अजमेर कांड : समाज, राजनीति और न्यायपालिका पर बड़ा सवाल

अजमेर कांड : समाज, राजनीति और न्यायपालिका पर बड़ा सवाल

अजमेर हिंदुओं के लिए एक पवित्र शहर है क्योंकि यहां ब्रह्मा जी का पवित्र स्थल पुष्कर मंदिर है, दूसरी तरफ सूफी संत ख्वाजा मुउईद्दीन चिश्ती की दरगाह है। आज ये शहर फिर सुर्खियों में आ गया है क्योंकि 32 साल पहले 1992 में यहां बेहद शर्मनाक और खौफनाक घटना घटी थी, जिसमें सौ से ज्यादा नाबालिग बच्चियों के साथ ब्लैकमेल करके बार-बार गैंगरेप किया गया था। 20 अगस्त को पोक्सो अदालत ने उस घटना में शामिल दरिंदो में ने 6 दरिंदों को उम्रकैद की सजा सुनाई है। इन दरिंदों के नाम हैं, नफीस चिश्ती, नसीम, सलीम, चिश्ती, इकबाल भाटी, सोहेल गनी और सैयद जमीर हुसैन, इन्हें पांच-पांच लाख जुर्माना भी किया गया है।

इससे पहले 1998 में अजमेर की सत्र अदालत ने आठ लोगों को इस मामले में आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी लेकिन 2001 में राजस्थान हाई कोर्ट ने इनमें से चार आरोपियों को बरी कर दिया था। इसके बाद 2003 में सुप्रीम कोर्ट ने उन चार आरोपियों की सजा आजीवन कारावास से कम करके मात्र दस साल कर दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि दुर्भाग्य से गवाही के लिये पेश हुए कई पीड़ित मुकर गए। कोई भी उनकी मजबूरी समझ सकता है कि वो गवाही क्यों नहीं देना चाहते। उनकी पहचान उजागर हो जाएगी जो उनके भविष्य पर असर डाल सकती है। कहा जाता है कि इस मामले में कुछ लोग बहुत पावरफुल थे जिनके पीड़ित लड़कियों के साथ शारीरिक संबंध थे।

आरोपी ख्वाजा की दरगाह के खादिमों के परिवार से थे, इसलिए मामला बहुत संवेदनशील बन गया था, इसके अलावा इस मामले में युवा कांग्रेस के नेता भी शामिल थे। रसूखदार लोगों के जुड़े होने के कारण पीड़ित लड़कियों की आवाज दबाने की भरसक कोशिश की गई। पीड़िताओं का बयान है कि शुरू में अधिकारियों ने उनको न्याय दिलाने की जगह उनको रोकने की कोशिश की क्योंकि उनका मानना था कि इस घटना से शहर की कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ सकती है। इसकी दूसरी वजह यह भी थी कि ज्यादातर आरोपी मुस्लिम समाज से थे और पीड़िताएं हिन्दू समाज से थी। गंगा-जमुनी तहजीब बचाने के नाम पर लड़कियों को चुप कराने की कोशिश की गई थी।

आरोपी रसूखदार परिवारों से थे, इसलिए उन्होंने अपने रसूख का इस्तेमाल करके शहर के प्रतिष्ठित कॉलेज की रसूखदार परिवारों की हिन्दू लड़कियों को अपना शिकार बनाया। 1992 में मामला सामने आने से पहले दो-तीन साल तक वो सैकड़ों लड़कियों का बार-बार गैंगरेप करते रहे। लड़कियों की उम्र 11 से 20 साल तक थी। एक लड़की को पहले फंसाया गया और उसकी न्यूड फोटो खींची गई और उसको ब्लैकमेल किया गया कि वो अपनी सहेली को लेकर आए, ये सिलसिला चल पड़ा और सैकड़ों लड़कियों इस तरह दरिंदो के जाल में फंस गई।

एक फोटो स्टूडियो में उनकी नग्न फोटो कैमरे की रील से तैयार की जाती थी. वहीं से स्टूडियो में काम करने वाले लोगों ने भी नग्न फोटो का सहारा लेकर उन लड़कियों को ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया और वो भी उन लड़कियों का यौन शोषण करने लगे। एक पत्रकार के हाथ वो फोटो लग गई और मामला पुलिस तक भी पहुंच गया। धीरे-धीरे पूरे शहर में बात फैल गई लेकिन इस पर खुल कर कोई बात नहीं कर रहा था। पुलिस का कहना था कि कोई पीड़िता सामने नहीं आ रही है तो हम कार्यवाही कैसे कर सकते हैं।

अजमेर के एक स्थानीय समाचार पत्र के रिपोर्टर संतोष कुमार गुप्ता और उसके संपादक मंजू चौधरी ने इस पर अपनी खबर प्रकाशित की तो सारे शहर में हल्ला मच गया। पुलिस फिर भी अपराधियों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं कर रही थी लेकिन मीडिया में खबर आने के बाद अपराधियों ने अपने खिलाफ सबूत मिटाने शुरू कर दिये। कई लड़कियों ने आत्महत्या कर ली और कई लड़कियों के परिवारों ने उन्हें दूसरे शहर भेज दिया और कई लड़कियां परिवार सहित शहर छोड़ कर चली गई। हिन्दू संगठनों ने दबाव बनाकर पुलिस को कार्यवाही करने के लिए मजबूर किया। सरकार भी मामले में कार्यवाही करने से डर रही थी क्योंकि अपराधी दरगाह खादिमों के परिवार से थे और इसके अलावा वो कांग्रेस पार्टी से भी जुड़े हुए थे।

1990 से 1992 के बीच जो लड़कियां अजमेर में रहती थी, उन सभी पर एक प्रश्नचिन्ह खड़ा हुआ था कि वो भी कहीं उन दरिंदो के हवस का शिकार तो नहीं बन चुकी हैं। उन लड़कियों के कहीं रिश्ते नहीं होते थे और जहां रिश्ते किए जाते थे, वो परिवार पत्रकारों से छानबीन करते थे कि वो लड़की उन लड़कियों में तो शामिल नहीं है। मतलब पूरे अजमेर शहर की लड़कियों पर सवाल खड़ा हो गया था क्योंकि पीड़िताओं की संख्या सैकड़ों में थी। अपराधी आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक रूप से शक्तिशाली थे, इसलिए उनके खिलाफ कोई पीड़िता सामने नहीं आ रही थी, इसलिए पुलिस के लिए कार्यवाही करना बहुत मुश्किल हो रहा था। 16 लड़कियों को रिपोर्ट दर्ज करवाने के लिए मनाया गया लेकिन बाद में अपराधियों और उनके लोगों ने धमका कर 13 लड़कियों को रिपोर्ट वापिस लेने पर मजबूर कर दिया।

इसके अलावा इस मामले में एक गवाह ने दबाव में आकर आत्महत्या कर ली और एक की संदिग्ध हालातों में मौत हो गई। तीन लड़कियां मामले में डटी रही तो आगे की कार्यवाही हो सकी। सरकार दरगाह को बदनाम होने से बचाने की कोशिश कर रही थी और दूसरी तरफ अपराधी मुस्लिम समाज के थे तथा पीड़िताएं हिन्दू समाज से थी तो मामला हिन्दू-मुस्लिम होने से बचाने की कोशिश की जा रही थी। देखने में आया कि दरगाह के खादिम अपराधियों को बचाने की कोशिश करते रहे।

हैरानी की बात है कि सरकार को कानून-व्यवस्था और शांति की चिंता थी और दरगाह वालों को अपने परिवार के युवाओं की लेकिन उन बच्चियों की चिंता किसी को नहीं थी। कल्पना करिए कि स्कूल की छोटी बच्चियों के साथ बार-बार गैंगरेप किया गया था। सोच कर ही सिहरन हो जाती है कि उन बच्चियों के साथ क्या गुजरी होगी। उनकी मानसिक और शारीरिक हालत क्या होगी जिनके साथ बार-बार अपराधी ब्लैकमेल करके गैंगरेप कर रहे थे।

ये घटना समाज पर सवाल खड़े करती है कि हम लड़कियों के प्रति इतने संवेदनहीन क्यों हैं कि बिना मर्जी के, डराकर, धमकाकर और लालच या धोखा देकर किये गये यौन शोषण के लिए भी लड़कियों को ही दोष देते हैं। समाज उन्हें बेहद गंदी नजरों से देखता है, उनके लिए किसी से नजर मिलाना मुश्किल हो जाता है। उनकी शादियां नहीं होती और परिवार को सिर झुकाकर चलना पड़ता है। अगर ऐसा नहीं होता तो पहली लड़की ही अपराधियों के खिलाफ खड़ी हो जाती और सैकड़ों लड़कियां इस जुल्म का शिकार होने से बच जाती। हमें यौन शोषण और दुष्कर्म का शिकार होने वाली लड़कियों के प्रति अपना रवैया बदलना होगा और उन्हें पीड़ित की तरह देखकर उनके साथ सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करना होगा, तभी उनमें ऐसी हिम्मत आयेगी कि वो ऐसे दरिंदो के खिलाफ खड़ी हो सकेगी । अगर हमारा रवैया नहीं बदला तो हर घर की लड़की शिकार बनेगी।

राजनीतिक दलों पर सवाल है कि वो शांति सद्भावना और कानून-व्यवस्था के नाम पर ऐसी घिनौनी करतूत करने वालों के प्रति कार्यवाही करने से न डरें। राजनीतिक दल अपने लोगों को बचाने की कोशिश करते हैं और कैसी भी वीभत्स घटना हो जाये, वो राजनीति करने से बाज नहीं आते. उन्हें संभलना होगा क्योंकि उनकी भी बच्चियों के साथ ऐसा हो सकता है। अजमेर में पीड़िताएं रसूखदार परिवारों से थी, इसके बावजूद उन्हें न्याय नहीं मिल सका और उनको दरिंदों से बचाया नहीं जा सका। सुप्रीम कोर्ट ने कोलकाता रेप कांड पर बड़ी-बड़ी बातें की है लेकिन उसको जवाब देना चाहिए कि इतने घिनौने कांड पर सजा देने में 32 साल कैसे लग गए और अभी भी मामला हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जा सकता है। हो सकता है कि इन अपराधियों में से कुछ ऊपरी अदालतों में बरी हो जायें या उनकी सजा कम हो जाये क्योंकि जिनको पहले सजा दी गई हैं, उनमें से चार बरी हो चुके हैं और चार की सजा बहुत कम हो गई है।

इस घटना ने पूरी न्यायपालिका, राजनीति और समाज को कटघरे में खड़ा कर दिया है. अपराधियों के साथ ये भी उन बच्चियों के साथ अन्याय के लिए दोषी हैं। दूसरी बात यह भी सच है कि मामले में सिर्फ 18 लोगों को आरोपी बनाया गया था लेकिन इसमें उससे कहीं ज्यादा लोग जुड़े हुए थे। खबर को प्रकाशित करने वाले रिपोर्टर संतोष कुमार गुप्ता कहते हैं कि इन लोगों के अलावा बहुत ताकतवर लोग भी इसमें शामिल थे लेकिन जांच केवल 18 लोगों तक सीमित कर दी गई। बेशक जिन्हें सजा दी गई है, वो भी रसूखदार हैं लेकिन जो बच गए वो कहीं ज्यादा ताकतवर लोग होंगे जो सजा से बच गए। इन लड़कियों के कई गुनाहगार कानून की पकड़ से बच गए हैं क्योंकि पीड़िताएं सामने नहीं आई और कुछ गवाह खत्म कर दिए गये और कुछ डराकर चुप करा दिए गये। ये मामला व्यवस्था पर बड़ा सवाल है और हमेशा रहेगा।

(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)

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