रहता है। पारंपरिक सरदार के नेतृत्व को मानता है तथा सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़ेपन का शिकार होता है।
अगर आप संतालों के नाम पर राजनीति करने वाले ईसाई नेताओं को देखेंगे तो आप इनमें से कोई गुण नहीं पाएंगे। बता दें कि राजकिशोर हांसदा हिंदुत्व विचारधारा की ओर झुकाव वाले जनजातीय सुरक्षा मंच के राष्ट्रीय सह संयोजक हैं।
राजकिशोर हांसदा कहते हैं कि हर स्तर पर संताल समुदाय के अधिकतर नेता ईसाई ही क्यों हैं? शिबू सोरेन परिवार को छोड़कर परिदृश्य में तो ज्यादातर वही नजर आते हैं, जबकि इनकी संख्या संताल समुदाय में पांच फीसदी भी नहीं है।
राजकिशोर हांसदा कहते हैं-मतांतरित संतालों को ईसाई मिशनरियां लीडरशिप के लिए प्रोजेक्ट करती हैं। उन्हें ट्रेनिंग देती है और अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क का लाभ दिलाकर उन्हें राजनीतिक रूप से सशक्त बनाने के लिए हरसंभव सहायता दिलाती है।
इस कारण ईसाई बन चुके लोग संतालों के नाम पर पूरी तरह से सियासी हकमारी कर लेते हैं। फिर आदिवासी एजेंडे को किनारे कर ईसाई एजेंडे को आदिवासी एजेंडा बताकर राजनीति की रोटी सेंकते हैं।
राजकिशोर हांसदा बताते हैं कि संतालों में ईसाई लोग पांच फीसदी से भी कम हैं, फिर भी पूरे समुदाय का नेतृत्व इन लोगों ने हड़प रखा है। अधिकतर पार्टियों के संताल नेताओं को बौद्धिक मामलों में ईसाइयों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। इसी कारण वे अपना एजेंडा चलाने में सफल हो जाते हैं। जिन गांव में ईसाई संताल विदिन संतालों से काफी कम हैं, वहां भी नेतृत्व ईसाइयों के हाथ में ही होता है।
भाजपा बांग्लादेशी घुसपैठ और कथित लैंड जेहाद के नाम पर संतालों का वोट लुभाने की पूरी तैयारी कर चुकी है। इसके लिए भाजपा नेता आक्रामक प्रचार युद्ध का सहारा ले रहे हैं। जब इस बारे में प्रो. सुजीत सोरेन से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि संताल इलाके में डेमोग्रााफी बदल रही है। यह कठोर सच्चाई है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता है लेकिन इसका ठीकरा केवल बांग्लादेशी घुसपैठ के ऊपर नहीं फोड़ा जा सकता है।
क्योंकि कौन बंगाल से आया और कौन बांग्लादेश से, इसके ठीक-ठाक और पुष्ट आंकड़े कहीं उपलब्ध नहीं हैं। दूसरी ओर बिहार और उत्तर प्रदेश से भी बड़ी संख्या में आए लोगों ने संताल इलाके में ठिकाना बनाया है। इससे भी डेमोग्राफी बदल रही है। खास कर व्यापारी वर्ग के लोगों ने संतालों को हाशिए पर ढ़केलने का काम किया।
सुजीत सोरेन बताते हैं कि जहां तक जमीन के लिए लव जेहाद की बात है तो संताल लड़कियों के मुस्लिम लड़कों से शादी की बात बड़े पैमाने पर होने की बात सही है, लेकिन ऐसा केवल मुसलमानों के बारे में नहीं है। बहुत सारे दूसरे गैर आदिवासी भी संताल लड़कियों से शादी कर रहे हैं। संताल डेमोग्राफी में इसके कारण भी बदलाव हो रहा है।
जनजातीय सुरक्षा मंच के राष्ट्रीय सह-संयोजक राजकिशोर हांसदा कहते हैं कि लैंड के लिए लव जेहाद की भयावहता संतालों की सामुदायिक परपंरा के अनुशासन को नकारने के कारण पैदा हुई है। ऐसा धर्मांतरित ईसाई लोग करते हैं।
सामाजिक अनुशासन को नहीं मानने के कारण संतालों में ज्यादातर ईसाई परिवारों की ही लड़कियां दूसरे समुदाय में शादी करती हैं। क्योंकि इनके परिवारों को न तो सामाजिक रूप से दंडित किया जा सकता है और न ही बिठलाहा किया जाता है, इसलिए संतालों में लव जेहाद की शिकार अधिकतर ईसाई लड़कियां हो रही हैं।
जिन संताल ईसाई परिवारों में केवल बेटियां होती हैं, उन परिवारों को लैंड के लिए लव जेहाद का सॉफ्ट टारगेट बनाया जाता है, ताकि इन परिवारों की जमीन पर आसानी से कब्जा जमाया जा सके. स्थिति इतनी खराब है कि कई संताल गांव में तो एक भी संताल मर्द नहीं बचे हैं। केवल संताल स्त्रियां हैं। संताल पत्नियों के माध्यम से मुस्लिम समुदाय के लोग ग्राम-पंचायतों पर भी कब्जा जमा रहे हैं।
भाजपा संतालों के बीच लव जेहाद और लैंड जेहाद का मुद्दा गरमाने में लगी है। इसके बावजूद संताल समुदाय की ओर से कोई बड़ी प्रतिक्रिया अभी तक सामने नहीं आई है। यहां तक कि संताल वोटों की सबसे अधिक दावेदारी करने वाला झामुमो भी भाजपा के प्रति आलोचनात्मक ही है और झामुमो नेताओं की ओर से इस विवाद का रुख बिहार और उत्तर प्रदेश से आए कथित बाहरी लोगों की ओर भी मोड़ने की कोशिश की गई है।
झामुमो के इस स्टैंड का मतलब पूछे जाने पर राजकिशोर हांसदा कहते हैं कि मुस्लिम, मांझी, महतो झामुमो का पुराना वोट बैंक है। झामुमो इस वोट बैंक को किनारे नहीं कर सकता है। दूसरी ओर, शिबू सोरेन भले ही बोल चुके हैं कि उनकी पार्टी का हरा झंडा समाजवाद का है, जबकि मुस्लिम समुदाय के लिए यह भगवा के खिलाफ इस्लाम का हरा परचम है। इस कारण संताल समुदाय को झामुमो से लगाव है और वे बढ़-चढ़कर वोट देते हैं।
बिहार में पहले मुख्यमंत्री से लेकर अभी तक के कई मुख्यमंत्रियों की जाति को सरकारी जाति कहा जाता रहा है। क्या संताल भी झारखंड की सरकारी जाति है? इसके जवाब में राजनीतिक विश्लेषक चंदन मिश्रा कहते हैं, झारखंड में संतालों के बारे में इस निष्कर्ष तक पहुंचना अतिरेक होगा. क्योंकि झारखंड में संतालों का उस तरह का वर्चस्व नहीं दिखता हैं।
चंदन मिश्रा कहते हैं कि संताल समुदाय राजनीतिक पदों के अलावा ब्यूरोक्रेसी, अकादमिक नेतृत्व या बिजनेस, नौकरी या और भी दूसरे क्षेत्र में बहुत प्रभावी भूमिका में नहीं दिखता है। चंदन मिश्रा के मुताबिक, बिहार में जिन जातियों की सरकारी जाति के रूप में चर्चा होती रही है, वे जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों में भी प्रभावी भूमिका में रहे हैं। हालांकि, उन जातियों में से किसी खास जाति को किसी खास मुख्यमंत्री के कालखंड के लिए सरकारी जाति कहना राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप तक ही सीमित रहा। वे जातियां बाकी मुख्यमंत्रियों के समय में भी कमोबेश जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों में प्रभावी स्थिति में रहीं।
जहां तक संतालों की बात है तो सत्ता केंद्र में आदिवासी समुदाय में उनसे अधिक प्रभावी स्थिति उरांव लोगों की है। क्योंकि उरांव समाज काफी पढ़ा-लिखा है। इस कारण ब्यूरोक्रेसी, ज्यूडिशियरी, यूनिवर्सिटी या उद्योग-कारोबार में भी उरांव नेतृत्वकारी स्थिति में हैं।
चंदन मिश्रा संतालों की सिय़ासी ताकत को अलग नजरिये से देखते हैं। वे कहते हैं कि संताल झारखंड में सबसे अधिक आबादी वाला आदिवासी समुदाय है। इनकी जनसंख्या लगभग 45-50 लाख के बीच है। इसके अलावा जमीन-जायदाद के मामले में भी ये दूसरे आदिवासी समुदायों से अधिक संपन्न हैं।
वहीं इनकी पढ़ाई-लिखाई का स्तर भी अच्छा है। संताल लोग सामाजिक और राजनीतिक अभियानों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। इस कारण वे राजनीति में प्रभावी भूमिका में पाये जाते हैं। इसलिए झारखंड की आदिवासी केंद्रित राजनीति में संताल ज्यादा दृश्यमान नजर आते हैं।
चंदन मिश्रा का कहना है कि दूसरे आदिवासी समुदाय राज्य के किसी खास हिस्से में ही हैं, जबकि संतालों का फैलाव 16-17 जिलों में है. 12-13 जिलों में तो इनकी अच्छी-खासी आबादी है। संतालपरगना और कोल्हान की तो पूरी सियासत के केंद्र में ही संताल हैं।
बोरियो, बरहेट, लिट्टीपाड़ा, महेशपुर, शिकारीपाड़ा, दुमका, जामा, घाटशिला, सरायकेला आदि विधानसभा सीटों पर अधिकतर संताल ही जीतते हैं। इसके अलावा दर्जन भर ऐसी विधानसभा सीटें और हैं जहां संतालों के समर्थन के बिना जीतना टेढ़ी खीर है।
धनबाद, बोकारो और गिरिडीह जिले की कई विधानसभा सीटों पर संताल वोट बैलेंसिंग फैक्टर है। 81 विधानसभा वाले छोटे राज्य में अगर कोई समुदाय 25-30 विधानसभा सीटों पर प्रभाव रखता है तो उसकी उपेक्षा कौन कर सकता है। इस कारण सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों में संतालों को लुभाने की होड़ लगी है।
भील और गोंड के बाद संताल देश का तीसरा सबसे बड़े आदिवासी समुदाय है। एक अनुमान के मुताबिक, देश के छह राज्यों में फैले संतालों की जनसंख्या एक करोड़ से अधिक है। ये झारखंड के अलावा बिहार, ओड़िशा, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और आसाम में भी निवास करते हैं। इनकी भाषा संताली को संविधान की आठवीं अनुसूची में भी शामिल किया जा चुका है।
संताली सविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने वाली झारखंड की एकमात्र आदिवासी भाषा है। संताली के कई साहित्यकारों को साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। संताली साहित्य का स्तर भी तुलनात्मक रूप से ऊंचा है। इस कारण संतालों की विश्वदृष्टि का विकास भी राष्ट्रीय स्तर पर अच्छा है। असम में संताल समुदाय से मंत्री, विधानसभा अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री भी हो चुके हैं।
यही कारण है कि संताल मतों को लेकर भाजपा और झामुमो में रस्सकसी चल रहा है। हालांकि इस वोट पर मजबूत पकड़ अभी भी झारखंड मुक्ति मोर्चा की दिख रही है लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने जो मुस्लिम अतिक्रमण का मामला उठाया है वह अब इस समुदाय को अपील कर रहा है। उसे बांग्लादेशी और मुस्लिम आक्रमण की आड़ में अपनी मुक्ति का मार्ग दिखने लगा है। इससे वे न केवल मुसलमानों को परास्त करने में सफल हो सकते हैं अपितु गैर गादिवासी हिन्दुओं पर भी उन्हें बढ़त मिल सकती है। यही नहीं इस नारे से उन्हें अपनी पारंपरिक पहचान को बचाए रखने में भी फायदा नजर आ रहा है। इसलिए हो सकता है इस बार संताल की राजनीति बदलाव लेकर आए।
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